टीपू सुल्तान जन्म १७५० मृत्यु १७९९। हैदर अली के पुत्र फतह अली का प्रचलित नाम टीपू सुल्तान, सामयिक संत टीपू मस्तान ओलिया के नाम पर हुआ था तत्कालीन दक्षिण भारत के अधिपतियों में संभवत: वहीं अकेला व्यक्ति था जिसे अंग्रेजी शक्ति का सतत गत्यवरोध भी किया। विशेषतया अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा प्रसारित टीपू संबंधी अनेक चारित्रिक भ्रांतियाँ प्रचलित हैं। किंतु वस्तुत: धर्मांध, प्रतिशोधी और निर्मम कठोर होने की अपेक्षा वह दयालु, उदार, प्रगतिशील तथा सहिष्णु शासक था। उसके शासन में अनेक हिंदू उच्च पदों पर नियुक्त थे। धर्मशील होते हुए भी वह ऐसी मान्यताओं का भी अनुसरण करता था जो कट्टरता के प्रतिकूल थीं। वह विद्याव्यसिनी था। उसके समस्त आदेश फारसी भाषा में स्वलिखित होते थे, तथा उसने निजी बहुमूल्य पुस्तकालय संकलित किया था। उसने चित्रकला, संगीत तथा स्थापत्य कला को भी प्रोत्साहन दिया था। उस समय के भारतीय नरेशों में संभवत: वही अकेला व्यक्ति भी था जिसने पाश्चात्य विचारों को कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया। अपने शौर्यवान पिता से उसे विरासत में तथा अनुभूति द्वारा अदम्य साहस और रणचातुर्य तो प्राप्त थे ही, फ्रांसीसी सेनानियों के संसर्ग और सहायता से उसने अपनी सेना को भी आधुनिक रूप का देने का यथाशक्ति प्रयत्न किया। असाधारण सैन्य-प्रतिभा प्रदर्शित करने के अतिरिक्त, टीपू सुल्तान शांतिपूर्ण व्यवस्था में निश्चय ही महान शासक प्रमाणित होता। कुशल शासकीय व्यवस्था स्थापित करने के अलावा उसने शासन में कैलेंडर, सिक्के तथा तौल संबंधी मौलिक सकुधार भी प्रयुक्त किए। वास्तव में, अपनी सर्जनात्मक प्रवृत्ति के कारण उसे दक्षिण का शेरशाह कहना अत्युक्ति न होगी।
सर्वग्रथम, अपने पिता के नेतृत्व में, १५ वर्ष की अवस्था में ही, प्रथम आंग्ल-मैसूर-युद्ध में, टीपू ने वीरता का परिचय दिया। द्वितीय आंग्ल-मैसूर-युद्ध में, उसने कर्नल बेली को पूर्ण पराजय देकर आर्कट तथा अंबर (Ambur) हस्तगत किया। तत्पश्चत् कर्नल ब्रेथवेट को परास्त किया। हैदरअली की मृत्यु के उपरांत सिंहासनासीन हो, उसने स्टुअर्ट को हराकर बेदनूर (Bednur) अधिकृत किया, जहाँ उसने सेना का तलवार के घाट उतार दिया। अंतत:, मंगलौर की संधि हुई, जिसे हेस्टिंग्स ने लज्जाजनक शांतिस्थापना कहकर संबोधित किया। संधि के बाद उसने शासन का पुन: संघटन किया, तथा मैसूर-मराठा-युद्ध के पश्चात् अपने को बादशाह घोषित कर, मुगल सम्राट् के प्रति औपचारिक अधीनता समाप्त कर दी। अन्यथा शांतिप्रिय गवर्नर जनरल कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध युद्ध आयोजित किया, जिसमें प्रारंभिक सफलताओं के बाबजूद टीपू को अंत में नतमस्तक होना पड़ा। सिरिंगापट्टम की संधि के अनुसार युद्धदंड तथा राज्यभाग अर्पित करने के अतिरिक्त इसे अपने दो पुत्र शरीरबंधक के रूप में समर्पित करने पड़े। सर जॉन शोर की निष्पक्षता की नीति से प्रोत्साहित हो उसने पुन: शक्तिसंचय का प्रयत्न किया; किंतु सक्षम साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल वेलेजली के विरुद्ध पराजित हो अपनी राजधानी की दीवाल तले अंतिम युद्ध करते हुए टीपू ने प्राण त्याग दिए। निस्संदेह, भारतीय इतिहास में अंग्रेजों को टीपू सा विकट शत्रु और दूसरा नहीं मिला।
सं. ग्रं. हैदरअली ऐंड टीपू सुल्तान : एल० बी० बाउरिंग (Bowring); हिस्ट्री ऑव टीपू सुल्तान: मोहिबुल हसन खाँ। (राजेंद्रनागर)