डिंगल (डींगल) राजस्थान के चारण कवियों ने अपने गीतों के लिये जिस साहित्यिक शैली का प्रयोग किया है, उसे 'डिंगल' या डीगल कहा जाता है। वैसे चारण कवियों के अतिरिक्त प्रिथीराज जैसे अन्य कवियों ने भी डिंगल शैली में रचना की है। राजस्थान के भट्ट कवि 'डिंगल' का आश्रय न लेकर 'पिंगल' में रचना करते रहे हैं। कुछ विद्वान् 'डिंगल' और 'राजस्थानी' को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं, किंतु यह मत भाषाशास्त्रीय दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। इस तरह दलपति विजय, नरपति नाल्ह, बरदाई और नल्लसिंह भाट की रचनाओं को भी 'डिंगल' साहित्य में मान लेना अवैज्ञानिकता है। इनमें नाल्ह की रचना 'कथा' राजस्थानी की है, कृत्रिम डिंगल शैली में निबद्ध नहीं, और शेष तीन रचनाएँ निश्चित रूप से पिंगल शैली में हैं। वस्तुत: 'डिंगल' के सर्वप्रथम कवि ढाढी कवि बादर हैं। इस कृत्रिम साहित्यिक शैली में पर्याप्त रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें अधिकांश फुटकर दोहे तथा राजप्रशस्तिपरक गीत हैं। 'डिंगल' के प्रमुख कवियों में बादर, प्रिथीराज, ईसरदास, दुरसा जी आढा, करणीदान कविया, मंछाराम सेवक, बाँकीदास आशिया, किशन जी आढा, मिश्रण कवि सूर्यमल्ल और महाराजा चतुरसिंह जी हैं। अंतिम कवि की रचनाएँ वस्तुत: कृत्रिम डिंगल शैली में न होकर कश्म मेवाड़ी बोली में है।

साहित्यिक भाषाशैली के लिये 'डींगल' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बाँकीदास ने कुकवि बतीसी (१८७१ वि० सं०) में किया है : डींगलियाँ मिलियाँ करै, पिंगल तणो प्रकास। इस शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थवत्ता के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं।

'डिंगल' शब्द का अर्थ अनियमित अथवा गँवारू है। साहित्यशास्त्र एंव व्याकरण के नियमों का अनुसरण न करने के कारण यह शैली 'डिंगल' कही जाती है (तेस्सितोरी)।

२. पहले मरुदेश की भाषा को 'डगल' कहा जाता था, बाद में 'पिंगल' के वजन पर इसे 'डिंगल' कहा जाने लगा (हरप्रसाद शास्त्री)।

३. ड वर्णबहुला होने के कारण इसे 'डिंगल' कहा जाता है (गजराज ओझा)।

४. डमरू की ध्वनि के सादृश्य पर ओजोगुणप्रचुर वीररसात्मक पद्यों की इस भाषाशैली को 'डिंगल' (डिमोगल) कहा जाता है (पुरुषोत्तमदास स्वामी)।

५. मेनारिया इन सभी मतों से असहमत हैं। उनके मतानुसार 'डींगल' शब्द, जो इसका वास्तविक रूप है, डींगे शब्द के साथ स्वार्थे प्रत्यय 'ल' के योग से बना है। इसका वास्तविक अर्थ एक ओर डींग से युक्त (अतिरंजनापूर्ण) और दूसरी ओर अनगढ़ या अव्यवस्थित है।

डिंगल की ध्वनिसंघटना तथा व्याकरण मारवाड़ी या पश्चिमी राजस्थानी के ही अनुरूप है, किंतु इसका शब्दकोश अनेक ऐसे तद्भव, अर्धतत्सम तथा देशज शब्दों से भरा पड़ा है, जो उसी रूप में व्यवहृत नहीं पाए जाते। मिश्रण कवि सूर्यमल्ल के पुत्र मुरारिदान ने एक डिंगलकोष की रचना की है जिसमें डिंगल में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ दिए हैं।

सं० ग्रं०-- मेनारिया, मोतीलाल: डिंगल में वीररस; राजस्थानी भाषा और साहित्य; प्रिथीराज: बेलि क्रिसन रुकमणी री (राजस्थानी साहित्य की रूपरेखा, एकेडेमी संस्करण); सूर्यमल्ल: वीरसतसई; मुरारिदान: डिंगलकोष; ए डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑव बार्डिक ऐंड हिस्टारिकल मैन्युस्क्रिप्ट्स; प्रिलिमिनरी रिपोर्ट आन दि आपरेशन इन सर्च ऑव बार्डिक क्रोनिकिल्स। [भो० शं० व्या०]