जेसुइट धर्मसंघ संख्या कीदृष्टि से रोमन कैथालिक धर्म का सबसे बड़ा धर्मसंघ। इग्रासियुस लोयोला ने पेरिस विश्वविद्यालय के ६ प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के साथ सन् १५३४ ईo में इस संघ की स्थापना की थी। पोप पौलुस तृतीय ने १५४० ईo में इसका अनुमोदन किया था। उस समय तक धर्मसंधियों का अनिवार्य नियम यह था कि वे दिन में कई बार एकत्र होकर प्रार्थना करते थे। विभिन्न क्षेत्रों में अधिक स्वतंत्रतापूर्वक कार्य कर सकने के उद्देश्य से इग्रासियुस ने अपने संघ के लिये उस सम्मिलित प्रार्थना को उठा दिया; इस कारण संघ को बड़ी कठिनाई से रोम का अनुमोदन प्राप्त हो सका।
यूरोप में संघ द्वारा संचालित महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों की संख्या शीघ्र ही उत्तरोत्तर बढ़ती गई। सन् १६०० ईo में उनकी संख्या २५४ थी; १७१० ईo में वह ७७० तक बढ़ गई थी। संघ के बहुत से सदस्यों ने धर्मविज्ञान, दर्शन, चर्च के इतिहास, बाइबिल की व्याख्या जैसे धर्मसंबंधी विषयों के अतिरिक्त शुद्ध उच्च गणित, ज्योतिष आदि शुद्ध विज्ञान के क्षेत्र में भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली। प्रोटेस्टैंट धर्म का प्रभाव रोकने के लिये रोमन कैथालिक धर्म की ओर से जो प्रयास किया गया है, उसमें संघ का एक महत्वपूर्ण स्थान है। संत फ्रांसिस जेवियर से प्रेरणा लेकर जेसुइटों ने भारत, जापान, चीन, कनाडा, दक्षिण अमरीका आदि में धर्मप्रचार के लिये सफलतापूर्वक काम किया है और उन देशों के भूगोल तथा भाषाओं के विषय में यूरोप का ज्ञान भंडार समृद्ध कर दिया। संघ में व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना को कभी नहीं भुलाया गया है, इग्रासियुस और फ्रांसिस जेवियर के अतिरिक्त उनके बहुत से सदस्य चर्च द्वारा संत घोषित किए जा चुके हैं।
इन सब कारणों से संख्या की दृष्टि से भी संघ का विस्तार होता रहा; सन् १५५६ ईo सदस्यों की संख्या लगभग १००० थी, १६०० ईo में वह ८५२० थी और १७५० ईo में वह २२५९० तक बढ़ गई थी। इस अपूर्वं सफलता के फलस्वरूप प्रोटेस्टैंटों, नास्तिकों, राजनेताओं तथा कुछ कैथालिकों की ओर से भी धर्मद्वेष, ईर्ष्या आदि अनेक कारणों से जेसुइट संघ का कड़ा विरोध किया गया है। संघ के सदस्यों को क्रमश: पुर्तगाल, स्पेन और फ्रांस से निर्वासित किया गया तथा सन् १७७३ ईo में पोप क्लेमेंट चतुर्दश ने राजनीतिक दबाव के कारण संघ को उठा दिया। प्रशा तथा रूस के शासकों ने अपने यहाँ रोम के अध्यादेश की घोषणा नहीं होने दी जिससे जेसुइट संघ केवल इन दोनों देशों में बना रहा।
सन् १८१४ ईo में राजनीतिक परिस्थिति बदल गई और पोप पाइअस सप्तम ने जेसुइट धर्म संघ पर जो प्रतिबंध था उसे दूर किया जिससे वह फिर शीघ्र ही दुनिया भर में फैल गया। आधुनिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर जेसुइट संघ शिक्षा संस्थाओं के संचालन के अतिरिक्त विशेष रूप से सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिये प्रयत्नशील रहता है तथा सभी पाश्चात्य देशों में बुद्धिजीवियों के लिये उच्च कोटि की सांस्कृतिक पत्रिकाओं का संपादन करता है। पाश्चात्य यूरोप की कई सरकारों का विरोध होते हुए भी संध के सदस्यों की संख्या बढ़ती रही। सन् १८१४ ईo में उसके ६०० सदस्य थे। १९१४ ईo में १६९०० तथा १९६२ ईo में ३५,४३८ जिनमें से ६८३३ मिशन क्षेत्रों में काम करते थे। भारत में उस समय २२५९ जेसुइट थे; उनमें से आधे से अधिक का जन्म भारत में ही हुआ था।
संo ग्रंo जे. ब्राडरिक : दी ओरिजिन ऑव दी जेसुइट्स, लंदन, १९४०; जेo ब्राडरिक : दी प्रोग्रेस ऑव दी जेसुइट्स, लंदन, १९४७।
J. Brodrick, Theoriginof the Jesuits, London, १९४०. J. Brodrick, The Progress of the Jesuits, London, १९४७. [फादर कामिल बुल्के]