ट्रामपथ (ट्रामवे, Tramways) सार्वजनिक सड़कों पर लोहे की पटरियों द्वारा बनाए गए पथ को कहते हैं, जिन पर ट्रामगाड़ियाँ चलती हैं। ट्रामगाड़ी का उपयोग शहरों में यातायात की सुगमता के लिये कया जाता है। अमरीका में इसको सड़क की रेल (स्ट्रीट रेलवे) भी कहते हैं। यात्री परिवहन के लिये ही अधिकतर इसका उपयोग होता है, पर कभी कभी इनसे माल भी ढोया जाता है। कोयले की खानों और निर्माण कार्य में प्रयुक्त हलके रेलपथ को भी ट्रामपथ कहते हैं।
ऐतिहासिक प्रगति - आरंभ में ट्रामगाड़ियों के लिये लकड़ी या पत्थर के पटरे जोड़कर पथ तैयार किया जाता था। बाद में १७वीं शताब्दी में लकड़ी के स्लीपरों पर लकड़ी की शहतीरें जड़कर ट्रामपथ बनाया गया। शहतीरों के ऊपर कड़ी लकड़ी की पट्टियाँ कीलों द्वारा जड़ दी जाती थीं, जिसमें घिसने पर वे बदली जा सकें। १७६७ ई. में इन लकड़ी की पट्टियों का स्थान लोहे की पट्टियों ने ले लिया और १९वीं शताब्दी में लोहे की रेलों का उपयोग किया गया। यात्री परिवहन के लिये ट्रामगाड़ी का सर्वप्रथम प्रयोग १८३२ ई. में न्यूयॉर्क हार्लेम-लाइन पर किया गया था। इसकी रेलों में एक गहरी चौड़ी नाली होती थी और इसमें पतले टायर के पहिए चलते थे, परंतु इसमें टायरों के पहिए फँस जाने के कारण इनको निकाल देना पड़ा। फिर २० वर्ष पश्चात् एक फ्रांसीसी मिकैनिक न पतली नालीवाली रेल का प्रयोग किया।
यूरोप में पहला ट्रामपथ १८५५ ई. में पैरिस में बनाया गया। इसमें भी अमरीका की ही भाँति पतली नालीवाली रेल का उपयोग किया गया था। इसकी अनुप्रस्थ काट चित्र में दिखाए आकार की होती थी। इसक कुल चौड़ाई तीन इंच होती थी और बीच की नाली १ १/४'' चौड़ी और ७/८'' गहरी होती थी। रेलों को जोड़ने के लिये जोड़ पट्टियों का उपयोग होता था। रेल भार ३८ पाउंड प्रति गज था।
आधुनिक ट्रामपथ
प्रत्येक देश में
लगभग एक ही प्रकार
का है। अंतर केवल
सड़क की बनावट,
नींव की गहराई
तथा रेल के भार
में ही होता है।
रेलें अधिकतर
११० पाउंड प्रति गज
भार की तथा
४५ से ले ६० फुट तक
लंबी होती हैं।
रेलों का जोड़
पट्टी या झलाई
द्वारा होता
है। इस्पात
श्
की छड़ों द्वारा रेल गेज (gauge) बराबर रखा जाता है। जहाँ बिजली से ट्रामगाड़ी चलती है वहाँ जोड़ में ताँबे का तार प्रयुक्त होता है, जिसमें विद्युत्प्रवाह अबाध रूप से हो सके। रेलों का ऊपरी भाग सड़क के साथा साथ समतल होता है।
ट्रामगाड़ी की चालक शक्ति - आरंभ में ट्रामगाड़ी अश्वों द्वारा चलाई जाती थी। ढलान एवं भार का ध्यान रखते हुए एक से चार घोड़े तक उसको खींचते थे। इसकी औसत गति छ या सात मील प्रति घंटा होती थी। वाष्प इंजन के आविष्कार के बाद गाड़ियों की गति बढ़ाने के उद्देश्य से वाष्प-इंजन-चालित ट्रामगाड़ियों का प्रयोग हुआ। कुछ आविष्कारकों ने इंजन ट्राम के आगे, कुछ ने बीच में, तथा कुछ ने आगे पीछे दोनों ओर लगाए। कहीं कहीं गैस इंजनों के प्रयोग का भी प्रयत्न हुआ, परंतु विद्युच्छक्ति के प्रयोग से पहले मुख्यत: वाष्प इंजन का ही प्रयोग होता रहा। कुछ स्थानों पर ट्रामगाड़ियाँ लोहे की रस्सी द्वारा भी खींची गई थीं, पर केवल अल्प समय में ही उनका प्रयोग समाप्त हो गया। आइल ऑव मैन के 'डगलम' नामक स्थान में अब भी ऐसी ही व्यवस्था प्रचलित है। इसमें लोहे की एक रस्सी बराबर एक ही दिशा में घूमती रहती है, जो एक वाष्प इंजन या विद्युत् मोटर द्वारा चलाई जाती है। गाड़ियों को चलाने या रोकने के लिए गाड़ी में शिकजे लगे होते हैं, जो रस्सों को जकड़ सकते हैं।
विद्युत परिवहन में दो भाँति की व्यवस्थाएँ प्रयोग में लाई गई। एक में तो ऊपरी तार से बिजली ट्रामगाड़ी में एक डंडे द्वारा लाई जाती है और दूसरी में तार एक अलग पाइप में ले जाया जाता है। आर्थिक दृष्टि से पहली व्यवस्था श्रेष्ठ समझी गई पर तारों एवं खंभों की उलझनों के कारण जनता ने इसका विरोध किया। अंत में मितव्ययिता की ही विजय हुई और बड़े बड़े कुछ नगरों जैसे न्यूयॉर्क, वाशिंगटन, पैरिस, लंदन, को छोड़कर सभी जगह ऊपरी तार की व्यवस्था का प्रायोग हुआ।
भारत में ट्राम का प्रयोग
कलकत्ता की ट्रामगाड़ी - भारत में ट्रामों का प्रयोग १९वीं शताब्दी के अंत में आरंभ हुआ। कलकत्ता ट्रामवे कंपनी सन् १८०० में लंदन में रजिस्टर्ड की गई और शीघ्र ही कलकत्ते में घोड़ों द्वारा खींची जानेवाली, मीटर गेज की ट्रामगाड़ियाँ चलने लगीं। क्रमश: इन ट्रामों का जाल कलकत्ते के सभी प्रमुख मार्गों में बिछ गया और शहर के कुछ बाहरी भागों में घोड़ों के स्थान पर वाष्प इंजनों का भी प्रयोग किया गया।
शताब्दी के अंत में लगभग १९ मील में ट्राम संचालन हो रहा था और १८६ गाड़ियाँ लगभग १,३०,००,००० यात्रियों का परिवहन करती थीं। सन् १९०० में कंपनी ने आधुनिकता की ओर नया कदम उठाया और कलकत्ता-नगर-निगम (कार्पोरेशन) से एक ठेका लिया, जिसके अनुसार घोड़ों और वाष्प के स्थान पर विद्युत् का प्रयोग किया तथा गेज मीटर से बढ़ाकर स्टैंडर्ड अर्थात् ४'८ १/२'' कर दिया गया। इसके बदले कंपनी को ३० वर्ष की गारंटी दी गई। जनवरी, १९३१ ई० को, या उसके हर सात वर्ष पश्चात् ही कलकत्ता निमग को उसे खरीदने का अधिकार था। सन् १९०० में विद्युतीकरण का कार्य आरंभ हो गया और १९०२ ई० में प्रथम विद्युच्छंचालित ट्राम चली और वर्ष के अंत तक सारी ट्रामें विद्युत् से ही चलने लगीं।
सन् १९३१ तक ट्रामगाड़ी चार पहियोंवाले दो डब्बों की होती थी, जिनमें अगले डब्बे (प्रथम श्रेणी) में चालक मोटर लगी होती थी और पिछला डब्बा (द्वितीय श्रेणी) पीछे पीछे खिंचा जाता था। सन् १९३१ में कंपनी ने पुरानी गाड़ियों को बदलकर नई गाड़ियों का प्रयोग किया। ये गाड़ियाँ आरामदेह तथा सुविधाजनक हैं। इनमें गद्देदार सीटें और प्रथम श्रेणी में पंखे भी लगे होते हैं। गाड़ियों के डब्बे आपस में जुड़े हुस होते हैं और दोनों में चालक मोटरें लगी होती हैं। इससे झटका नहीं के बराबर लगता है और यात्रा बड़ी आनंददायक रहती है।
अन्य शहरों में ट्राम परिवहन - १९वीं शताब्दी के अंत तक कलकत्ते के अलावा भारत के कई अन्य नगरों, जैसे बंबई, दिल्ली, मद्रास, कराची तथा कानपुर में भी ट्राम संचालन प्रारंभ हो गया था।किंतु अब मोटर और बसों के कारण ट्राम का प्रयोग बराबर कम होता जा रहा है। कानपुर, दिल्ली तथा मद्रास में तो प्राय: समाप्त हो गया है। बंबई और कलकत्ते में अब भी ट्रामें काफी चलती हैं तथा ये नगर परिवहन का मुख्य अंग हैं। (आर्यभूषण)