टेरोडैक्टिला (Pterodactyla) अर्थात् पक्षी सरट, टेरोसॉरिया गण के पंखधारी तथा उड़नेवाले विलुप्त सरीसृप (reptiles) हैं, जिनके जीवाश्म (fossils) जर्मनी के कुछ भूक्षेत्रों में मिले हैं। इनका वृद्विकाल जुरैसिक युग माना गया है, जो सरीसृप वर्ग के जंतुओं के विकास का मध्यकाल कहा जाता है। इन जंतुओं को कुछ विभिन्नताओं के कारण समूहों में विभाजित किया
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चित्र. १ टेरोडैक्टिलस का अस्थिपंजर
गया है। एक समूह के जंतुओं की पूँछ लंबी होती थी, जिसके एक छोर पर पंख (fin) होता था, तथा दूसरे समूह के जंतुआं में पंख का सर्वथा अभाव था।
सर्वाधिक ज्ञात रूप, ''रैंफोरिंकस'' (Rhamphorhynchus) के जीवाश्म बवेरिया (जर्मनी) के सोलेनहोफेन प्रदेश तथा इंग्लैंड की किंमेरिज मिट्टियों (Kimmeridge clay) में पाए गए हैं। रैंफोरिंकस का सिर लगभग ३.१/२ इंच लंबा था। मुखद्वार अधिक चौड़ा तथा लंबे एवं तीक्ष्ण नुकीले दाँतों से युक्त था। नेत्र निचले जबड़े के संधिस्थान के ऊपर स्थित थे। इनका आकार बहुत बड़ा तथा इनकी दीवारों में पक्षियों के सदृश अस्थि के कई टुकड़े होते थे। दोनों नासा छिद्र नेत्र के सम्मुख कुछ दूर पर स्थित थे। लगभग २'' लंबी तथा नम्य ग्रीवा के ऊपर समकोण रूप से सिर जुड़ा हुआ था। धड़ अपेक्षाकृत छोटे आकार का, लगभग ४'' लंबा, था। पूँछ की लंबाई लगभग १५'' थी। कई भिन्न भिन्न भागों द्वारा बने रहने पर भी अनुमानत: संपूर्ण पूँछ की गति एक साथ ही होती होगी, क्योंकि योजक कंडरा (tendons) अस्थिभूत (ossified) थे। इनके पक्ष केवल त्वचा के प्रसार के कारण बनी झिल्लियों के द्वारा निर्मित थे। ये अपेक्षाकृत अधिक लंबी अग्रबाहु (fore limb) एवं समुन्नत चतुर्थ अँगुली के द्वारा सधे हुए थे। इन दोनों पक्षों के प्रसार की लंबाई लगभग २५� � थी। शेष चारों अँगुलियों में केवल तीन ही चंगुल के रूप में परिवर्तित थीं, कनिष्ठा का अभाव था। पक्ष की झिल्लियाँ शरीर के दोनों पारर्श्वों से पश्चपाद (hindleg) के साथ मिली हुई थीं। इनकी चंगुल सदृश, तीनों अंगुलियाँ संभवत: खाद्य पदार्थ को ग्रहण करने तथा भू पर उतरने में सहायक थीं। पूँछ का पश्च भाग कुछ चौड़ा तथा झिल्लियों के अनुप्रस्थ जालक (plexers) के द्वारा बना हुआ था। पश्चपाद का शेष भाग अधिक लंबा था तथा इसके साथ पाँच लंबी अंगुलियाँ जुड़ी हुई थीं। प्रथम अंगुली के अतिरिक्त, शेष चारों अँगुलियों के मध्य संभवत: झिल्लियों का संबंध था। रैंफौरिंकस का संपूर्ण शरीर चिकना तथा शल्क (scales) रहित था। केवल शिर के ऊपर कुछ लोम (hair) जैसे प्रोद्वर्ध (protuberances) थे।
इन जंतुओं के पक्ष वस्तुत: पक्षियों के पक्ष से सर्वथा भिन्न थे, क्योंकि इनके ऊपर परों का अभाव था। ये वायव्य सरीसृप मत्स्यभक्षी ज्ञात होते हैं। ये संभवत: समुद्र के ऊपर मछलियों की
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चित्र २. रैंफोरिंकस के कंकाल तथा पक्षकला की रचना
खोज में उड़ा करते थे। विश्राम के समय पृथ्वी पर चलना इनके क्षीण पैरों के लिए संभव नहीं था, इसलिये ये चमगादड़ की तरह वृक्षों की शाखाओं या चट्टानों से लटकते हुए झूलते रहते थे।
दूसरे प्रकार के पक्षीसरट पुच्छविहीन थे। इनमें संयुक्त राज्य (अमरीका) के पश्चिम, कैनसैस में क्रिटेशन (cretaceous period ) की चट्टानों में पाए गए टिरैनोडॉन (Pteranodon) नामक जंतु के जीवाश्म अधिक महत्वपूर्ण हैं। विलुप्त टिरेनोडॉन के पक्ष की सर्वाधिक लंबाई २७ फुट तक पाई गई है। अत: उड़नेवाले सभी जंतुओं से इनका आकार अधिक बड़ा जान पड़ता है। फिर भी इनका भार अधिक नहीं था, क्योंकि भुजाओं की अस्थियाँ खोखली तथा बहुत पतली दीवारों वाली थीं। इनकी चोंच दंतविहीन होती थी तथा सिर के ऊपर अस्थि का एक उभरा हुआ
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चित्र ३. टिरैनोडॅन की ठठरी
भाग था। इन बृहत्काय पक्षीसरट जंतुओं का मस्तिष्क असामान्य प्रकार से पक्षियों के मस्तिष्क के सदृश था। ध्रणकेंद्र अधिक उन्नत न होने के कारण, खाद्य पदार्थ ग्रहण करने के लिए इन्हें विशेष रूप से अपनी दृष्टि पर ही आश्रित रहना पड़ता था। टिरैनोडॉन तथा इनकी प्रजाति के अन्य जंतु उड़नेवाले अंतिम सरीसृप थे। इस काल तक पक्षियों का विकास कहीं अधिक हो चुका था, जिन्होंने शीघ्र ही वायव्य जंतुओं का स्थान ग्रहण कर लिया।
(कार्तिकचंद्र बोस)