ट्रीमाटोड प्लैटिहेल्मिंथीज (Platyhelminthes) संघ का एक वर्ग है इस वर्ग के प्राणी का शरीर अखंडित, बाह्यत्वचा अकोशिक या बाह्यरोमक (cilia) विहीन होती है। इन प्राणियों में पाचक नाल रहती है। इस समूह के सभी जीव पराश्रयी होती हैं।
ट्रीमाटोड का शरीर प्राय: चपटे पर्ण अथवा रिबन सदृश होता है। उदरदेशी पृष्ठ पर प्राय: एक या एक से अधिक पेशीचूषक रहते हैं। यह आकृति में स्वाश्रयी टर्बेलेरिया से बहुत सादृश्य रखता है, पर चूषक तथा पोषक से संयोजन रखनेवाला अंगों के विकास एवं रोमक विहीन बाह्य त्वचा के करण दृढ़ बाह्यचर्म का होता है, जो अरकंटक (spines) शस्त्रसज्जित रहता है। इस बाह्य चर्म के नीचे अध:चच्चर्म स्तर रहता है, जिसमें एककोशिक ग्रंथियाँ रहती हैं। चूषक की संख्या एवं विन्यास बहुत परिवर्तित होते हैं।
प्राय: अग्रचूषक एक या जोड़ा होता है और पश्चचूषक या मंडलक सदृश पश्चसंयोजन अंग होता है, जो सहायक चूषक या विभिन्न प्रकार के उच्चर्म अंकुश से युक्त होता है। पश्चसंयोजन अंग का जटिल विकास बाह्य परजीवी रूप, जैसे मोनोजीना (Monogena) की विशेषता है। अंत:पराश्रयी रूप, जैसे डाइजेना (Digena), में पश्चचूषक पेशी मंडलक या प्याला सा होता है जो साधारणत: शरीर के पश्चभाग में स्थित होता है, परंतु यह अधिकतर आगे की ओर इस प्रकार विस्थपित होता है कि अग्रचूषक के ठीक पीछे अथवा मध्य में रहे।
ट्रीमाटोड में रंजक प्राय: विरल होता है, किंतु कुछ स्पीशीज, विशेषकर मोनोजीना के मृदूतक (parenchyma) में रंजक पाया जाता है। अत: पराश्रयी स्पीशीज़ का शरीर आंत्र, गर्भाशय तथा पीतक ग्रंथि (viteline gland) की अंतर्वस्तु के कारण चमकीला रंगीन मालूम पड़ता है। पेशी विन्यास में बाह्यवृत्ताकार एवं अंत:अनुदैर्ध्य तंतु स्तर रहता है। प्राय: तिर्यक् एवं पृष्ठ उदरपेशी तंतु भी रहते हैं।
एक कुल
के अतिरिक्त अन्य कुल
के जीवों में मुँह
आगे के सिरे
पर, या उसके समीप,
स्थित रहता है।
मुँह अग्रचूषक
में खुल सकता
है, या कुछ विशेष
बाह्य परजीवी
रूपों में मुखसमीपी
चूषक से एक ओर
हो जाता है।
पाचक नाल साधारण
बंद कोश हो
सकती है, किंतु
प्राय: इसमें अग्रभाग
और दो पश्च शाखाएँ
होती हैं। अग्र का
मध्य भाग अपेक्षाकृत
छोटा होता
है और पश्च शाखाएँ
पहले भाग के
द्विशाखन से निकलती
हैं। ये शाखाएँ
साधारण हो
सकती हैं, अथवा गौण
रूप से शाखायित
होती हैं और
पुन: पीछे मिलती
हैं, या अलग रह
सकती हैं। ट्रीमाटोड
के बहुसंख्यक प्रकारों
में कोई पश्चद्वार
नहीं होता, किंतु
कुछ स्पीशीज के
बाह्य भाग में एक
या जोड़ा रध्रं
खुलता है। आंत्र
के माध्यम अग्रभाग
का विभेद पेशीचूषक
बल्व या ग्रसनी में
कर सकते हैं और
इसके तथा द्विशाखन
के मध्य का नलिकाकार
भाग ग्रासनली
(oesophagus)
कहलाता है। पाचक
लाल की दीवार
और बाह्य उच्चर्म
के मध्य का स्थान
स्पंजी, संयोजी
ऊतकों अथवा मृदूतक
से भरा रहता
है, जिसमें अन्य अंग
संनिहित रहते
हैं। तंत्रिका तंत्र
में
श्
श्
श्
मिलिमीटर प्रतिरूप ट्रीमाटोड
इनका नाम ऑपिसथॉर्किस फेलिनियस (Opisthorchis felineus) है। १. मुखचूषक, २. आँत, ३. प्रजनन छिद्र, ४. गर्भाशय, ५. अंडाशय,६. तथा ९. वृषण, ७. पश्चचूषक, ८. पीतक ग्रंथि, १०. उत्सर्गी मूत्राशय तथा ११. अंधांत्र
गुच्छिका (ganglionic) समूहों का एक जोड़ा (मस्तिष्क) होता है, जिसकी स्थिति अग्रवती एवं पृष्ठीय होती है तथा अनुदैर्ध्य तंत्रिका रज्जुएँ पीछे की ओर से संपूर्ण शरीर में जाती हैं और तिर्यक् तंतुबंध द्वारा ये अंतरालों पर संबद्ध होती हैं। कुछ बाह्यारजीवी प्रकारों तथा कुछ अंत:परजीवियों में लार्वा अवस्था में नेत्र होते हैं, किंतु अंत:परजीवी में वयस्क होने पर नेत्र नहीं रहते। ट्रीमाटोड की बाह्यत्वचा की सतह पर कुछ उभरे हुए तथा दृढ़ रोमकों से आच्छादित स्पर्श कोन (tactile cones) हो सकते हैं।
उत्सर्जनतंत्र शाखादार नाल से युक्त होता है, जिसकी छोटी शाखाएँ शिखाकोशिकाओं (flame cells) में समाप्त होती हैं। दो अनुदैर्ध्य नाल होते हैं, जो उत्सर्जन कोश के जोड़े में से होकर पृष्ठसतह पर, अथवा उभयनिष्ठ पश्चब्लैडर में, जाते हैं।
कुछ अपवादों के अतिरिक्त ट्रीमाटोड उभयलिंगी होते हैं। प्लैटिहेल्म्थाीिंज के अन्य समूहों की तरह ट्रीमाटोड का जनन अंग जटिल होता है। वृषण प्राय: दो और सघन होते हैं। ये गहरे पालिमत् अथवा विस्तृत शाखादार होते हैं। नर की वाहिनियाँ परस्पर मिली होती हैं और पेशीय विक्षेपी अंग (intromittent organ), अथवा शिश्नक, में से होकर, जो प्राय: विशेष कोष्ठ से युक्त होता है, खुलती हैं, ट्रीमाटोड में अंडाशय एक होता है। यह वृषण की तरह सघन, या न्यूनाधिक शाखादार, हो सकता है। साधारणत: विटेलेरिया (Vitellaria) पुटकों (follicleis) की दो पार्श्व श्रेणियों से युक्त होता है। इनमें से प्रत्येक शाखावाहिनियों द्वारा एक मुख्य पीतकवाहिनी से संयुक्त होती है। दा मुख्य वाहिनियाँ मध्य क्षेत्र में कवचग्रंथि के पास मिलने के लिये शरीर को पार करती हैं।
ट्रीमाटोड के बाह्यपरजीवी प्रकारों में योनि होती है, जो रध्रं द्वारा बाहर खुलती है और गर्भाशय से अधिक स्पष्ट होती है। ट्रीपाटोड में गर्भाशय अंडवाहिनी के सातत्य में रहता है। यह न्यूनाधिक व्यावृत नली है, जो प्राय: नरवाहिनी की बगल में उत्कोष्ठ (atrium) में खुलती है। ट्रीमाटोड के उन प्रकारों में, जिनमें योनि पृथक् नहीं होती, गर्भाशय-निषेचन-नाल अंडों के भंडार एवं इनके निष्कासन का कार्य करती है। कुछ बाह्यपरजीवी ट्रीमाटोड में जननांत्र नाल (genito intestinalcanal) अंडवाहिनी को आंत्र से संयुक्त करती है। अंत: परजीवी ट्रीमाटोड़ों में यह संयोजन नहीं होता, अपितु अंडवाहिनी से लारेर की (Laurer's) नाल नामक वाहिनी निकलती है, जो या तो शरीर की सतह पर खुलती है या चर्म के नीचे बंद होकर समाप्त होती है। अंडे निषेचित होने और उनमें पीतक आ जाने के पश्चात् परिवर्ती प्रकार के बाह्यचर्मी कवच में बंद हो जाते हैं।
ट्रीमाटोड वर्ग को निम्नलिखित दो मुख्य गणों में विभाजित किया गया है, मोनोजीना तथा डाइजेना। इन दोनों गणों की आदत, बनावट और जीवनेतिहस भिन्न होता है।
मोनोजीना बाह्यपरजीवी स्वभाववाला गण है। इसके जीवनेतिहास में पीढ़ियों का एकांतरण नहीं होता। इसका मुख सरल बनावट का होता है और अग्रचूषक से नहीं घिरा होता, यद्यपि पास में ही सहायक चूषकों के जोड़े होते हैं। पश्चचूषक एक या कई युग्मित चूषक हो सकते हैं, जिनमें बाह्यचर्मीय कवच (armature) होता है। एक या जोड़ा योनि गर्भाशय से स्पष्ट पृथक् मालूम पड़ती है और प्राय: युग्मित उत्सर्जन छिद्र शरीर के सिरे में, पर पृष्ठीय, स्थित होते हैं। ट्रीमाटोड के ये गण मछलियों तथा जलवाले अन्य जीवों की बाह्य सतह या जलश्वसनिकाओं पर रहते हैं। ये श्लेष्मल तथा अन्य पदार्थों को और कभी कभी पोषक के रक्त को खाकर जीवित रहते हैं। इस गण में १३ कुल हैं, जिनमें ट्रिस्टोमाटिडी (Tristomatidae), जाइरो डैक्टिलिडी (Gyrodactylidae), पॉलिस्टोमैटिडी (Polystomatidae) तथा ऑक्टोकोटाइलिडी (Octocotylidae) प्रमुख हैं।
डाइजेना गण के अंतर्गत सभी ट्रीमाटोड आते हैं, जो अत:परजीवी हैं, अर्थात् जंतु के शरीर के अंदर रहते हैं। इनक जीवनेतिहास जटिल होता है, वृद्धि के लिये लैंगिक अवस्था (sexual phase) तथा अलिंगी अवस्था या बहुभ्रूणता (polyembryonic) अवस्था के मध्य में एकांतरण होता है। पश्चचूषक, जो साधारण पेशीय अंग है, बिना कवच का होता है। इसमें योनि गर्भाशय से पृथक् नहीं होती। उत्सर्जन छिद्र प्राय: एक और पश्च सिरे पर होता है। इसका वयस्क रूप सभी कशेरूकदंडी जानवरों में पाया जाता है। लार्वा रूप कशेरुकदंडी एवं अकशेरुकदंडी, दोनों जीवों में पाया जाता है। इस वर्ग के उपगण गैस्टेरोस्टोमेटा (Gasterostometa) में केवल एक कुल ब्यूसेफालिडी (Bucephalidae) है, जिसका मुख उदरदेशी सतह के मध्य में स्थित रहता है। इस वर्ग के मुख्य कुल फैसिऑलिडी (Faciolidae), लिपोडरमैटिडी (Lepodermatidae) इत्यादि हैं।
परिवर्धन तथा जीवनेतिहास - मोनोजीना के अंडे पोषक से वृंत की तरह, प्रवर्धों द्वारा चपके रहते हैं, या जल में निक्षिप्त होते है। जाइरोडैक्टिलस में एक बार केवल एक अंडा माता के शरीर के अंदर भ्रूण में विकसित होता है। इसके जन्म से पूर्व दूसरा भ्रूण बनता है। इसमें रोमाभी (ciliated) जंगम (free swimming) लार्वा अवस्था भी हो सकती है, जैसा पॉलिस्टोमम (Polystomum) में होता है। यह लार्वा मेढक के बच्चों (tadpoles) के क्लोमकक्ष पर आक्रमण करता है और पाचक नाल के द्वारा अपने निश्चित निवास स्थान को प्रवसन करता है। डिप्लोज्ऩाू (Diplozoon) में भी जंगम अवस्था होती है। इसके दो लार्वे उदरदेशी चूषक स एक दूसरे को पकड़कर, एक्स (x) की आकृति में समेकित हो जाते हैं। दो मूल जननेंद्रियाँ स्थायी रूप से अंत:संबंद्ध हो जाती हैं। मोनोजीना के अन्य कुलों में जंगम अवस्था नहीं होती। लार्वा अंडा फोड़कर बाहर आता है और वयस्क अवस्था प्राप्त करता है।
डाइजेना में विकास अप्रत्यक्ष होता है। यह एक या दो पोषक बदलता है और कभी कभी जंगम अवस्था भी होती है। भेड़ तथा अन्य जानवरों के यकृतपणभि (liver flukes) का जीवनेतिहास इसका उदाहरण है। यह कशेरुकदंडी जीवों के पीताशय में रहता है। इसके अंडे पोषक के मल के साथ शरीर से बाहर आते हैं और यदि आर्द्रता तथा ताप अनुकूल हुआ तो शीघ्र ही फूट भी जाते हैं। अंडे से निकलने पर भ्रूण रोमाभी जीव रहता है, जिसे माइरासिडियम (Miracidium) कहते हैं। इसके एक जोड़ा नेत्रचिह्न तथा अग्रछेदक अंग होता है। यह तब तक तैरता रहता है जब तक इसे उचित मध्यस्थ पोषक नहीं मिल जाता। मध्यस्थ पोषक के चर्म को छेदकर यह उसके आंतरिक अंगों में प्रवेश कर जात है। यहाँ यह असमाकृति कोश की तरह बढ़ता है, जिसे स्पोरोसिस्ट (Sporocyst) कहते हैं। इसके अंदर रीडिया (Redia) नामक असंख्य जीव कलिकोद्गम (budding) द्वारा बनते हैं। रीडिया में अग्रचूषक तथा कोश की तरह आंत्र होता है। आंतरिक कलिकोद्गम द्वारा, प्रत्येक रीडिया या तो वंशवृद्धि करता है, अथवा भिन्न प्रकार का लार्वा बन जाता है, जिसे सरकेरिया (Cercaria) कहते हैं। सरकेरिया मेढक के बच्चों के समान होत है। इसका शरीर चौड़ा, दुम सकरी, दो चूषक तथा द्विशाखित आंत्र होता है। सरकेरिया घोंघे से निकलकर पानी में तैरता है और अंत में किसी ठोस वस्तु, जैसे घास के फलक, पर बैठ जाता है। यहाँ इसकी दुम समाप्त हो जाती है और यह पुटी स्रवित करता है। जब इस पुटी को कोई कशेरुकदंडी प्राणी निगल जाता है तो सरकेसिया पुटी से स्वतंत्र होकर शरीरंगुहा से होता हुआ यकृत में पहुँच जाता है, जहाँ यह वयस्क पर्णाभ बन जाता है।
शिस्टोसोमिआसिस (schistosomiasis) ट्रीमाटोड द्वारा उत्पन्न मानव का सबसे महत्वपूर्ण रोग है। मिस्र और अफ्रीका के अन्य भागों में शिष्टोसोमा की दो स्पीशीज, एस० हिमाटोबियम (S.haematobium) एस० मैनसोनी (S. mansoni), पाए जाते हैं। एस० हिमाटोबियम एशिया, दक्षिणी यूरोप और आस्ट्रेलिया तथा एस० मैनासोनी वेस्ट इंडीज और दक्षिणी अमरीका में पाया जाता है। ये पर्णाभ आंत्रयोजनी (mesenteric) शिरा तथा निवाहिका (portal) शिराओं में निवास करते हैं। इनके अंडे मूत्राशय तथा आंत्र की केशिकाओं में व्रणोत्पत्ति तथा रक्तस्राव के द्वारा अवरोध और विदार उत्पन्न कर देते हैं। फुफ्फुस पर्णाभ मानव परजीवी हैं। ये सूदूर पूर्व एवं दक्षिण अमरीका और मेक्सिको में पाए जाते हैं। मानव तथा पालतू पशुओं के पाचननाल में जो पर्णाभ मिलते हैं उनक आर्थिक महत्व कम है। (अजितनारायण मेहरोत्रा)