टेलिफोन (Telephone) के अस्तित्व के संभावना सर्वप्रथम संयुक्त राज्य, अमरीका, के ऐलेक्जैंडर ग्रैहैम बेल की इस उक्ति में प्रकट हुई: ''यदि मैं विद्युद्वारा की तीव्रता को ध्वनि के उतार चढ़ाव के अनुसार उसी प्रकार न्यूनाधिक करने की व्यवस्था कर पाऊँ, जैसा ध्वनिसंचरण के समय वायु के घनत्व में होता है, तो मैं मुख से बोले गए शब्दों को भी टेलिग्राफ की विधि से एक स्थान से दूसरे स्थान को संचारित कर सकने में समर्थ हो सकूंगा।''
अपनी इसी धारणा के आधार पर बेल ने अपने सहायक टॉमस वाट्सन की सहायता से टेलिफोन पद्धति का आविष्कार करने के हेतु प्रयास आरंभ कर दिया और अंत में १० मार्च, १८७६ ईं. को वे ऐसा यंत्र बना सकने में सफल हो गए जिससे उन्होंने वाट्सन के लिये संदेश प्रेषित किया-''मि. वाट्सन, यहाँ आओ। मुझे तुम्हारी आवश्यकता है''। लगभग उसी समय अमरीका में इसी संबंध में कुछ अन्य लोग विद्युद्विधि द्वारा वाग्ध्वनि का संचरण करने के संबंध में प्रयोग कर रहे थे और प्रो. एलिशा ग्रे नामक वैज्ञानिक ने, बेल द्वारा अपने यंत्र को पेटेंट कराने का प्रार्थनापत्र दिए जाने के केवल तीन घंटे बाद ही, अपने एक ऐसे ही यंत्र को पेटेंट कराने के हेतु आवेदन किया। इसपर बड़ा विवाद उत्पन्न हुआ और लगभग ६०० विभिन्न मुकदमें बेल और ग्रे के बीच चलने के बाद अंत में बेल की विजय हुई और वे टेलिफोन के वास्तविक आविष्कारक के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
बेल के अनुयायियों एवं उत्तराधिकारियों ने अमरीका में टेलिफोन संचारव्यवस्था का प्रसार किया। पहले बड़े बड़े नगरों में, उसके बाद एक नगर से दूसरे नगर के लिए (जिसे कालातर में ट्रंक व्यवस्था कहा गया) टेलिफोन प्रणालियों की प्रतिष्ठा हुई। कुछ वर्षों के उपरांत अमरीकन टेलिफोन और टेलिग्राफ कंपनी ने बेल कंपनी से टेलिफोन प्रणाली का स्वत्व क्रय कर लिया। इस कंपनी ने द्रुत गति से अमरीका में टेलिफोन लाइनों का जाल बिछाने का कार्य प्रारंभ कर दिया।
टेलिफोन प्रणाली की सफलता ने यूरोप में भी हलचल मचा दी। पहले तो अनेक देशों की सरकारों ने अपने देशा में इस प्रणाली को लागू करने के प्रति घोर विरक्ति प्रदर्शित की, क्योंकि उन सरकारों ने टेलिग्राफ प्रणाली पर अपना आधिपत्य रखा था और उन्हें भय था कि टेलिफोन प्रणाली की प्रतिष्ठा से टेलिग्राफ प्रणाली द्वारा होनेवाली आय पर आघात पहुँचेगा। किंतु जर्मनी और स्विट्जरलैंड की सरकारों ने टेलिफोन की महान् उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा नियोजित टेलिफोन व्यवस्था अपने अपने देशों में प्रतिष्ठित की। इससे प्रभावित होकर फ्रांस, बेल्जियम, नॉर्वे, स्वीडेन और डेनमार्क ने भी ग्रामसमाजों तथा अन्य तत्सदृश गैरसरकारी संस्थाओं के माध्यम से देश के ग्राम्यांचलों में भी टेलिफोन संचारप्रणाली का प्रारंभ करा दिया।
ग्रेट ब्रिटेन ने पहले तो अपने देश में, उपर्युंक्त भय के कारण, टेलिफोन संचार प्रणाली आरंभ करने के प्रति कोई उत्साह नहीं प्रदर्शित किया, किंतु सन् १८८० में ब्रिटिश न्यायालयों के निर्णय के आधार पर इसे डाक विभाग का एक अंग मान लिया। पहले तो प्राइवेट कंपनियों को दस प्रतिशत रायल्टी पर टेलिफोन प्रणाली की स्थापना एवं प्रसार का अधिकार दिया गया, किंतु जब नैशनल टेलिफोन कंपनी का इस व्यवसाय में एकाधिकार होने लगा तो ब्रिटेन की सरकार ने डाक विभाग और नगरपालिकाओं को इस व्यवसाय में उक्त कंपनी की प्रबल स्पर्धा करने का निर्देश दिया। फलस्वरूप, नैशनल टेलिफोन कंपनी का बड़ी हानि उठानी पड़ी और अंत में बाध्य होकर उस कंपनी ने एक समझौते द्वारा अपनी संपूर्ण टेलिफोन प्रणाली तथा उसका स्वत्व १ जनवरी, १९१२ ई० को डाक विभग को हस्तांतरित कर दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक तो टेलिफोन संचारप्रणाली की दशा अत्यंत दयनीय थी, किंतु इसके उपरांत जब ग्रेट ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति कुछ सुदृढ़ हुई, तो इसमें आर्श्चयजनक प्रगति हुई। १९११ ई. में जहाँ ग्रेट ब्रिटेन में केवल सात लाख पोस्ट आँफिस टेलिफोन थे वहाँ १९१२ ई. में उनकी संख्या बढ़कर चालीस लाख हो गई थी।
स्वचालित प्रणाली (The Automatic System) - द्वितीय विश्वयुद्ध में टेलिफोन निर्माण में प्रयुक्त होनेवाली सामग्री का अभाव होने लगा था। इस कारण स्वचालित टेलिफोन प्रणाली की प्रगति और विस्तार का कार्य अवरुद्ध हो गया था, किंतु सरलता और सुविधा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होने के कारण विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इस प्रणाली के विस्तार का कार्य अत्यंत द्रुत गति से होने लगा। इसमें यदि १५ मील के अंदर ही वार्ता करनी हो, तो ऑपरेटर की आवश्यकता नहीं पड़ती। ट्रंक काल के लिए भी स्वयंचालित प्रणाली का व्यवहार करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
टेलिफोन यंत्र की रचना - टेलिफ़ोन यंत्र में एक प्रेषित्र (transmitter) और एक ग्राही (receiver) एक विशेष प्रकार के डिब्बे या केस के अंदर रखे होते हैं। एक लंबी डोर, जो वस्तुत: पृथग्न्यस्त (insulated) तारों का एक पुंज होती है, उस डिब्बे या केस के अंदर की विद्युत्प्रणाली से टेलिफोन सेट को जोड़ती है।
प्रषित्र -टेलिफोन का यह भाग ध्वन्यूर्जा (acoustical energy) को विद्युदूर्जा (electrical energy) में परिणत करता है। इसमें उच्चारित ध्वनितरंगें एक तनुपट (diaphragm) में, जिसके पीछे रखे हुए कार्बन के कण (granules) परस्पर निकट आते और फैलते हैं, तीव्र कंपन उत्पन्न करती हैं। इससे कार्बन के कणों में प्रतिरोध (resistance) क्रमश: घटता और बढ़ता रहता है। फलस्वरूप टेलिफोन चक्र में प्रवाहित होनेवाली विद्युद्वारा की प्रबलता भी कम या अधिक हुआ करती है। एक सेकंड में धारा के मान में जितनी बार परिवर्तन होत है उसे उसकी आवृत्ति (frequency) कहते हैं। साधारणतया प्रेषित्र २५० से ५,००० चक्र प्रति सेकंड तक की आवृत्तियों को सुगमता से प्रेषित कर लेता है और लगभग २,५०० चक्र प्रति सेकंड की आवृत्ति अत्यंत उत्कृष्टतापूर्वक प्रषित करता है।
श्
श्
श्
श्
चित्र १. टेलिफोन प्रेषित्र
१. प्लैस्टिक का प्याला २. ध्वानिकी प्रतिरोध ३. परदा (membrane), ४. विद्युदग्र, ५. कार्बन कक्षिका, ६. तनुपट (diaphragm) ७. पश्च कक्षिका तथा ८. प्याले का कक्ष।
प्रेषित्र एवं ग्राही (receiver) की इस विशेषता के कारण ही श्रोता को वक्ता की वार्ता ठीक ऐसी प्रतीत होती है मानों वह पास ही कहीं बोल रहा है।
साधारण प्रेषित्र की रचना चित्र १. में प्रदर्शित की गर्ह है। इसमें एक तनुपट होता है, जो सिरों पर अत्यंत दृढ़ता से कसा रहता है। वक्ता के मुख से प्रस्फुटित ध्वनि वायु के माध्यम से इसपर पड़ती है। उच्चरित ध्वनि की तीव्रता और मंदता के अनुसार पर्दे पर पड़ने वाली वायु दाब भी घटती बढ़ती है। कार्बन कणों पर दाब में परिवर्तन होने से उनका प्रतिरोध भी उसी क्रम से न्यूनाधिक हुआ करता है जिसके फलस्वरूप विद्युद्वारा भी ध्वनि की तीव्रता के अनुपात में ही घटती बढ़ती है। कार्बन प्रकाष्ठ की रचना इस प्रकार की जाती है कि कार्बन की यांत्रिक अवबाधा (impedance) न्यूनतम हो, ताकि प्रेषित की किसी भी स्थिति के लिए उच्च अधिमिश्रण दक्षता (modulating efficiency) प्राप्त हो। अभीष्ट आवृत्ति अनुक्रिया (frequency response) प्राप्त करने के हेतु पर्दे को दोहरी अनुनादी प्रणाली (resonant system) से संयुग्मित (coupled) कर दिया जाता है, तो पर्दे के पीछे एक प्रकोष्ठ, प्रषित्र एकक तथा एक प्लास्टिक के प्याले द्वारा निर्मित होती है। ये दोनों प्रकोष्ठ बुने हुए सूत्रों से ढके हुए छिद्रों द्वारा संयोजित होते हैं। संपूर्ण प्रेषित्र तंत्र विशेष रूप से निर्मित प्रकोष्ठ में रखा जाता है।
ग्राही (Receiver) - ग्राही के परांतरित्र (transducer) का कार्य विद्युदूर्जा को ध्वन्यूर्जा में परिणत करना होता है। इसकी अवबाधा प्राय: १,००० चक्र प्रति सेकंड के लिये १५० ओम होती है।
ग्राही तंत्र प्राय: दो प्रकार के होते हैं: (१) द्वध्रिवी (bipolar) ग्राही और (२) वलय आर्मेचर (ring armature) ग्राही।
श्
श्
श्
श्
चित्र २. टेलिफोन ग्राही
१. आर्मेचर, २. छल्लेदार झंझरी (ferrule grid), ३. परदा, ४. तनुपट, ५. स्थायी चुंबक, ६. कुडंली (coil), ७. ध्रुव खंड ८. सिरे का पट्ट, ९. ध्वानिकी प्रतिरोध, १०. वैरिस्टर (varistor) तथा ११. पश्च कक्षिका।
द्वध्रुिवी ग्राही तो टेलिफोन परिचालक (telephone operator) के हेडफोन (headphone) में लगा होता है और वलय आर्मेचर उच्च दक्षतावाले टेलिफोन ग्राहियों में होता है। इस टेलिफोन की उपयोगिता का मुख्य कारण इसकी निम्न ध्वनि-अवबाधा तथा विस्तृत आवृत्ति विस्तार के लिए उच्च-शक्त्ति-अनुक्रिया (high power response) की उपलब्धि है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इसमें एक हलका गुंबदाकार परदा होता है, जो किसी चुंबकीय पदार्थ के वलयाकार आर्मेचर से संयुक्त होता है। पर्दे में एक छिद्र होता है, जो निम्न आवृत्ति को छान (filter) देता है। यह पर्दा एक विद्युच्चुंबक के सामने टेलिफोन की श्रोत्रिका (earpiece) पर लगा होता है। विद्युच्चुंबक पर पतले तार का एक कुडंली लपेटी रहती है। विद्युच्चुंबक और पर्दा उपर्युक्त मार्मेचर द्वारा परस्पर संबंधित होते हैं। ध्वनितरंगों द्वारा प्रभावित परिवर्ती (varying) विद्युद्वारा विद्युच्चुंबक में होकर गुजरती है, जिससे चुंबकीय क्षेत्र में भी उसी क्रम से न्यूनता और अधिकता हुआ करती है। इससे परदा भी विद्युच्चुंबक की ओर कम और अधिक खिंचता रहता है और इस प्रकार उसमें तीव्र कंपन उत्पन्न होता है। पर्दे के कंपन से वायु में पुन: ध्वनितरंगें उत्पन्न होती हैं, जो ठीक वैसी ही होती हैं जैसी दूरस्थ प्रेषित्र में वक्ता द्वारा उच्चरित ध्वनि से उत्पन्न होती हैं।
टेलिफोन लाइन - टेलिफोन लाइनों का कार्य प्रेषित्र से ग्राही तक संवादों का वहन करना है। प्रारंभ में इस हेतु लोहे के तारों का उपयोग किया जाता था, किंतु अब ताँबे के तारों का व्यवहार होता है, क्योंकि ताँबा लोहे की अपेक्षा उत्तम विद्युच्चालक होता है और क्षीण विद्युद्वारा को भी अपने में से प्रवाहित होने देता है। टेलिफोन लाइनें प्रत्येक टेलिफोन को एक केद्रीय कार्यालय से संयोजित करती हैं, जिसे टेलिफोन केंद्र (exchange) कहते हैं। इसी प्रकार वे नगर के एक केंद्र को दूरे केंद्रों से तथा एक नगर के मुख्य केंद्र को दूसरे नगर के मुख्य केंद्र से जोड़ती हैं। साधारणतया टेलिफोन लाइनें धरती से ऊपर, खंभों (poles) के सहारे, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है, किंतु अब व्यस्त नगरों में जहाँ टेलिफोन व्यवस्था का जाल सा फैल गया है भूमिष्ठ केबलों (cables) के रूप में इन्हें जोड़ा जा रहा है। एक भूमिष्ठ केबल में ४,००० टेलिफोन के तार रखे जाते हैं।
बहुत लंबी दूरियों को पार करनेवाली टेलिफोन तारों की प्रणालियों में निर्वात नलिकाएँ अथवा इलेक्ट्रॉनिक नलिकाएँ, जिन्हें तापायनिक (thermionic) नलिकाएँ कहते हैं, लगा दी जाती हैं। इनका कार्य लंबी दूरी पार करने पर, क्षीणप्राय हो जाने वाली विद्युद्वारा की प्रबलता को प्रवर्धित करना होता है। इसके कारण टेलिफोन केबलों में बहुत पतले तारों को (जिनका प्रतिरोध मोटे तारों की अपेक्षा अधिक होता है) प्रत्युक्त कर सकना संभव हो गया है और परिणामस्वरूप एक केवल में अधिक संख्या में तार रखे जा सकते हैं। टेलिफोन तारों में विद्युद्वारा की प्रबलता स्थिर रखने के लिए भारण कुंडली (loading coils) का भी प्राय: उपयोग किया जाता है।
उच्च आवृत्तिवाली प्रत्यावर्ती धारा के उपयोग से टेलिफोन प्रणाली में एक अन्य महत्वपूर्ण विकास हुआ है। टेलिफोन वार्ता द्वारा उत्पन्न होनेवाली विभिन्न प्रकार की तरंगों को संयुक्त करके प्रत्यावर्ती धारा एक वाहक धारा (carrier current) को जन्म देती है। केंद्रीय संग्राही स्टेशन पर उन विभिन्न प्रकार के संकेततरंगों की इस धारा में से 'छँटाई' होती है और तब उन्हें उनके उचित स्थान को प्रेषित किया जाता है।
अन्य उपकरण - उपर्युक्त अंगों के अतिरक्त टेलिफोन प्रणाली में स्विच पट्ट (switch board) भी एक महत्वपूर्ण अंग होता है। इसकी संरचना अत्यंत जटिल होती है और यह आधुनिक यंत्रकला और इंजीनियरिंग कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है। यह केद्रीय टेलिफोन केंद्र में रहता है। सभी टेलिफोन इससे संबंधित होते हैं। प्रत्येक टेलिफोन के नंबर इस पट्ट पर लिखे रहते हैं और प्रत्येक नम्बर के ऊपर एक छोटा सा बल्ब लगा होता है। जब आप टेलिफोन उठाते हैं तो यह बल्व जल उठता है और इसके संमुख बैठा हुआ टेलिफोन ऑपरेटर एक प्लग द्वारा अपने हेडफोन (headphone) का संबंध आपके टेलिफोन से स्थापित करता है। आपसे वांछित टेलिफोन नंबर ज्ञात करके वह आपके टेलिफोन का संबंध उस टेलिफोन से स्थापित करता है और अपने सामने लगे हुए बटन को दबाकर उस दूसरे टेलिफोन की घंटी बजाता है। इस प्रकार वह दूसरे स्थान के व्यक्ति को सूचना देकर आप दोनों की वार्ता प्रारंभ करता है। यदि दूसरे टेलिफोन का संबंध उस केंद्र से नहीं होता तो वह उस केद्र से, जहाँ से वांछित टेलिफोन का संबंध होता है, आपके टेलिफोन का संबंध जोड़ता है और वहाँ से आपके टेलिफोन का संबंध वांछित टेलिफोन के साथ पूर्वोक्त विधि से स्थापित करा दिया जाता है।
डायल टेलिफोन - ग्राही एवं प्रेषित्र व्यवस्थाएँ उपर्युक्त साधारण टेलिफोन के सदृश होते हुए भी, डायल टेलिफोन में वक्ता एवं श्रोता के बीच सीधा संपर्क स्थापित करने की अतिरिक्त विशेषता होती है। टेलिफोन यंत्र के ऊपरी भाग में एक वृत्ताकार डायल होता है, जिसकी परिधि पर शून्य से ९ तक के अंक क्रम से अंकित होते हैं। इसके ऊपर एक वृत्ताकार चक्र (disc) घूमता है, जिसकी परिधि पर दस बड़े बड़े छिद्र इस प्रकार बने होते हैं कि स्थिर अवस्था में प्रत्येक छिद्र डायल के किसी विशेष अंक के ऊपर पड़ता है। यह चक्र एक केंद्रीय अक्ष के चारों ओर घूर्णन करता है। थोड़ा सा घुमाकर छोड़ दिए जाने पर, यह पुन: अपनी प्रारंभिक अवस्था में वापस आ जाता है। ग्राही को टेलिफोन सेट पर से उठाकर वक्ता अपने वांछित टेलिफोन के नंबर के प्रथम अंक के ऊपर वाले छिद्र में उँगली डालता है और चक्र वहाँ तक घुमा ले जाता है जहाँ उसे रुक जाना पड़ता है। उँगली हटा लेने पर चक्र पुन: अपनी प्रारंभिक स्थिति में आ जाता है। इस प्रकार वह क्रम से अभीष्ट टेलिफोन के नंबर के प्रत्येक अंक छिद्र में बारी बारी से उँगली डालकर चक्र को घुमाता और छोड़ता है। जब चक्र छोड़ा जाता है तो वह कर्र कर्र की अनेक लघु ध्वनियाँ उत्पन्न करता हुआ वापस लौटता है। यह ध्वनि टेलिफोन से जानेवाली विद्युतद्धारा को प्रभावित करती है और इससे केद्रीय कार्यालय में स्थित स्विचें बंद होती हैं। जब प्रत्येक अंक से संबंधित स्विचें बंद होती हैं तब अभीष्ट टेलिफोन से संबंध स्थापित होता है। यदि अभिष्ट टेलिफोन व्यस्त होगा तो आपका सीटी की सी ध्वनि सुनाई देगी। यदि आपने गलत नंबर डायल किया तो दूसरे प्रकार की ध्वनि सुनाई देगी। डायल टेलिफोनों का अधिक दूरियों के लिए उपयोग नहीं किया जाता।
टेलिफोन सेवा व्यवस्था के विभिन्न प्रकार - जब टेलिफोन द्वारा किसी ऐसे दूरस्थ स्थान से वार्ता की आवश्यकता पड़ती है जो वक्ता के टेलिफोन से संबद्ध केंद्रीय कार्यालय, या केंद्रीय टेलीफोन केंद्र, की संबंधसीमा से बाहर होता है तो इसके लिये की जानेवाली व्यवस्था को ट्रंक व्यवस्था कहते हैं। यह व्यवस्था चित्र ३. में समझाई गई है। स्थानीय टेलिफोन कार्यालय के द्वारा टेलिफोन को केंद्रीय कार्यलय से संबंधित किया जाता है। इस केंद्रीय कार्यालय का संबंध उस नगर या उपनगर के केंद्रीय कार्यालय से होता है जिसके क्षेत्र में श्रोता का टेलिफोन स्थित है। यह केंद्रीय कार्यालय वक्ता के क्षेत्र के केंद्रीय कार्यालय का संबंध स्थानीय कार्यालय के माध्यम से श्रोता के टेलिफोन के साथ जोड़ देता है। इस प्रकार वक्ता और श्रोता दूरस्थ नगरों में बैठे हुए परस्पर
तीरों से सेयोजन की दिशाएँ दिखाई गई हैं। क. पाश, ख. संयोजी ट्रंकों के समूह, ग. अंतर्नगर ट्रंकों के समूह, घ. संयोजी ट्रंको के समूह तथा च. पाश। १. और ७. अन्य टेलिफोनों से, २. तथा ५. स्थानीय कार्यालय -१, ३. और ४. सूदूर कार्यालय, ६. और १०. अन्य टेलिफोनों को तथा ८. और ९. स्थानीय कार्यालय-२।
वार्ता कर सकते हैं, इस व्यवस्था में संबंध स्थापित होने में देर लगती है। जिसकी अवधि स्थानीय कार्यालयों, केंद्रीय कार्यालयों एवं श्रोता के टेलिफोन की व्यस्तता पर निर्भर करती है।
बड़े बड़े व्यावसायिक फर्म, जिनकी शाखाएँ प्रशाखाएँ देश के विभिन्न भागों में फैली होती हैं, सम्मेलन कॉल (conference calls) का प्राय: उपयोग करती हैं। इस व्यवस्था में देश के विभिन्न भागों में स्थित विभिन्न टेलिफोन एक साथ ही संबंधित हो जाते हैं और एक स्थान पर बैठा हुआ व्यवस्थापक, या फर्म का स्वामी, अपनी विभिन्न शाखाओं के प्रतिनिधियों को एक साथ ही आदेश या निर्देश दे सकता है।
जिन स्थानों को परस्पर तार की लाइन द्वारा संबंधित नहीं किया जा सकता उनमें संबंध के लिये रेडियो टेलिफोन व्यवस्था का उपयोग किया जाता है। टेलिफोन प्रेषित्र में उच्चरित ध्वनि द्वारा उत्पन्न होनेवाले विद्युदावेगों (electrical impulses) को रेडियो तरंगों में, तथा ग्राही में उन रेडियों तरंगों को पुन: ध्वनितरंगों में, परिवर्तित करने की व्यवस्था रहती है। इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय अथवा अंतरमहाद्वीपीय टेलिफोन संचारव्यवस्था स्थापित की गई है। वायुयानों एवं जलयानों को भी परस्पर, तथा वायुयान स्टेशनों अथवा बंदरगाहों से, इस विधि से निरंतर संबंधित रखा जाता है।
टेलिफोन व्यवस्था द्वारा टेलिटाइपिंग का भी प्रबंध होता है। वक्ता की बात को श्रोता के ग्राहीयंत्र से संबंधित टाइपराटिंग मशीन, जो ग्राहीयंत्र में उत्पन्न विद्युदावेगों द्वारा संचालित होती है, स्वयमेव टाइप कर लेती है। आइसोफोन (isophone) व्यवस्था द्वारा श्रोता की अनुपस्थिति में वक्ता का संदेश ग्रहण कर अभिलिखित (record) कर लिया जाता है। श्रोता बाद में उसे प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त वक्ता का संदेश भी आइसोफोन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है और वक्ता की अनुपस्थिति में नियत समय पर, अभीष्ट टेलिफोन से संबंध होने पर वह संदेश स्वयमेव श्रोता तक प्रेषित हो जाता है। प्रकाश सेलों (photo cells) की सहायता से टेलिफोन तारों द्वारा फोटोग्राफ भी भेजे जाते हैं।
टेलिफोन का व्यक्तिगत शाखा केंद्र (Telephone Private Branch Exchange : PBX) - यदि एक ही व्यक्ति, संस्था अथवा प्रतिष्ठान के भवन में अनेक टेलिफोन हों, तो उनके बीच पारस्परिक संबंध स्थापन की सुविधा के लिए उस भवन में व्यक्तिगत टेलिफोन केंद्र स्थापित किए जाते हैं। इन्हें व्यक्तिगत शाखाकेंद्र कहते हैं और संकेत रूप में इन्हें पीबीएक्स (PBX) द्वारा व्यक्त किया जाता है। ऐसे केंद्र न केवल उस भवन में स्थित टेलिफोनों को ही परस्पर संबंधित करते हैं अपितु उन टेलिफोनों का संयोग ट्रंक केंद्रों के माध्यम से देश के अन्य टेलिफोनों द्वारा भी करते हैं। प्राय: ऐसे व्यक्तिगत केंद्र भी होते हैं जो एक ही व्यक्ति, संस्था अथवा प्रतिष्ठान की देशव्यापी शाखाओं में स्थित टेलिफोनों को भी परस्पर जोड़ते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं: करचालित (manual PBX) और डायल चालित (dial PBX)। ये दोनों केंद्र लगभग साधारण टेलिफोन केंद्रों की ही भाँति कार्य करते हैं।
क. बुलानेवाला (calling) टेलिफोन, ख. केंद्रीय कार्यालय या दूर के पीबीएक्स को, ग. वितरण फ्रेम, घ. करचालित केंद्रीय कार्यालय ट्रंक, च. डायल तान (tie) ट्रंक, छ. परिचारक ट्रंक, ज. स्विच पट्ट, झ. डायल केंद्रीय कार्यालय ट्रंक ञ. बुलाया गया (called) टेलिफोन, ट. सेयोजित्र (Connector), तथा ड. संवरक (selector), ढ. लाइन खोजित्र (finder) तथा ण. लाइन रैक।
करचालित पीबीएक्स में अनेक जैक (jacks) होते हैं। प्रत्येक जैक में एक प्रकाश लैंप लगा होता है और साथ में प्रत्येक उपटेलिफोन (extention) तथा केंद्रीय-कार्यालय-ट्रंक आदि के नंबरों का उल्लेख होता है। अभीष्ट टेलिफोन से संबंध स्थापित करने के लिए इन जैकों को लचीली डोरियों द्वारा संयोजित किया जाता है, जिनके सिरों पर प्लग लगे होते हैं। टेलिफोन ऑपरेटर के पास ही एक टेलिफोन और डायल चक्र स्थित होता है, जिसे उपर्युक्त चाभियों या बटनों की सहायता से किसी भी डोरी परिपथ (cord circuit) द्वारा संबद्ध किया जा सकता है।
डायल पीबीएक्स के सभी उपटेलिफोनों में डायल लगे होते हैं। अभीष्ट संयोजनों के लिए विद्युद्यांत्रिकी, अथवा अन्य दूरस्थ स्विचिंग व्यवस्था, का उपयोग इसमें किया जाता है। डायल पीबीएक्स में टेलिफोन ऑपरेटर का स्विच-पट्ट भी सम्मिलित रहता है।
टेलिफोन सेवा के विविध उपयोग - पारस्परिक वार्ता एवं सामान्य सूचनावाहन के अतिरिक्त टेलिफोन प्रणालियाँ अनेक शांतिकालीन सहज उपयोगों से लेकर युद्धकाल में अनेकानेक सामरिक महत्व के उपयोगों में आती हैं। इनमें से कतिपय निम्नलिखित हैं:
(१) सामान्य सूचनाएँ - टेलिफोन के एक विशेष कार्यालय से ठीक ठीक समय ज्ञात किया जा सकता है। इस कार्यालय का एक विशेष नंबर होता है। यह समय या तो निकटतम टेलिफोन कार्यालय में स्थित स्वंचालित समय उद्घोषक यंत्र द्वारा होता है अथवा कोई व्यक्ति इस हेतु नियुक्त किया जाता है। मौसम संबंधी सूचनाएँ भी टेलिफोन कार्यालय से (उचित नंबर मिलाने पर) ज्ञात की जा सकती है। कुछ देशों में विभिन्न रेलगाड़ियों, वायुयानों, मोटर बसों आदि के आने और छूटने का समय, सिनेमा अथवा थियेटर संबंधी सूचनाएँ अथवा प्रमुख नेताआं के कार्यक्रम के बारे में भी सूचनाएँ टेलिफोन द्वारा प्राप्त करने की व्यवस्था रहती है।
(२) युद्धकालीन विशेष उपयोग - द्वितीय महायुद्ध में टेलिफोन प्रणाली ने मित्रराष्ट्रों की बड़ी सहायता की। यूरोप में टेलिफोन संबंधों एवं लाइनों का कितना घना जाल फैला हुआ था, इसका कुछ अनुमान आँकडों से लगाया जा सकता है। जून १९४४ से मार्च १९४५ तक अर्थात नौ महीनों की अवधि के अंदर, यूरोप में संघर्षरत अमरीकी सेना ने कुल मिलाकर लगभग दस लाख उनसठ हजार मील लंबी टेलिफोन की लाइनें, दो लाख चौरानबे हजार टेलिफोन और सत्रह हजार सात सौ चालीस स्विच पट्टों की स्थापना की। ये उन स्थायी टेलिफोन स्थापत्यों के अतिरिक्त थे जो विजित देशों में प्राप्त हुए थे और जिनका उपयोग पहले से किया जा रहा था। इनके अतिरिक्त जलयानों में भी टेलिफोनों की विस्तृत व्यवस्था की गई थी। लाइन टेलिफोनों के अतिरिक्त रेडियो टेलिफोनों का भी विस्तृत पैमाने पर उपयोग किया गया था। इनसे समाचार, सूचनाएँ, तत्कालिक आदेश एवं विचार विमर्श आदि में जो अमूल्य सहायताएँ मिली उनकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
(३) आक्रमण की चेतावनी - संयुक्तराज्य अमरीका में एक व्यक्तिगत लाइन टेलिफोन प्रणाली है, जो किसी ओर से भी अमरीका पर सामान्य आक्रमण की चेतावनी देती है। इस प्रणाली का नाम राष्ट्रीय चेतावनी प्रणाली है। यह संक्षेप में 'नावास' (NAWAS) कही जाती है। इस प्रणाली से संपूर्ण संयुक्त राज्य में लगभग ३०० चेतावनी बिंदु (warning points) तथा चार चेतावनी केंद्र (warning centres) संबद्ध हैं। प्रत्येक केंद्र पर नागरिक एवं सुरक्षा विभाग का एक एक अधिकारी प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त है। वह आक्रमण की संभावना होने पर अपने क्षेत्रीय चेतावनी बिंदुओं को यह सूचना प्रेषित कर देगा कि आक्रमण किस प्रकार का है, कितनी देर के पश्चात् संभावित है और किस ओर से हो रहा है, इत्यादि। इन चेतावनी बिंदुओं से सारे राष्ट्र में तत्काल ये सूचनाएँ प्रसारित कर दी जाएँगी। ये केंद्र तथा चेतावनी बिंदु अहर्निश कार्यरत रहते हैं और सूचनाएँ घंटी और प्रकाश की विधि से प्रसारित करते हैं।
आधुनिक टेलिफोन सेवा में सुधार के कतिपय तत्व -
केबल : केबलों के कुछ उपयोगों का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। टेलिफोन परिपथों के पुंजों का सुसंहत रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान तक वहन करने के अतिरक्त इनके अन्य अनेक उपयोग भी हैं। नदियों की तलहटी तथा अन्य जलाशयों के नीचे से होकर लाइनों को पहुँचाने की अनुपम साधन के रूप में इनका महत्व अत्यधिक है। पहले केबल में स्थित तारों को गटापार्चा या रबर से पृथग्न्यस्त किया जाता था, किंतु इनमें एक बड़ी असुविधा यह थी कि ये तारों को आर्द्रता के कुप्रभाव से नहीं बचा सकते थे। इसलिए ये अनुपयुक्त सिद्ध हुए। कालांतर में इन तारों के कागज से पृथग्न्यस्त किया जाने लगा और आर्द्रता के प्रभाव से मुक्त रखने के लिये पूरे केबल को धात्विक नलिका से आवृत्त कर दिया गया। एक केबल के अंदर प्राय: २,५०० तक तारयुग्म (दो स्थानों को दोनों ओर से जोड़नेवाले तारों का युग्म) रहते हैं और ऐसे केबल में प्रयुक्त होनेवाले तारों का भार केबल चार पाउंड प्रति मील होता है। इस दृष्टि से केबलों की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। आगे चलकर केबलों में एक और सुधार किया गया। टोल संयंत्र (toll-plant) में वाहक आवृत्तियों (carrier frequencies) का अधिकतम उपयोग करने के लिये समाक्ष (coaxial) केबलों का निर्माण किया गया। इनमें एक समाक्ष एकक होता है, जिसके अंदर एक बेलनाकार विद्युच्चालक ताँबे की एक नली से आवृत्त रहता है। यह चालक पॉलिएथिलीन की चकती के पृथक्कारकों द्वारा अपने स्थान पर टिका रहता है। एक समाक्ष केबल में चार से आठ तक ऐसे समाक्ष एकक रहते हैं।
(२) भारण : टेलिफोन परिपथों, विशेषकर सुदीर्घ परिपथों, में संवाद वहन करनेवाले चक्रों की दक्षता में वृद्धि करने के लिए उनके एक विशेष वैद्युत गुण में वृद्धि करना आवश्यक प्रतीत हुआ। इस गुण को एक समान वितरित प्रेरकत्व (inductance) कहते हैं। एतदथ टेलिफोन परिपथ में कुंडलियों के बीच समुचित अंतरण (spacing) की व्यवस्था की गई, जिसे भारण (loading) कहते हैं। यह व्यवस्था परिपथ में वाग्धारा (speech current) के तरंगों का क्षीणन (attenuation) कम कर देती है। इसके परिणामस्वरूप परिपथ की क्षमता प्राय: आठ गुनी तक बढ़ जाती है। उत्तम भारण के लिए आवश्यक है कि भारण कुंडलियों के चुंबकीय क्रोडों (cores) तथा ताँबा लपेटों में ऊर्जा का ्ह्रास अत्यल्प हो और उनका प्रेरकत्व एक समान तथा स्थायी हो। इसके लिये अनेक प्रयास किए गए, जिनमें बेल कंपनी द्वारा अन्वेषित एक उत्तम क्रोड-पदार्थ सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुआ। यह पदार्थ निकल, लोहा, और मोलिब्डिनम की मिश्रधातु है। इसे मोलिब्डिनम पारमिश्रधातु (permalloy) कहते हैं। आजकल इसी पदार्थ का उपयोग उत्तमोत्तम भारण व्यवस्था के हेतु किया जा रहा है।
(३) आवर्तक या रिपीटर (Repeater) - दूरगामी टेलिफोन चक्रों में प्राय: विद्युद्धारा की क्षीणता के कारण प्रेषित ऊर्जा निरंतर कम होती जाती है। इसके लिए आवश्यक है कि कुछ निश्चित दूरी के बाद धारा की प्रबलता को प्रवर्धित किया जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये किए गए प्रयासों ने एक आवर्तक तत्व ढूँढ़ निकाला, जो टेलिफोन संचार प्रणाली की निर्बल विद्युद्धार द्वारा सक्रियकृत (actuate) होने पर वाक्प्रेषण (voice-transmission) की स्पष्टता को कुप्रभावित किए बिना ही उसे अधिक प्रबल धारा में परिणत कर देता है। इसके लिये सामान्यतया त्रयग्र वाल्व (triod valve) का ही उपयोग किया जाता है।
सुदीर्घ दूरियों तक टेलिफोन व्यवस्था के विस्तार के प्रयासों का इतिहास-सुदीर्घ दूरी पारकर टेलिफोन वार्ता के वहन का प्रथम सफल प्रयास सन् १८७६ में इंग्लैंड के केंब्रिज एवं बोस्टन नगरों के बीच संपन्न हुआ था। ये नगर परस्पर दो मील दूर थे। इसके पश्चात् ऐसी उल्लखनीय वार्ताएँ सन् १८८४ में बोस्टन और न्यूयॉर्क (अमरीका) के, तथा सन् १९११ में न्यूयॉर्क और डेनेवर के, बीच हुई थीं। प्रथम पारमहाद्वीपीय टेलिफोन संबंध सन् १९१५ में न्यूयॉर्क तथा सैनफ्रैंसिस्को के मध्य स्थापित हुआ था। सन् १९३१ तक ऐसे दीर्घस्तरीय टेलिफोन संबंधों का प्रसार जापान, फिलिपाइन तथा मध्य एवं दक्षिण अमरीका के कतिपय देशों में हो चुका था। लगभग उसी वर्ष भारत तथा सोवियत रूस में भी ऐसे टेलिफोन संबंधों के विस्तार का क्रम आरंभ हुआ।
भारत में टेलिफोन सेवा-व्यवस्था - विगत दो दशकों में भारत में टेलिफोन प्रणाली का विस्तार अत्यंत द्रुत गति से हुआ। ३१ मार्च, १९६२ तक देश में टेलिफोन यंत्रों की कुल संख्या ५,२०,९१७ तक पहुँच गई थी कुल विभिन्न टेलिफोन व्यवस्थाओं का संघनित विवरण इस प्रकार है:
राजकीय टेलिफोन एक्सचेंज १,६२६
सीधी लाइनें
(जिनमें १७,३९२ पीबीएक्स जंक्शन समम्मिलित हैं) ३,७३,५२७
उपटेलिफोन (extensions) ५१,६०२
व्यक्तिगत शाखा केंद्र ६,९३४
पीबीएक्स से उपटेलिफोन संबंध ८८,३३६
व्यक्तिगत केंद्र २४५
व्यक्तिगत केंद्रों से उपटेलिफोन संबंध ७,७९८
अकेंद्रीय (non exchange) प्रणालियाँ :
प्रणालियों की संख्या २,५८३
टेलिफोनों की संख्या ५,२९६
जनता के टेलिफोन कॉलकेंद्र (Public Call Offices) १,८५३
जनता के टेलिफोन से उपटेलिफोन संबंध ४,२०५
लाइसेंस प्राप्त (licensed) प्रणालयाँ
लाइसेंसों की संख्या १९०
टेलिफोनों की संख्या ७,५४५
उक्त अवधि तक देश भर में ६५ टेलिफोन केंद्रों में मापित दर प्रणाली (measured rate system) का व्यवहार होने लगा। अनेक नई टेलिफोन प्रणालियों का प्रारंभ भी किया गया, जिनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं:
(१) उभयाक्ष (co-axial) केबल परियोजना में सन् १९६२ तक आसनसोल-सासाराम, सासाराम-वाराणसी तथा कानपुर-इलाहाबाद खंडों में ऐसे समाक्ष केबल बैठाए जा चुके थे तथा अनेक अन्य खंडों, यथा आगरा-अहमदाबाद-बंबई खंड में स्थापित किए जाने की योजनाएँ कार्यान्वित की जा चुकी थीं।
(२) रेलवे विद्युतीकरण योजनांतर्गत गया-मुगलसराय तथा खड़गपुर-टाटानगर खंडों में केबल बैठाने का कार्य प्राय: पूर्ण हो चुका था। अन्य अनेक खंडों मे, जिनमें दुर्गापुर-हाबड़ा गोदी, मद्रासविल्लूपुरम, तथा मुगलसराय-इलाहाबाद-कानपुर खंड उल्लेखनीय हैं, यह परियोजना लागू कर दी गई हैं। नीचे दी गई तालिका में प्रत्येक क्षेत्र एवं जिले में टेलिफोनों की संख्या ३१ मार्च, १९६२ तक दी गई है:
आंध्र २५,३८४
असम १०,५७२
बिहार २१,००६
बंबई १७,०१४
केंद्रीय २४,६०२
गुजरात २४,३४४
केरल १७,३१५
मद्रास २३,१७२
मैसूर २२,४०२
उड़ीसा ५,०९७
पंजाब २३,१३४
राजस्थान १०,२६६
उत्तर प्रदेश ४०,२६६
जम्मू और कश्मीर ३,२४३
पश्चिम बंगाल ११,१२५
बंबई जिला ७२,४९१
कलकत्ता जिला ९०,२७९
दिल्ली जिला ५३,६२७
मद्रास जिला २५,२०४
कुल टेलिफोनों की संख्या ५,२०,९१७ (सुरेशचंद्र गौर्ड़)