टैंक एक प्रकार का कवचि, स्वचालित, अपना मार्ग आप बनाने तथा युद्ध में काम आनेवाला ऐसा वाहन है जिससे गोलाबारी भी भाँति की जा सकती है। युद्धक्षेत्र में शत्रु की गोलाबारी के बीच भी यह बिना रुकावट आगे बढ़ता हुआ किसी समय तथा स्थान पर शत्रु पर गोलाबारी कर सकता है। गतिशीतला एवं शत्रु को व्याकुल करने का सामर्थ्य है और जो कबचित होने के कारण स्वयं सुरक्षित है।
प्रथम विश्वयुद्ध में खाइयों में मोर्चा बनाकर लड़नेवालों के कारण युद्धमें गत्यवरोध हो गया था। एक ऐसे साधन की आवश्यकता थी जिसपर खाइयों में छिपे लोगों की गोलाबारी का विशेष प्रभाव न हो, जो खाइयों और युद्धक्षेत्र की ऊबड़ भूमि पर निर्वाध रूप से चल सके, जो कँटीले तारों की उलझतों को पार कर सके और जिसमें बैठनेवाले स्वयं सुरक्षित रह कर शत्रु पर बार भी कर सकें, इंग्लैंड के लेफ्टनेंट कर्नल अरनेस्ट तथा डॉ. स्विंटन १५ वर्ष से ऐसा यंत्र बनाने में प्रयत्नशील थे। उन्होंने सन् १९१४ में होल्ट कैटरपिलर प्रणाली को कबचित यान के लिए अनुकूलित करने का सुझाव दिया। कुछ समय बाद टी. जी. टुलोच ने एक भूक्रूजर का विचार प्रस्तुत किया, जिससे शत्रु की हलकी तोपों का भी सामना किया जा सके। जनवरी, १९१५ में अंग्रेजी नौसेना के सर्वोच्च अधिकारी विंस्टन चर्चिल ने इन प्रस्तावों का अनुमोदन किया। फलस्वरूप स्विंटन की परियोजना की अभिकल्पना नौसेना के लेफ्टिनेंट डब्ल्यू. क्यू. विल्सन और कॉस्टर कंपनी के डब्ल्यू ए. ट्राइटन ने प्रस्तुत की। सितंबर, १९१५ ई० में फॉस्टर कंपनी ने पहला माडल 'छोटा विली' तैयार किया। यह संतोषप्रद नहीं निकला। फिर इसी कंपनी ने दूसरा मॉडल 'विली बड़ा' बनाया। यह मॉडल स्वीकार कर लिया गया।
इस यंत्र के स्वरूप के संबंध में नाम से कुछ अनुमान न लगाया जा सके, इसलिये सन् १९१६ ई० में सोम के युद्ध में प्रथम बार टैंकों का प्रयोग किया गया। आक्रमण के लिये ४९ टैंक भेजे गए थे, जिनमें से केवल नौ ने सफलतापूर्वक अपने कार्य का निर्वाह किया। अन्य टैंक किसी न किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो जाने के कारण कार्य पूरा न कर सके।
अंग्रेजी मॉडल का पहला टैंक 'मार्क-१' कहलाया। यह दो नमूनों में बनाया गया। पहला नमूना ३१ टन का था। इसपर छह पाउंडर तोपें और चार मशीनगनें थीं। आक्रमण के समय यह सबसे आगे रहता था। इसके अभेद्य भागों पर की चादर ०.४ इंच मोटी थी और शेष चादर ०.२ इंच। इसकी प्रत्येक बाजू पर एक एक टरेट कसी हुई थी, जिसपर ६ पाउँडर तोपें चढ़ी हुई थीं। मार्क-१ का दूसरा नमूना भार में ३० टन था और इसपर छ: मशीनगनें लगी थीं। इसे पहले नमूनेवाले टैंक की रक्षा के लिये काम में लाया जाता था। दोनों प्रकार के टैंको की लंबाई २६ फुट ५ इंच, चौड़ाई १३ फुट ९ इंच और ऊँचाई ८ फुट १ इंच थी। दोनों में १०५ अश्व शक्ति के जलशीतक डाइमलर इंजन लगे थे। इनकी अधिकतम गति ३.७ मील प्रति घंटा थी ५३ गैलन समाई की ईधंन की टंकी एक बार भरकर, इन्हें १२ मील दूर ले जाया जा सकत था। ये ४.५ फुट ऊँची बाधाओं और ११.५ फुट चौड़ी खाइयों को पार कर सकते थे और २२ डिग्री तक की ढाल पर सरलता से चढ़ सकते थे। पहियों पर अनम्य आलंबन था और इस्पात का ट्रैक था। कवच की मोटाई ०.२ इंच से ०.४ इंच तक होती थी।
मार्क-१ टैंक में प्रवेश और बहिर्गमन के मार्ग असुविधाजनक थे और अंतरकक्ष हवादार नहीं था। इसलिए इसे त्यागकर 'मार्क-२' और 'मार्क-३' बनाए गए। सन् १९१७ में 'मार्क-४' बना, जिसमें पहले बने टैंकों के अधिकांश दोष दूर कर दिए गए। इसे युद्ध के शेष १६ महीनों तक प्रयोग में लाया गया। युद्ध समाप्त होने के लगभग 'मार्क-५' बना। इसका टैंक २६.५ इंच था। इसके ईंधन की समाई १०८ गैलन कर दी गई थी और गति ४.६ मील प्रति घंटा। कवच की अधिकतम मोटाई ०.४७ इंच थी। इसमें १५० अश्वशक्ति का एक जलशीतक इंजन था और संचारव्यवस्था ग्रहीय प्रणाली की थी। देर से बनने के कारण यह प्रथम विश्वयुद्ध में प्रयुक्त न हो सका।
पहले विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने एक अन्य टैंक बनाया, जो 'मध्यम ए' या ह्विपेट टैंक कहलाता था। इसका भार १४ टन, अधिकतम गति ८.३ मील प्रति घंटा तथा ईधंन की धारिता ८४ गैलन थी और एक बार भर लेने पर यह ४० मील तक जा सकता था। यह लड़ाकू टैंकों के कार्य तो करता ही था, भूपृष्ठ की समान स्थितियों में भारी टैकों से अधिक तीव्र गति से चल भी सकता था।
जर्मन टैंक - १४ मई १९१७ ई० को जर्मनी के कैप्टेन वेगनर और इंजीनियर वोल्मर के सहयोग से एक टैंक बना, जिसे परिवहन और युद्ध दोनों के काम में लाया जा सकता था। किंतु जर्मन लोग कैंब्रे (Cambrai) के पतन के पश्चात्, अर्थात् २० नवंबर, १९१७ के बाद, ही इन टैंकों को युद्ध में काम में ला सके।
पहला जर्मन टैंक, ए-७-वी, डाइमलर मोटर कंपनी में दिसंबर १९१७ में बना। यह टैंक कई बातों में अंग्रेजी टैंकों से उत्तम था। इसके कवच की मोटाई ०.५९ इंच से १.१८ इंच तक, गति आठ मील प्रति घंटा तथा भार ३३ टन था। १३२ गैलन ईधंन की सहायता से यह ५० मील तक चल सकता था और इसपर अच्छे हथियार लगे हुए थे। जर्मनी ने इन टैंकों का प्रयोग २१ मार्च, १९१८ का क्वेंटिन के युद्ध में किया।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के लगभग, कैप्टेन वेगनर और हर वोल्मर ने दो अन्य उत्कृष्ट टैंक बना लिए थे। ये ४२ फुट ७ इंच लंबे, २० फुट चौड़, ९ फुट ५ इंच ऊँचे और भार में १६५ टन थे। कबच की मोटाई ०.४ इंच से १.१८ इंच थी। इनपर २२ व्यक्तियों का कर्मीदल रहता था, जो ७७ मिलीमीटर की चार तोपों और छ: भारी मशीनगनों का उपयोग कर सकता था। इन दैत्याकार टैंकों में छ: सौ अश्वशक्ति के ग्लाइकॉलशीतक दो इंजन लगे थे, जो इन्हें ५ मील प्रति घंटे की गति से खींचते थे। सर्वत्र बिजली का प्रकाश पनडुब्बियों के समान नियंत्रणतंत्र और कई प्रकार की संचार व्यवस्था, इन टैंकों की विशेषता थी इसके अतिरिक्त इन्हें १८ से लेकर २५ टन तक के खंडों में अलग-अलग करके जहाज से भी ले जाया जा सकता था। जर्मनी की पराजय के पश्चात् बिना परीक्षण किए ही इन टैंकों को नष्ट करा दिया गया।
फ्रांसीसी टैंक - प्रथम विश्वयुद्ध से बहुत पहले ही कर्नल बैप्तिस्ते एस्तिएँ ने हलके टैंको का विकास कर लिया था, किंतु सरकार से प्रोत्साहन न मिलने के कारण काम आगे न बढ़ सका और सन् १९१६ ई. में फ्रांस में टैंकों के दो नमूने बन सके। इनमें से एक नमूना 'श्नाइडर' कहलाता था और दूसरा 'सेंत शामों'। श्नाइडर पर छह व्यक्तियों का कर्मीदल और 'सेंत शामों' पर नौ व्यक्तियों का कर्मीदल रहता था। दोनों पर सात सात मिलीमीटर की एक एक तोप और दो दो मशीनगनों प्रयुक्त होती थीं।
सन् १९१७ -१८ में फ्रेंच रेनाल फैक्टरी ने 'फ्रेंच रेनाल' नाम का हलका टैंक बनाया, जिसका भार ७.४ टन, कवच की मोटाई ०.३ इंच से ०.६ इंच तक और जिसकी महत्तम गति छह मील प्रति घंटा थी। यह १६ फुट ५ इंच लंबा, ५ फुट ८ इंच चौड़ा और ७ फुट ६.५ इंच ऊँचा था। यह छ: फुट छ: इंच चौड़ी खाई और २७ इंच गहरी धारा पार कर सकता था। ईधंन की समाई २४ गैलन थी जिसके द्वारा वह २४ मील तक जा सकता थ। इसपर दो आदमियों का कर्मीदल रहता था और ३७ मिलीमीटर की तोप या मशीनगन लगी रहती थी। ये तीनों प्रकार के टैंक सन् १९१७ में अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक के बीच युद्ध में प्रयुक्त हुए।
अमरीकी टैंक - सन् १९१७ की गरमी में अमरीका ने टैंक के दो नमूने बनाए और उनका परीक्षण किया। एक नमूना पहिएदार था और दूसरा चेनदार। दोनों में से कोई भी संतोषप्रद नहीं निकला। सन् १९१८ अन्य दो नमूने बने। पहला नमूना था 'फोर्ड', जिसका भार तीन टन था और जिसपर एक मशीनगन तथा दो व्यक्तियों का कर्मीदल था और जिसकी महत्तम गति आठ मील प्रति घंटा थी। दूसरा नमूना 'मार्क प्रथम' था। यह रेनाल का विकसित रूप था। इसपर ३७ मिलीमिटर की एक तोप और एक मशीनगन लगी थी। इसपर तीन व्यक्तियों का कर्मीदल काम करता था। देर में बनने के कारण यह युद्ध में प्रयुक्त न हो सका।
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच के काल में बने टैंक - इस काल में विशेष रूप से मध्यम भार के टैंको का विकास हुआ। ये टैंक १८ से लेकर ३६ टन तक के थे। इनमें कबच की मोटाई बढ़ाई गई और इनकी गति भी ४५ मील प्रति घंटे तक हो गई। टैंकों में वायुशीतक या तैलशीतक इंजन लगे, रबर के बेलन लगे और आलंबन प्रणाली में द्विकुंडली तथा शंखावर्त कमानियों का प्रयोग किया गया। संचार व्यवस्था के लिए लघुतरंग रेडियो का प्रयोग हुआ। आंतरिक संचार व्यवस्था में कंठ्य ध्वनिवर्धक यंत्र (throat microphone) का उपयोग किया गया और कर्मीदलवाले कमरों में पंखे लगाए गए। और भी गई सुधार हुए। धूम्रावरणा उत्पन्न करने वाले गोलों का भी प्रयोग प्रारंभ किया गया।
जर्मनी ने वरसेई (Versailles) की संधि की शर्तों की अवहेलना करके टैंकों के लिए प्रयोग जारी रखे। सन् १९३५ में वरसेई की संधि भंग करके हिटलर ने टैंकों का प्रथम बार प्रयोग किया। आठ से लेकर ४० टन तक के टैंकों के विकास के प्रयत्न होते रहे। सन् १९३४ और १९३८ के बीच के काल में झलाई किए हुए मध्यम भार के टैंक विकसित किए गए। इन टैंकों में इस्पात के टैंकों पर बोगी के रबर के टायर चढ़े थे और आलंबन व्यवस्था में ऐंठी हुई छड़ या कमानी का प्रयोग किया गया था। इन टैंकों में पर्याप्त स्थान था, देखने की व्यवस्था उत्तम थी, छत नीची थी और आपत्ति के समय बहिर्गमन के लिए खिड़कियों की भी व्यवस्था थी। किंतु इन टैंकों की मशीन विश्वसनीय नहीं थी।
फ्रांस में भी ढले हुए झलाई किए हुए टैंकों का निर्माण और विकास किया गया। इन्हें टैंक शिल्पी, रूसी शरणार्थी, एम० केग्रैस की सहायता मिली, जिसने नियंत्रित अंतरपरिवर्ती स्टियरिंग का प्रयोग करने में सहयोग दिया। फ्रास में कई प्रकार के टैंक और कवचित यान निर्मित हुए, जिनके लिये नम्य रबर ट्रैंक का प्रयोग किया जाता था।
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टैंक
इसी समय अमरीका में जे. वाल्टर क्रिस्टी ने ऐसे टैंक का नमूना प्रस्तुत किया जो नियमित सड़कों पर तो रबर के टायर के पहियों पर तीव्र गति से दौड़ सकता था और ऊबड़खाबड़ भूमि पर ट्रैक्टर टायर के दाँतों को रबर टायर की बोगियों पर चढ़ाकर, कैटरपिलर टैंक की भाँति चल सकता था। यह प्रणाली अमरीका में तो विशेष पसंद नहीं की गई, हाँ, रूस और इंग्लैंड में इसे अवश्य ही कार्यान्वित किया गया। इसी बीच अमरीका में पदाति सेना के लिए हलके तथा मध्यम टैंक भी बने। इन हलके टैंकों का भार १४ टन और गति ३५ मील प्रति घंटा थी। इनमें २५० अश्वशक्ति का त्रैज्य वायुशीतक इंजन लगा था और इसपर चार व्यक्तियों का कर्मीदल रहता था। मध्यम भार के टैंक का भार २३ टन और उसकी महत्तम गति ३० मील प्रति घंटा थी। इस टैंक में ४०० अश्वशक्ति का त्रैज्य वायुशीतक इंजन लगा था।
रूसियों ने सन् १९२५ में अंग्रेजी टैंकों के आधार पर एक ८० टन का टैंक बनाया। पहला विशुद्ध रूसी टैंक टी-१८ था, जो सन १९२६ में बनाया गया। इसपर ३७ मिलीमीटर की एक तोप और एक मशीनगन रहती थी और दो व्यक्तियों का कर्मीदल था। १९३५ ई० तक रूस में टैंक निर्माण-कार्य में पर्याप्त प्रगति हो चुकी थी और विभिन्न नमूनों के लगभग १०,००० टैंक बन चुके थे। इन नमूनों में टी-२७, टी-३७ टी-२८ और बी-टी टैंक उल्लेखनीय हैं। इनमें सबसे भारी टैंक टी-२८ था, जिनका भार ११२ टन था।
जापानियों ने टैंक बनाने में मुख्यत: अंग्रेजों का अनुकरण किया। इनका एक नमूना मध्यम भार का २५९७ था, जो आलंबन प्रणाली की दृष्टि से क्रिस्टी प्रकार के टैंकों का विकसित रूप था। इसकी महत्तम गति २८ मील प्रति घंटा थी। इसपर चार व्यक्तियों का कर्मीदल और ४७ मिलीमीटर की एक तोप तथा दो मशीनगनें लगी थीं।
द्वितीय विश्वयुद्ध - सन् १९३८ तक जर्मनी ने प्रामाणिक नमूनों के टैंक तैयार कर लिए थे। सितंबर, १९३९ और उसके बाद के ग्रीष्मकाल में जर्मनी के पैंजर डिविजनों ने टैंकों से पोलैंड, फ्रांस, हॉलैंड और बेलजियम पर विद्युद्गति से अधिकार कर लिया। इन आक्रमणों में जर्मनी की टैंक शक्ति उसकी वायुशक्ति से अधिक प्रभावी सिद्ध हुई। युद्ध के आरंभ में जर्मनों ने हलके और मध्यम भार के पीजेड केडब्ल्यू (PzKw) प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ टैंकों का प्रयोग किया। सन् १९४२ के प्रारंभ में उन्होंने ऐसे टैंकों का विकास किया जिनपर भारी तोंपें लगाई जा सकें। ऐसे एक टैंक टाइगर था, जिसे लेनिनग्राद में बड़ी संख्या में प्रयोग में लाया गया। इसमें अर्धपक्षीय प्रकार का आलंबन था और इसका भार ६० टन था। इसमें नालमुख रोधक लगे थे और ८८ मिलीमीटर की एक विमोनवेधी तोप भी लगी थी। सब और से बंद रहने के कारण यह १५ फुट गहरी धारा को पार कर सकता था। दूसरा भारी और सर्वोत्तम जर्मन टैंक पैंथर था, जो रूस के टी-३४ नामक टैंक के आधार पर बनाया गया था। इसे तीव्र गति से कहीं भी ले जाकर आक्रमण किया जा सकता था। १,००० गज की दूरी पर यह किसी भी टैंक का सामाना कर सकता था। इसक भार ७५ टन और गति २४ मील प्रति घंटा थी। इसपर ४२ मिलीमीटर की तोप लगी थी। इसकी लीक (track) ३२.५ इंच चौड़ी थी। इससे यह मुलायम और कीचड़दार मार्ग पर भी चलने में समर्थ था।
जर्मनी की युद्ध की प्रारंभिक सफलताओं ने मित्र शक्तियों की टैंक-निर्माण-योजनाओं को विशेष प्रभावित किया। अंग्रेजों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ में ही दस प्रकार के टैंकों और छ: प्रकार के कवचित यानों का प्रयोग किया। इन टैंकों में से मार्क प्रथम तथा तृतीय, चर्चिल, क्रॉमवेल, माटिल्डा प्रथम और द्वितीय और वैलेंटाइन प्रमुख थे। मार्क प्रथम और तृतीय, मारक शक्ति को ध्यान में रखकर निर्मित किए गए थे। इनका भार १४ टन और गति १८ मील प्रति घंटा थी। इसपर दो पाउंडर एक तोप थी। चर्चिल मॉडल का अंतिम रूप था ४२ टन का एक टैंक, जिसकी गति २० मील प्रति घंटा थी। इसमें ३५० अश्वशक्ति का इंजन और ६ पाउंडर तोप लगी थी। इसका नियंत्रण दो स्थानों से हो सकता था, जिससे यदि चालक अत्यधिक घायल हो जाए तो सामनेवाला गोलंदार्ज संचालनकार्य संभाल सके। क्रामवेल का भार २८ टन था और गति ३१ मील प्रति घंटा। इसपर ७५ मिलीमीटर की एक तोप लगी थी और कर्मीदल की संख्या पाँच थी। यद्यपि टैंक माटिल्डा प्रथम का भार १२.३ टन और गति मध्यम थी, तथापि इसमें कर्मीदल की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा गया था। माटिल्डा द्वितीय की गति कुछ तीव्र थी। यह अधिक कुशलता से कार्य करता था। इसका भार २६ टन था और इसके कवच की अधिकतम मोटाई ३.५ इंच थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक पूर्व और युद्धकाल में अमरीका में एम-३ और एम-एल नाम के मध्यम टैंकों का विकास हुआ, जिन्हें ग्रांट और शर्मन भी कहा जाता था। ७७ मिलीमीटरवाले ग्रांट टैंक ने लीबिया में जनरल रोमेल को परेशान कर दिया। किंतु इस टैंक की मारक शक्ति बड़ी सीमित थी। शर्मन नामक दूसरा टैंक साधारण बनावट का था, जिसमें शंखावर्त कमानी प्रयुक्त होती थी और जिसकी आलंबन प्रणाली बोगियों की भाँति थी। इसमें अति विकसित वी-८ इंजन लगा था। अमरीकी भारी टैंकों में एम-६ और एम-२६ थे। एम-६ का भाग ६५ टन था और इसपर तीन इंच की शक्तिशाली तोप लगी थी। इसे एम-२६ या पर्शिग टैंक ने स्थानांतरित कर दिया। पर्शिग टैंक का भार ४५ टन, गति २० मील प्रति घंटा और कर्मीदल की संख्या पाँच थी। इसपर ९० मिलीमीटर की तोप और ५०० अश्व शक्ति का वी-८ इंजन लगा था।
अमरीकी हलके टैंको में से एम-२४ अत्यंत सफल रहा। इसका भार १.९ टन से कुछ अधिक था। इसमें दोहरा केडिलाक इंजन लगा था और इसकी गति ३५ मील प्रति घंटा थी। इसके कवच मी मोटाई २.५ इंच थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध की अवधि में अमरीका में तैरनेवाला टैंक भी बना। इस टैंक के साथ बक्स के समान, धातु के तैरनेवाले डिब्बे लगा दिए जाते थे। टैंक को समुद्रतट से कुछ मील दूर जहाज से उत्तार लिया जाता था। वहाँ से ये अपनी ही शक्ति से समुद्रतट पर आ जाते थे। नॉरमंडी में इस टैंक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया।
सन् १९४० ई० में रूस ने टी-३४ नामक प्रसिद्ध टैंक तैयार किया। यह रूसी सैन्य सामग्री में सर्वश्रेष्ठ था। इसमें क्रिस्टी टैंक के समान कमानी युक्त आलंबन की व्यवथा थी। इसकी ऊँचाई बहुत कम थी। इसके भार २६ टन था और इसकी गति ३० मील प्रति घंटा थी। इसमें ५०० अश्व शक्ति का वायुशीतक वी-१२ डीजल इंजन और ७६.२ मिलीमीटर की तोप लगी हुई थी। इसी टैंक का एक दूसरा संस्करण टी-३४/८५ भी बना। यह भी टी-३४ टैंक था, किंतु इसपर तीन व्यक्तियों द्वारा चालित टरेट लगी थी, जिसपर ८५ मिलीमीटर की तोप चढ़ी हुई थी। सन् १९४४ में इसे युद्ध में काम में लाया गया। इसके पश्चात् टी-३४/८५ रूसी सेना का प्रामाणिक शास्त्र बन गया। सन् १९५० ईं० में कोरिया युद्ध के प्रारंभ में इस टैंक ने प्रलय मचा दिया। बाद में चीनी स्वयंसेवकों ने इसे कोरिया में इस्तेमाल किया और रूसियों ने सन् १९५३ के पूर्वी जर्मनी के जनजागरण के विरुद्ध इसका प्रयोग किया। रूस का एक अन्य प्रमुख मध्यभारीय टैंक था टी-५४। इसका प्रमुख शस्त्र था १०० मिलीमीटर की तोप, जिसे तीव्र गतिवाली कार्ट टरेट (Cart turret) पर चढ़ाया गया था। इसकी ऊँचाई कम थी, अत: शत्रु द्वारा इसपर निशाना साधना कठिन था। सन् १९५५ के लगभग इस टैंक का अधिक उपयोग हुआ। बाद में हंगरी की जनक्राँति के दमन के लिए रूसियों ने इसका प्रयोग सन् १९५६ में भी किया।
भारी टैंकों में रूस का सर्वप्रसिद्ध नमूना जोसेफ स्टैलिन तृतीय था। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के लगभग यह बनकर तैयार हुआ। इसपर १२२ मिलीमीटर की तोप लगी थी। इसका भार ५६ टन, कवच की मोटाई, १० इंच और अग्र भाग तथा टरेट पूर्णरूपेण झलाई किए हुए थे। इसमें ६०० अश्वशक्ति का इंजन लगा था।
आजकल टैंकों का महत्व सन् १९१६, या सन् १९३९ से भी अधिक बढ़ गया है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि युद्धों के परिणामों का निश्चय पारमाणविक शस्त्रों और टैंकों द्वारा ही होगा। भविष्य में भी टैंक सुरक्षा और आक्रमण के सर्वश्रेष्ठ साधन रहेंगे और कोई आश्चर्य नहीं यदि निकट भविष्य में परमाणविक अस्त्रों का प्रतिरोध करने में सक्षम टैंकों का निर्माण और प्रयोग हो।