तिब्बत (Tibet) स्थिति : ३२� ३०� उ० अ० तथा ८६� ०� पू० दे०। यह मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेंणियों के मध्य कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित है। इसकी ऊँचाई १६,००० फुट तक है। यहाँ का क्षेत्रफल ४७,००० वर्ग मील तथा अनुमानित जनसंख्या १२७३,९ = ६९, (१९५३) है। तिब्बत का पठार पूर्व में शीकांग (Sikang) से, पशिचम में मश्मीर से दक्षिण में हिमालय पर्वत से तथा उत्तर में कुनलुन पर्वत
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से घिरा हुआ है। यह पठार पूर्वी एशिया की बृहत्तर नदियों हांगहों, मेकांग आदि का उद्गम स्थल है, जो पूर्वी क्षेत्र से निकलती हैं। पूर्वी क्षेत्र में कुछ वर्षा होती है एवं १२००� की ऊँचाई तक वन पाए जाते है। यहाँ कुछ घाटियाँ ५,००० फुट ऊँची हैं, जहाँ किसान कृषि करते हैं। जलवायु की शुष्कता उत्तर की ओर बढ़ती जाती है एवं जंगलों के स्थन पर घास के मैदान अधिक पाए जाते है। जनसंख्सा का घनत्व धीरे धीरे कम होता जाता है। कृषि के स्थान पर पशुपालन बढ़ता जाता है। साइदान घाटी एवें कीकोनीर जनपद पशुपालन के लिये विशेष प्रसिद्ध है।
बाह्य तिब्बत की ऊबड़ खाबड़ भूमि की मुख्य नदी त्साडपॉ (बह्मपुत्र) है, जो मानसरोवर झील से निकल कर पूर्व दिशा की ओर प्रवाहित होती है और फिर दक्षिण की ओर मुड़कर भारत एवं पाकिस्तान में होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है। इसकी घाटी के उत्तर में खारे पानी की छोटी छोटी अनेक झीलें हैं, जिनमें टेंगारी नार मुख्य है। इस अल्प वर्षा एवं स्वल्प कृषि योग्य है। त्साडपॉ की घाटी में वहाँ के प्रमुख नगर लासा, ग्साडसे एवं शिगात्से आदि स्थित है। बाह्य तिब्बत का अधिकांश भाग शुष्क जलवायु के कारण केवल पशुचारण के योग्य है और यही यहाँके निवासियों का मुख्य व्यवसाय हो गया हे। कठोर शीत सहन करनेवाले पशुओं में याक मुख्य है जो दुध देने के साथ बोझा ढोने का भी कार्य करता है। इसके अतिरिक्त भेड़, बकरियाँ भी पाली जाती है। इस विशाल भूखंड में नमक के अतिरिक्त स्वर्ण एवं रेडियमधर्मी खनिजों के संचित भंडार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऊबड़ खाबड़ पठार में रेलमार्ग बनाना अत्यंत दुष्कर और व्ययसाध्य है अत: पर्वतीय रास्ते एवं कुछ राजमार्ग (सड़कें) ही आवागमन के मुख्य साधन है। ये सड़के त्साडपाँ नदी की घाटी में स्थित नगरों को आपस में मिलाती है। पीकिंग-लासा राजमार्ग एवं लासा काठमांडू राजमार्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने की अवस्था में है। इनके पूर्ण हो जोने पर इसका सीधा संबंध पड़ोसी देशों से हो जायेगा। चीन और भारत ही तिब्बत के साथ व्यापार में रत देश पहले थे। यहाँ के निवासी नमक, चमड़े तथा ऊन आदि के बदले में चीन से चाय एवं भारत से वस्त्र तथा खाद्य सामग्री प्राप्त करते थे। तिब्बत एवं शिंजियांग को मिलानेवाली सड़क का निर्माण जो लद्दाख से होकर जाती है पूर्ण हो चुका है। लासा - पीकिंग वायुसेना भी प्रारंभ हो गई है। यहाँ के निवासियों मे अधिकांशत: मंगोल जाति के हैं। यहाँ की जनसंख्या का घनत्व अत्यंत विरल है।
इतिहास - मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेणियों, कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित १६००० फुट की ऊँचाई पर स्थित इस राज्य का ऐतिहासिक वृतांत लगभग ७ वी शताब्दी से मिलता है। ८वीं शताब्दी से ही यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार प्रांरभ हुआ। १०१३ ई० में भारत से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। १०४२ ई० में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुँचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल १२०७ ई० में प्रांरभ हुआ। मंगोलों का अंत १७२० ई० में चीन के माँचू प्रशासन द्वारा हुआ। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहाँ भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, पर १७८८-१७९२ ई० के गुरखों के युद्ध के कारण उनके पैर यहाँ नहीं जम सके। परिणाम स्वरूप १९ वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर रखी यद्यपि इसी बीच लद्दाख पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने आधिपत्य जमा लिया। अंग्रेंजों ने अपनी व्यापारिक चौकियों की स्थापना के लिये कई असफल प्रयत्न करने के बाद १९०६-७ ई० में तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता देकर यह कार्य संपन्न किया, और याटुंग ग्याड्सें एवं गरटोक में अपनी चौकियाँ स्थापित की १९१२ ई० में चीन से मांचू शासन अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को पुन: स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। सन् १९१३-१४ में चीन, भारत एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी भागों में विभाजित कर दिया गया: (१) पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के सिंघाई एवं सिकांग प्रांत हैं। इसे (Inner Tibet) अंतार्वर्ती तिब्बत कहा गया। (२) पश्चिमी भाग जो बौद्ध धमानुयाई शासक लामा के हाथ में रहा। इसे बाह्य तिब्बत (Outer Tibet) कहा गया। सन् १९३३ ई० में १३ वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद से बाह्य तिब्बत भी धीरे धीरे चीनी धेरे में आने लगा। चीनी भूमि पर लालित पालित १४ वें दलाई लामा ने १९४० ई० में शासन भार सँभाला। १९५० ई० में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण लामा के चुनाव में दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई एवं चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। १९५१ की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। इसी समय से भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी जो क्रमश: १९५६ एवं १९५९ ई० में जोरों से भड़क उठी। परतुं बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। अत्याचारों, हत्याओं आदि से किसी प्रकार बचकर दलाई लामा भारत पहुँच सके। अब सर्वतोभावेन चीन के अनुगत पंछेण लामा यहाँ के नाममात्र के प्रशासक हैं।