ट्रिकिनोसिस (Trichinosis) ट्रिकिनेला स्पाइरेलिस (Trichinella spiralis) नामक कुंडलाकार कचकृमियों द्वारा यह विकार मनुष्यों, सुअरों, कुत्तों, चूहों तथा अन्य कृंतकों (rodents) में हुआ करता है।
मनुष्यों में इसका उपसर्ग परिपुटित इल्लियों (encysted larva) से युक्त, सुअर क कच्चा या अधपका मांस खाने से होता है। पेट में परिपुटित इल्लियाँ जठररस से स्वतंत्र होकर क्षुद्रांत्र में पहुँचती हैं और दो तीन दिन में प्रौढ़ होकर चौथे दिन से अन्य इल्लियों को उत्पन्न किया करती हैं। ये इल्लियाँ फुफ्फुस तथा हृदय में से होकर ऐच्छिक पेशियों में निवास करती हैं। वहाँ पर १०-१५ दिनों में वे एक मिमी. लंबी होकर कुंडलाकर (spirally coiled) बन जाती हैं। उसके पश्चात् धीरे धीरे इल्ली के चारों ओर पुटियाँ (cysts) बनकर इल्लियाँ अपनी पुटियों में दीर्घकाल तक प्रसुप्त रहकर मौका मिलने पर दूसरों को उपसृष्ट किया करती हैं।
जबतक इल्लियाँ आंत्र में रहती हैं तब तक रोग की प्रथमावस्था होती है। इसमें मचली, वमन, दस्त, आंत्रशूल इत्यादि आंत्रस्थलक्षण होती हैं। कभी कभी ये लक्षण नहीं होते। इल्लियाँ जब रक्त में और पेशियों में पहुँचती हैं तब द्वितीयावस्था होती है। इसमें कमजोरी, थकावट, सिरदर्द, खाँसी, जाड़ा, ज्वर, पसीना, आँखों पर सूजन, शरीर पर विस्फोट (rash), पेशीपीड़ा, जोड़ों में जकड़न, हृदयदुर्बलता, इत्यादि लक्षण होते हैं। मस्तिष्क या रीढ़रज्जु (spinal cord) पर आक्रमण होने से तानिकाशोथ (meningitis), मस्तिष्क शोथ (encephalitis) इत्यादि के समान लक्षण होते हैं। इल्लियों पर पुटियाँ बनने लगती हैं, तब तृतीयावस्था प्रारंभ होती है। इसमें धीरे धीरे लक्षण शांत हो जाते हैं और रोगी बहुधा ठीक हो जाता है। मृत्यु ६ प्रतिशत से अधिक नहीं होती। लक्षणों से रोगनिदान करना कठिन होता है। पेशियों का , विशेषतया त्रिकोणाभ (deltoid) का जीवोति-परीक्षण (biopsy) करने से इल्लियों का दिखाई पड़ना रोगनिदान का एकमात्र साधन है। रोग के लिये कोई खास औषधि नहीं है, अत: चिकित्सा केवल लाक्षणिक की जाती है। सुअर के मासं को अच्छी तरह पकाकर खाना रोग से बचने का उपाय है।
सं. ग्रं. - बायड : टेक्स्टबुक ऑव पैथॉलोजी, सन् १९५८; प्राइस : टेक्स्ट बुक ऑव मेडिसिन (१९५८)। (भास्कर गोविंद घाणेकर)