डोगरी भाषा और साहित्य पश्चिमी पहाड़ी बोलियों के परिवार में, मध्यवर्ती पहाड़ी पट्टी की जनभाषाओं में, डोगरी, चंबयाली, मडवाली, मंडयाली, बिलासपुरी, बागडी आदि उल्लेखनीय हैं।
डेगरी इस विशाल परिवार में कई कारणों से विशिष्ट जनभाषा है। इसकी पहली विशेषता यह है कि दूसरी बोलियों की अपेक्षा इसके बोलनेवालों की संख्या विशेष रूप से अधिक है। दूसरी यह कि इस परिवार मे केवल डोगरी ही साहित्यिक रूप से गतिशील और संपन्न है। डोगरी की तीसरी विशिष्टता यह भी है कि एक समय यह भाषा रियासत कश्मीर तथा चंबा राज्य में राजकीय प्रशासन के अंदरूनी व्यवहार का माध्यम रह चुकी है। इसी भाषा क संबंध से इसके बोलनेवाले डोगरे कहलाते हैं तथा डोगरी के भाषाई क्षेत्र को सामान्यतया 'डुग्गर' कहा जाता है।
डोगरी का केंद्र - रियासत जम्मू कश्मीर की शरत्कालीन राजधानी जम्मू नाम का ऐतिहासिक नगर, डोगरी की साहित्यिक साधना का प्रमुख केंद्र है, जहाँ डोगरी के साहित्यिकों का प्रतिनिधि संगठन 'डोगरी संस्था' के नाम से, इस भाषा के साहित्यिक योगक्षेम के लिये गत लगभग २० वर्षो से प्रयत्नशील है।
डोगरी पंजाबी की उपबोली है, यह भ्रांत धारणा डा० ग्रियर्सन के भाषाई सर्वेक्षण के प्रशंसनीय कार्य में डोगरी के पंजाबी की उपबोली के रूप में , उल्लेख से फैली। इसमें उनका दोष नहीं। उस समय उनके इन सर्वेक्षण में प्रत्येक भाषा, बोली का स्वतंत्र गंभीर अध्ययन संभव नहीं था।
जॉन बीम्ज ने भारतीय भाषा विज्ञान की रूपरेखा संबंधी अपनी पुस्तक (प्रकाशित १८६६ई०) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि डोगरी न कश्मीरी की अंगभूत बोली है, न पंजाबी की। उन्होंने इसे भारतीय-जर्मन परिवार की आर्य शाखा की प्रमुख ११ भाषाओं में गिना है।
डा० सिद्धेश्वर वर्मा ने भी डोगरी की गणना भार की प्रमुख सात सीमांत भाषाओं में की है।
डोगरी की लिपि- डोगरी की अपनी एक लिपि है जिसे टाकरी या टक्करी लिपि कहते हैं। यह लिपि काफी पुरानी है। गुरमुखी लिपि का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता है। कुल्लू तथा चंबा के कुछ प्राचीन ताम्रपट्टों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का प्रारंभिक रूप में विकास १० वीं- ११वीं शताब्दी में हो गया था। वैसे टाकरी वर्ग के अंतर्गत आनेवाली कई लिपियाँ इस विस्तृत प्रदेश में प्रचलित हैं जैसे, लंडे, किश्तवाड़ी, चंबयाली, मंडयाली, सिरमौरी और कुल्लूई आदि। डा० ग्रियर्सन शारदा को और टाकरी को सहोदरा मानते हैं। श्री व्हूलर का मत है कि टाकरी शारदा की आत्मजा है।
टाकरी लिपि आज भी डुग्गर के देहाती समाज में बहीखातों में प्रयुक्त होती है। इसका एक विकसित रूप भी है जिसमें कई ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। कश्मीर नरेश महाराज रणवीर सिंह ने, आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व, अपने राज्यकाल में, डोगरी लिपि में, नागरी के अनुरूप, सुधार करने का प्रयत्न किया था। मात्रा, चिह्नों के प्रयोग को अपनाया गया तथा पहली बार नई टाकरी लिपि में डोगरी भाषा के गंथों के मुद्रण की समुचित व्यवस्था के लिये जम्मू में शासन की ओर से � रणवीर प्रेस� की स्थापना की गई।
पुरान डोगरी वर्णमाला का यह संशोधित रूप जनव्यवहार में लोकप्रिय न हो सका। लोग पुराने ढंग से ही टाकरी लिपि का प्रयोग करते रहे। � मोग� लिखने के स्थान पर � म और ग� लिखना ही प्रचलित रहा।
डोगरी के लिये नागरी लिपि - डोगरी की नव साहित्यिक चेतना के साथ ही साथ टाकरी का स्थान नागरी ने ले ले लिया।
डोगरी की कुछ स्वर विषयक विशेषताएँ:
१ डोगरी में शब्दों के आदि में य तथा घ्वनियाँ नहीं आतीं, इनके स्थान पर ज तथा व घ्वनियाँ उच्चरित होती है।
(पंजाबी) वेहड़ा (आगण) - वेडा (डोगरी)
यजमान (हिंदी) - जजमान (डोगरी)
यश (हिंदी) - जस (,,)
२ डोगरी में शब्दों के आदि में � ह� का उच्चारण हिंदी पंजाबी से सर्वथा भिन्न होता है।
हिंदी पंजाबी डोगरी ।ह का उच्चारण उस सुर (्च्रदृदड्ढ)
हाथ हत्थ � अत्थ । के समान जिसके लिये अंतराष्ट्रीय लिपी
हाल हाल � आल । में � या � चिन्ह है।
३. डोगरी में वर्गों के चतुर्थ वर्णो के उच्चारण में तद्वर्गीय प्रथम अक्षर के साथ हल्की चढ़ती (्ख्रद्ध्रृ द्धत्द्मत्दढ़) सुर जोड़ी जाती है।
हिंदी डोगरी
घड़ा क. � ड़ा
झंडा च. � ड़ा
ढक्कन ढ. � क्कन
धक्का त. � क्का
भार पा. � र
४. ह जब शदों के मध्य में आता है। इसके डोगरी उच्चरण में चढ़ते सुर के स्थान पर उतरते सुर (क़aथ्थ्त्दढ़ ्च्रदृदड्ढ) का प्रयोग होता है, जैसे:
हिंदी डोगरी
पहाड़ प्हाड़ - पा/ड़
मोहर म्होर - मो/र
५. डोगरी के कुछ शब्दों के आदि में � ङ� तथा � ञ� का जैसे अनुनासिकों का विशुद्ध उच्चारण मिलता है, जैसे-
हिंदी डोगरी
अंगार ङार
अंगूर ङूर
अञ्णााा (पंजाबी) ञ्याणा
ग्यारह आरां
६. संस्कृत का � र� जो हिंदी में लुप्पत हो जाता है, डोगरी में प्राय: सुरक्षित है।
संस्कृत हिंदी डोगरी
ग्राम गाँव ग्राँ
क्षेत्र खेत खेतर
पत्र पात पत्तर
स्त्री तिय, तीमी (पं०) त्रीम्त
मित्र मीत मित्तर
इसी प्रवृति के कारण कई रूपों में � र� का अतिरिक्त आगम भी हुआ है, जैसे-
संस्कृत हिंदी डोगरी
तीक्ष्ण तीखा त्रिक्खना
- दौड़ द्रौड़
पसीना परसीना, परसा
कोप कोप करोपी
धिक् चिक्कार ्घ्राग
७. डोगरी संश्लेषणात्मक (Synthetical) भाषा है। इसी के प्रभाव से इसमें संक्षेपीकरण की असाधारण प्रवृति पाई जाती है। संश्लेषणात्मकता जैसे -
संस्कृत हिंदी डोगरी
अहम् मैने में
माम् मुझको में
माम् मुझको मिगी (> मी)
अस्माभि: हमने असें
(हमारे द्वारा)
मह्मम् मुझे मेरे तै (गितै) (मेरे लेई पं०)
मत् मुझसे मेरे शा (मेरे कोलो-पं०)
मयि मुझ में मेरे च (मेरे निच-पं०)
संक्षेपीकरण- जैसे
हिंदी पंजाबी डोगरी
मुझसे नहीं आया जाता मेरे थीं नई आया जांदा मेरेशा नि नोंदा
(औन हुन्दा)
खाया जाता खान हुंदा खनोंदा
८. डोगरी में कर्मवाच्य (तथा भाववाच्य) के क्रियारुपों की प्रवृति पाई जाती है:
खनोंदा - खाया जाता नोग तां - औन होग (पं०) ता
पनोंदा- पिया जाता पजोग - पुज्जन होग उ पहँुच सका तो सनोंदा - सोया जाता
९. डोगरी में वर्णविशर्यय की प्रवृति भी असाधारण रुप से पाई जाती है:
उधार - दुआर
उजाड़ - जुआड़
ताम्र - तरामां
कीचड़ - चिक्कड़ आदि
१०. डोगरी में शब्दों के प्रारंभ के लघु स्वर का प्राय: लोप हो जाता है-
अनाज - नाज
अखबार - खबर
इजाजत - जाजत
एतराज - तराज
डोगरी साहित्य - जनभाषाओं में साहित्यसर्जन का प्रारंभ प्राय: मौखिक परंपरा के रूप में ही होता है। डोगरी में लोकसाहित्य की यह थाती काफी समृद्ध है। डोगरी संस्था के अनुशांसन में उत्साही साहित्यिकों ने इस समय तक से ५०० से अधिक लोकगीत इकट्ठे किए हैं। इन गीतों में भाव तथा संगीत दोनों दृष्टियों से अभिनंदनीय कलात्मकता तथा विविधता है। डोगरों के सामाजिक जीवन की बहुरंगी प्रतिक्रया इनमें अत्यंत सजीव होकर व्यक्त हुई है। डोगरी संस्था की त्रैमासिक पत्रिका (नई चेतना) के प्रतयेक अंक में पाँच पाँच लाकगीत छपते रहे हैं। संस्था ने ही विवाह संबंधी गीतों के एक संग्रह � खारे मिट्ठे अत्थरूं� नाम से प्रकाशित किया है। रियासत के सदरे रियासत (अब राज्यपाल) डा० कर्णिंह जी द्वारा संपादित एक डोगरी लोकगीत संग्रह (अंग्रेजी हिंदी अनुवाद तथा गीतों की मौलिक स्वरलिपि सहित) � शैडो एंेड सनलाइट� नाम से � ऐशिया पाब्लिशिंग हाउस� बंबई द्वारा प्रकाशित किया गया है।
रियासत की कल्चरल अकैडमी भी इन लाकगीतों का संग्रह करने में योग दे रही है।
इसी तरह डोगरी लोककथाओं के संग्रह के लिये भी प्रयत्न हुए हैं। इस समय तक तीन संग्रह छप चुके हैं: १. डोगरी लोककत्था (संपा० श्री बंशीलाल) २. इक हा राजा (संपा० रामनाथ शास्त्री) ३. नमियाँ पौंगरा (संपा० अनंतराम शासी)
दूसरे वर्ग की उपलब्ध पूँजी परिणाम में नगणय होकर भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस वर्ग के ज्ञात कवि ये हैं-
इक्के गल्ल सच्चै दीसै, लाड़िया गलाई दित्ती,
सबने थे कच्चा लोको, कंडिया दा बस्सना
(सच्ची बात तो बस घर की बहू ने कह दी है कि- ए लोगों, कंडी के प्रदेश का निवास सबसे बुरा है।)- एक डोगरी कविता का अंश)
दिक्खी लै रामघना, प्रीतै दी रीतै गी,
लटकना कच्चिया तंदे कन्ने। (एक लंगी डोगरी कविता का अंश)
हे रामघन, प्रेम की इस रीति को देखो जिसमें प्रेमियों को मानों कच्चे धागे पर लटकना पड़ता है।)
नई चेतना के इस तीसरे चरण का प्रारंभ हरदत्त जी की काव्य साधना से हुआ। इनका जन्म सन् १८९० तथा मृत्यु १९५६ में हुई। आप जनकवि थे तथा आपकी डोगरी काव्यसाधना डुगर की दरिद्रता तथा रूढिग्रस्तता की वेदना से अनुप्राणित है।
कियां गुजारा तेरा होगा, ओ डोगरेआ देसा।
(कैसे गुजारा तुम्हारा होगा, ऐ डोगरे देस !)
हरदत्त ने डोगरी कविता के प्रति लोकरुचि को जगाया। वे सुधारवादी थे, हास्य-व्यंग्य के प्रयोग में कुशल । डोगरी में इनके लगभग १०० मुक्तक प्रकाशित हुए।
हरदत्त जी ने इस काव्यसाधना को अकेले ही प्रारंभ किया परंतु १९४० ई० के अनंतर इस क्षेत्र में दूसरे साधकों ने भी प्रवेश किया और शनै: शनै: डोगरी काव्यसाधना, इस धरती की सांस्कृ तिक नवचेतना को वाणी देनेवाला बड़ा जोरदार आंदोलन बनकर उमड़ पड़ी। इस नवचेतना में प्रारंभिक प्रधान स्वर, अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक परंपरा की अनुरक्ति तथा जातीय गौरवभावना से मुखरित हुए। इस प्रवृति में क्रमश्: आवेश की उग्रता कोमल होती गई और सांस्कृतिक आलोक की स्निग्वता उत्तरोत्तर बढ़ती गई, जिसने आगे चलकर मानवता की मूल आकांक्षाओं की विशाल परिधि में प्रवेश पाने की उत्सुकता कारूप धारण किया।
डोगरी कविता में गत तीन दशकों (की सीमित अवधि) में भावविकास के साथ साथ कलाप्रयोगों की विवधिता भी दर्शनीय है। डोगरी कवियों की रचनाओं में हमें जो विषय प्रमुख दिखाई देते हैं वे हैं डुग्गर की हीन दशा पर वेदना, डुग्गर के अतीत के प्रति गौरवभाव, डुग्गर की सांस्कृतिक उपलब्धियों (विशेष रूप से पहाड़ी चित्रकला तथा पहाड़ी संगीत) की प्रशस्ति, डुग्गर की निर्धनता और पिछड़ेपन पर रोप, डुग्गर का प्राकृतिक सौंदर्य, डुग्गर के सुंदर भविष्य की कल्पना, युद्ध और शांति, शोषण की भर्त्सना, भारत की महानता, लोकतंत्र का अभिनंदन, मानवता की विजयाशा, जीवनदर्शन की व्यावहारिक व्याख्या आदि। इसी तरह डोगरी कविता के कलापक्षीय प्रयोगों में भी विकास की झलक बड़ी स्पष्ट होकर प्रकट हुई है। डोगरी के पास अपने छंद ववही थे जो उसके लाककाव्य के विविध अंगो में प्रयुक्त हुए हैं। प्रारंभ में इन्हीं छंदों का प्रयोग हुआ, विशेष रूप से गेय पदों मे। इसके अनंतर लेखक, हिंदी उर्दू तथा पंजाबी से प्रभावित होकर इन भाषाओं के छंदों का भी सहज ही प्रयोग करने लगे। हिंदी के कवित्त, सवैया, दोहा, कुंडलिया आदि छंदों के प्रयोग किए गए। उर्दू छंदों की गतिमयता ने कवियों को अधिक प्रभावित किया। मुक्तकों में कवियों का छंदप्रयोग प्राय: लय तथा गति को ही कसौटी बनाकर होता रहा। छंदों के विषय में अभी तक काई मौलिक अध्ययन नहीं हुआ, परंतु नए नए प्राग लगातार चल रहे हैं। उर्दू की गजल, किता, रुवाई आदि के प्रयोगो की प्रवृति में स्थानीय उर्दू कविसंमेल्लनों का स्पष्ट प्रभाव लक्षित हाता हौ
गद्य साहित्य (नया साहित्य)
कथा उपन्यास- डोगरी साहित्यजीवन का उषाकाल यद्यपि काव्य की अरुणिमा लेकर प्रकट हुआ तथापि उसके स्थिर विकास के लिये जो गद्यसाधना अपेक्षित थी, वह अनुकूल परिस्थिति में प्रत्यक्ष होने लगी। जैसे पद्य के क्षेत्र में नवोन्मेप हरिदत्त की साधना से हुआ, उसी तरह गद्य के क्षेत्र में कथालेखक के रूप में भगवत प्रसाद साठे अग्रणी हैं।
इस समय तक डोगरी में ये प्रमुख कहानीसंग्रह प्रकाशित हुए है:
कहानियों का डोगरी रूपांतर) श्री वेद राही
उपन्यास
१. शान्ते (सामाजिक) श्री नरेंद्र खजूरिया
२. धारां ते धूड़ां (पर्वतमालाएँ और धुंध) श्री मदनमोहन शर्मा
३. हाड़ बेड़ी दे पत्तप(सामाजिक) श्री वेद राही
४. रूकमणी (,,) श्री धर्मचंद्र प्रशांत
५. वादियाँ वीराने (मूल उर्दू से स्वयं लेखक श्री ठाकुर पुंछी द्वारा डोगरी में रूपांतरित)
नाटक
डुग्गर में रंगमंच की परंपरा केवल � रामायण� के वार्षिक प्रदर्शन तक ही सीमित थी। इस नव सांस्कृतिक चेतना ने रंगमंच के लोकप्रिय साधन का भी सफलतापूर्वक प्रयोग किया। इसके लिये नई परिस्थिति की अपेक्षाओं के अनुकूल नए नाटक लिखे गए-
निबंध तथा गद्यानुवाद-
१. त्रिवेणी (साहित्यिक निबंध) श्रीमती शक्ति शर्मा एम०ए०
श्री श्यामलाल बी०ए०
२. बाल भागवत (अनुवाद) श्रीमती शक्ति शर्मा एम०ए०
श्री श्यामलाल बी०ए०
३. पंचतंत्र (संक्षिप्तानुवाद) श्री अनंतराम शास्त्री
४. गीता (अनुवाद) श्री गौरीशंकर
५. दुर्गा सप्तशती (मूल सहित, डोगरी अनुवाद) स्व० श्री कृपाराम शास्त्री
कृपाराम शास्त्री
व्याकरण कोश
१. डीगरी कहावत कोश श्री तारा स्मैलपुरी
२. डोगरी भाषा और व्याकरण श्री बंसीलाल गुप्त (अप्रकाशित)
लोकसाहित्य
पत्रपत्रिकाएँ
फुटकल रचनाएँ