ट्युबर्क्युलिन (Tuberculin) एक प्रकार का अनुर्वर द्रव है, जिसका टीक लगाया जाता है। यह यक्ष्मा रोगाणु माइक्रोबैक्टिरियम ट्यूबर्कुलोसिस के कृत्रिम संवर्धन से बनाया जाता है। प्रयोग, निदान तथा चिकित्सा क्षेत्र में इसका बहुत उपयोग होता है।

इस रोगाणु के आविष्कारक राबर्ट कॉक ने पहला ट्युबर्क्युलिन १८९० ई. में मांस-रस-मिश्रित तरल माध्यम पर उगाए हुए संवर्धन से बनाया। संवर्धन का यह छनित, सांद्रित और रोगाणुहीन भाग था। यह ट्युबर्क्युलिन तरल, लसलसा और पारदर्शक पदार्थ था। इसे पुराना ट्युबर्क्युलिन कहते हैं। मनुष्य के रोगाणु से निर्मित पुराने ट्युबर्क्युलिन को ट्युबर्क्युलिनम 'टी' और गाय के रोगाणुओं से निर्मित ट्युबर्क्युलिन को 'पी. टी.' कहा जाता है।

दूसरा उल्लेखनीय ट्युबर्क्युलिन, 'ट्युबर्क्युलिन पी. पी. डी. (Purified Protein Derivative)', है। पुराने ट्युबर्क्युलिन की अपेक्षा यह अधिक उग्र होता है। ०.००००२ मिलीग्राम की मात्रा से ही ९५ प्रतिशत क्षयपीड़ित व्यक्तियों में अभिक्रिया होती है। इस परिमाण द्वारा अभिक्रिया न होने पर ०.००५ मिलीग्राम की मात्रा दी जाती है। लेकिन चूंकि पुराना ट्युबर्क्युलिन निरापद होता है, अत: अधिकतर उसी का उपयोग किया जाता है।

कॉक ने ट्युबर्क्युलिन के अधस्त्वक् (subcutaneous) इंजेक्शन के जो प्रयोग किए, वे केवल शैक्षिक महत्व के हैं। इन प्रयोगों को आज भी यक्ष्मापीड़ित जानवरों पर दुहराया जा सकता हैं । इस इंजेक्शन के परिणाम 'कॉक घटना' कहलाते हैं, जो निम्नलिखित हैं: १. लाली और प्रदाहपूर्ण सूजन के रूप में स्थानीय अभिक्रिया, २. ज्वरादि के रूप में सर्वांगीण अभिक्रिया। ३. फोकल अभिक्रिया (focal reaction), अर्थात् भूतपूर्व रोग केंद्रों के शंकुओं में सक्रियता।

ट्युबर्क्युलिन से क्षयनिदान करने के निम्नलिखित कई तरीके है, जिनमें से मांटों विधि ही अब प्रचलित है:

१. अधस्त्वक् परीक्षण (subcutaneous test) इसका प्रयोग अब नहीं किया जाता।

२. नेत्रीय अभिक्रिया परीक्षण - इसमें तनूकृत ट्युबर्क्युलिन की बूँदें आँखों में डाली जाती थीं और इससे होनेवाले प्रदाह से जाँच की जाती थी। इसमें कुछ ऐसी गड़बड़ियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिन्हें ठीक करना कठिन है। अत: यह परीक्षण भी व्यवहार्य नहीं है।

३. मोरो का परीक्षण - इसमें ट्युबर्क्युलिन को शरीर के किसी भाग में मलहम की भाँति लगाकर परीक्षण किया जाता था। अनुभवों ने इसे भी अव्यवहार्य सिद्ध कर दिया है।

४. वॉन पीरकेज (Von Pirquet) परीक्षण - इसमें अग्रबाहु को तीन विभिन्न स्थानों पर ट्युबर्क्युलिन, गरम ट्युबर्क्युलिन और 'कुछ नहीं' लगाकर ऊपर से निशान बनाया जाता था। ट्युबर्क्युलिन वाले स्थान पर प्रदाह होने पर परीक्षण ठीक समझा जाता था अब व्यापक अभियानों में यह परीक्षण भी ठीक नहीं है।

५. मांटो विधि - इसमें ट्युबर्क्युलिन ०.१ मिलीमीटर की मात्रा में त्वचा में प्रविष्ट कराया जाता है। सफल अभिक्रिया होने पर ४८ और ७२ घंटों के अंदर प्रदाह के लक्षण प्रकट होते हैं। इस परीक्षण द्वारा संसार भर में क्षय का सर्वेक्षण किया जा सकता है।

बी. सी. जी. अभियानों में इस परीक्षा द्वारा अप्रभावित व्यक्तियों की खोज की जात है।

कॉक ने ट्युबर्क्युलिन का प्रयोग राजयक्ष्मा की चिकित्सा में किया था पीछे अन्य अंगों के क्षय में भी इसका प्रयोग होने लगा। रोगियों को १।१,००,००० तीक्ष्णता के ट्युबर्क्युलिन से प्रारंभ करके अधिक तीक्ष्णता क ट्युबर्क्युलिन देते हैं, जिससे रोगी धीरे धीरे इस योग्य हो जाता है कि वह क्षय के जीवाणुओं द्वारा बननेवाले ट्युबर्क्युलिन का सामना कर सके। इसके कुप्रभावों के कारण एवं अपेक्षाकृत निरापद तथा निर्भ्रांत रसायनी चिकित्सा (chemotherapy) का विकास हो जाने से, इसका व्यवहार अब प्राय: बंद हो गया है।

सं. ग्रं. - जावेजादि : ए रिव्यु ऑव मेडिकल माइक्रालॉजी, १९६०; टॉपले ऐंड विल्सन: प्रिंसिपिल्स ऑव बैक्टीरिऑलोजी ऐंड इंम्यूनॉलोजी, १९५६; सूनावाला: प्रवेंटिव मेडिसिन, सोशल मेडिसिन ऐंड हाइजीन १९५९। (अदालत सिंह)