डॉग्मा (कट्टर धार्मिक धारणा या मंतव्य) आरंभ में 'डॉग्मा' संमति या व्यवस्था आदेश के अर्थ में प्रयुक्त होता था; पीछे इससे ऐसी धारण अभिप्रेत होने लगी, जिसे कोई व्यक्ति मानता ही नहीं, वरन् उस पर बलपूर्वक जमा रहता है, चाहे कोई पक्षांतर भी उतना ही विश्वस्त क्यों न दीखता हो। अब इस शब्द का प्रयोग प्राय: धर्मविद्या के संबंध में होता है। डॉग्मा ऐसी धारणा है जिसे किसी संप्रदाय के सभी सदस्यों को मानना होता है, क्योंकि यह अपने तत्व में दैवी प्रकाश है। इस प्रकाश को, जब ऐसा करने की आवश्यकता हो, कोई अधिकार संपन्न व्यक्ति या विशेष विचारसभा सूत्रबद्ध करती है। ईसाइयों के लिए ईसा के कथन, बौद्धों के लिए बुद्ध के कथन ऐसे मंतव्य हैं। इन्हें सिद्धांत नही कह सकते, क्योंकि इनके सिद्ध करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
ईसाई संप्रदाय के लिए प्रमुख डॉग्मा 'त्रित्व' का स्वरूप है। त्रिगुट में 'पिता', 'पुत्र' और 'पवित्र आत्मा' तीन स्वाधीन चेतन संमिलित हैं। तीन चेतन कैसे एक चेतन का अंश बन सकते हैं, यह विवेचन का विषय नहीं, अपितु दैवी अविष्कार है। ३२५-२६ ई० में नाईस की विचारसभा में निश्चय किया गया कि 'पिता और पुत्र का तत्व एक ही है', 'पिता' पुत्र का उत्पादक नहीं जनक है। यह भी निर्णीत हुआ कि 'पवित्रआत्मा' पिता और पुत्र दोनों से पैदा हुई है। (दे० 'त्रित्व') १५४५-६३ में, ट्रेंट की विचारसभा में जो मंतव्य निर्णीत हुए, वे प्राय: अब भी रोमन कैथोलिक संप्रदाय के लिए मान्य हैं। १८७० ई० में रोम की सभा में निश्चय किया गया कि पोप को भी अधिकार प्राप्त है कि वह ईसाई मंतव्यय को सूत्रबद्ध कर सके।
धर्मांदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट संप्रदाय ने कहा कि दैवी प्रकाश की व्याख्या प्रत्येक ईसाई का अधिकार है। बुद्ध भिक्षु को दीक्षित होने के समय निम्नांकित व्रत लेने होते थे --
मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ।
मैं धर्म (सुस्थित धर्मसूत्र) की शरण में जाता हूँ।
मैं संघ की शरण में जाता हूँ।
ईसा और गौतम बुद्ध ने जो कुछ कहा, अपने अधिकार से कहा, मुहम्मद ने जो कुछ कहा, वह उनके विचार में, ईश्वरीय संदेश था, जो एक देवदूत ने उन्हें पहुँचाया। इस्लाम में मान्य धर्मसूत्र 'ईमान' कहलाता है। ईमान के सात अंश हैं --
ईश्वर में विश्वास, फरिश्तों में विश्वास, धर्मपुस्तकों में विश्वास, जिन, परी देवों में विश्वास, नदियों में विश्वास, प्रलयदिवस (कयामत) और उसके बाद कर्मों का फल मिलने में विश्वास, भाग्य (किस्मत) में विश्वास।
हर हालत में विश्वासी मानता है कि 'डॉग्मा' सत्य है और अधिकारयुक्त है; यह खुला प्रश्न नहीं। [दीवाचंद]