टाइपराइटर एक यंत्र है जिससे हाथ की लिखावट की अपेक्षा अक्षर अधिक शीघ्रता से छापे जा सकते हैं।
इस प्रकार के जो प्राथमिक यंत्र बने वे सब अंधों के पढ़ने के लिये उभड़े हुए अक्षर छापने के उद्देश्य से बनाए गए थे। सन् १८३३ में जेवियर प्रोगिं (Xavier Progin) नामक एक फ्रांसीसी ने एक मशीन बनाई, जिसमें टाइप लगे हुए कुछ डंडे थे। प्रत्येक टाइप एक ही केंद्र कुंजी के नीचे की संख्याओं से उनकी उपयुक्ति का सापेक्ष क्रम ज्ञात होता है।
शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, द्वारा स्वीकृत हिंदी टाइपराइटर का कुंजी पटल
अंतर छड़
संकेतवाक्य
निष्क्रिय तथा खसका (ऑफसेट) कुंजियाँ।
उच्च विचलन (शिफ्ट) में इन कुंजियों का अर्धसंचलन होता है।
निम्न विचलन में इन कुंजियों का अर्धसंचलन होता है।
दोनों विचलनों में इन कुंजियों क अर्धसंचलन हाता है।
टिप्पणियाँ :
कुंजी संख्या ३ के उच्च विचलन में दिए बिंदु का उपयोग ड से ड० तथा कामा (,) से सेमिकोलन (;) बनाने और दशमलव चिह्न में होता है।
कुंजी संख्या ६ के उच्च विचलन में हाइफ़न है।
कुंजी संख्या ९ के उच्च विचलन में हलंत चिह्न है।
कुंजी संख्या २९ के उच्च विचलन में प से फ, उ से ऊ, भ से झ तथा र से रु बनाने का चिह्न है।
कुंजी संख्या २ के निम्न विचलन में अर्ध व्यंजन श्, घ्, ण्, ष्, क्ष्, तथा ञ् से पूर्ण व्यंजन बनाने के लिए चिह्न है।
कुंजी संख्या ४६ के निम्न विचलन में रेखांकन के लिए रेखा है।
कुंजी संख्या ४६ के उच्च विचलन में ड से ड़, ढ से ढ़ इत्यादि बनाने के लिए बिंदु है।
कुंजी संख्या २६ के निम्न विचलन में प इत्यादि के नीचे लगनेवाले अर्ध र का चिह्न है।
कुंजी संख्या ४२ के उच्च विचलन में ट इत्यादि के नीचे लगनेवाले अर्ध र का चिह्न है।
पर नीचे की ओर चोट करता था। टाइप छड़ (Typebar) जाति की सब आधुनिक मशीनें इसी युक्ति पर कार्य करती हैं। इसके पश्चात् अन्य महत्व की युक्ति का आविष्कार अमरीका के चार्ल्स थरबर ने सन् १८४३ में किया। इसमें अक्षरों के बीच में खाली स्थान कागज बेलन (Platen) की अनुदैर्घ्य गति से पड़ जाता था, जैसा आधुनिक सब टाइपराइटर यंत्रों में होता हैं। इससे अच्छे प्रकार के यंत्र बनाने के प्रयत्न सन् १८५० के पश्चात् अनेक हुए, किंतु मिलवाँकी (Milwankee), अमरीका के डी० एल० शोल्ज (Sholes), कार्लोस ग्लिडेन (Carlos Glidden), तथा एस० डब्ल्यू० सूले (Soule) ने जिसे यंत्र का सन् १८६७ में आविष्कार किया वह व्यवहारयोग्य सर्वप्रथम यंत्र सिद्ध हुआ। इसके सुधारे हुए रूप से हाथ की लिखावट की तुलना में कहीं अधिक शीघ्र छापा जा सकता था। इस मशीन में कई सुधार किए गए और अंत में इसके विकास और निर्माण का अधिकार इलियन (Ilion) नगर के ई० रेमिंगटन ऐंड संस को मिला। सन् १८७४ से यह यंत्र बाजार में बिकने लगा और इसक नाम रेमिंगटन रख दिया गया।
इस मशीन की कई बातें, जैसे कागज का वेलन तथा उससे संलग्न पंक्तियों के बीच स्थान छोड़ने और उपबंधक (Carriage) की वापसी के कल पुर्जे, पलायनतंत्र (Escapement), जिससे अक्षरों के बीच स्थान छूट जाता है, टाइप की छड़ों का प्रबंध जिसके कारण एक ही केंद्र पर सब टाइप चोट करते हैं, कुंजियों (Keys) के लीबर द्वारा टाइप की छड़ों को उठाना और गिराना, स्याही भरे फीते द्वारा छापना तथा कुंजी पटल (Key board) पर भिन्न अक्षरों के स्थान इत्यादि प्राय: वैसी की वैसी ही आज की मशीनों में भी पाई जाती हैं। पहले के टाइपराइटरों में एक कुंजी से एक ही प्रकार के अक्षर, अर्थात् अंग्रेजी के केवल बड़े अक्षर, छपते थे। छोटे अक्षरों को भी सम्मिलित करते के लिए इतनी कुंजियों की आवश्यकता होती थी कि मशीन में उनके लिए स्थान न था। इस कठिनाई को दूर करने के लिए दो टाइप, एक बड़े अक्षर का तथा दूसरा छोटे अक्षर का, एक ही कुंजी की छड़ पर लगाए गए और इसके साथ बेलन का स्थान बदलने के लिये कलबदल (Shift key) का आविष्कर हुआ। इसके द्वारा बेलन को उठाकर आवश्यकतानुसार छोटे और बड़ अक्षर एक ही कुंजी को दबाने से छापे जाने लगे। जैसा आज होता है, वैसा ही तब भी टाइपराइटरों में छपाई के लिए दो चर्खियों पर लिपटे स्याही भरे फीते का प्रयोग किया जाता था और यह फीता छपाई के साथ-साथ आगे बढ़ता जाता था। सन् १८९६ में ऐसी युक्ति का आविष्कार हुआ जिसके द्वारा एक चर्खी पर के कुछ फीते के उतर जाने पर अपने आप दोनों चर्खियाँ उलटी ओर घूमने लग जाती हैं और वही फीता विपरीत दिशा में चलकर स्याही देने लगता है।
पहली मशीनों में छपाई बेलन के निचले भाग पर होती थी और इसलिये छपते समय अक्षर दिखाई नहीं देते थे। इन्हें देखने के लिए उपबंधक को उठाना पड़ता था। इन यंत्रों का स्थान दृश्य मशीनों ने लिया, जिनमें छपाई बेलन के नीचे न होकर ऊपर होने लगी। बाद में सम्मुख छापनेवाली मशीनों ने पूर्वोक्त दोनों प्रकार की मशीनों का स्थान ले लिया। इस प्रकार के यत्रों में टाइप की छड़ें उपबंधक के सम्मुख वृतखंड के आकार में लगी रहती है और टाइप बेलन के सम्मुख भाग में छापता है। आजकल की मशीनों में इसी प्रकार छपाई होती है। सबाह्य (portable) और निशब्द (noiseless) टाइपराइटर आधुनिक विकास के फल हैं। सुवाह्य मशीनें छोटी, हलकी, और सुसंहत होती है। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलता से ले जाया जा सकता है। नि:शब्द मशीनों में भी छपाई टाइप छड़ों से होती है, किंतु यह चोट से नहीं वरन् दबाव स होती है। ऐसे यंत्रों में टाइप छड़ की पीठ पर एक भार लगा रहता है। ज्योंही टाइप छड़ गतिमान होती है, इस भार का संवेग बढ़ता जाता है और टाइप कागज पर नि:शब्द और शीघ्र छाप देता है।
सन् १८९८ में दशमलव सारणीकार (Decimal Tabulator) का आविष्कार हुआ। इससे उपबंधक का किसी भी वांछित बिंदु पर तुरंत स्थापन संभव हुआ तथा टाइपराइटर यंत्र का उपयोग प्रपत्र (forms) तथा सारणी या तालिका संबंधी कार्यों में भी व्यावहारिक हो गया। सारणीकार से उपयोग से पृष्ठ के किसी स्थान पर जितने भी अंकों के स्तंभ समा सकते हैं वे सब साधारण कार्य के समान शीघ्रता से छापे जा सकते हैं। आगे चलकर ऐसी मशीनें बनीं जो छपे हुए स्तंभों के जोड़ भी दे सकती थीं। पर आगे ऐसी मशीनों का आविष्कार हुआ जिनसे पूरे हिसाब या बहीं खाते छापने का काम लिया जा सकता है। ये मशीनें पृष्ठ में ऊपर नीचे अथवा एक पंक्ति में, अगल बगल, लिखे अंकों को, जैसा चाहे वैसा, जोड़ या घटा सकती हैं।
हिसाब या बही खाते वाली मशीनें भी साधारण टाइपराइटर यंत्रों की भाँति कार्य करती हैं, परंतु उनका कार्य अधिक विस्तृत होता है। छापना और जोड़ना दोनों कार्यों के एक क्रिया से ही होने से अलग से जोड़ने का झगड़ा दूर हो जाता है। इन मशीनों में ऐसे नियंत्रक भी लगे होते हैं, जिनसे हिसाब में भूल नहीं होने पाती। हिसाबी मशीनों में विद्युत् का उपयोग भी होने लगा है। कम से कम उपबंधक को वापस ले जाने का काम विद्युत् से ही लिया जाता है। अनेक निर्माणकर्त्ताओं ने विद्युत् से काम करने वाले साधारण टाइपराइटर भी बनाए हैं। टाइपराइटर यंत्र ने व्यापार के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया है। इसके प्रयोग की शिक्षा के लिए अनेक कॉमर्स स्कूल खुले तथा टाइपकर्ता और आशुलेखक की एक अलग उपजीविका का जन्म हुआ।
(भगवानदास वर्मा.)