जिप्सी एक घुमक्कड़ आदिवासी जाति, जो संसार के सभी राज्य प्रदेशों, विशेषत: पश्चिमी एशिया, यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में बिखरी हुई है। मूलत: मिस्र से संबंधित अंग्रेजी संविधान में इसे जिप्सी नाम दिया गया। फ्रांस में यह खानाबदोश जाति के नाम से पुकारी जाती है और यह समझा जाता है। कि ये हुसाइट्स थे जो कालांतर में निर्वासित कर दिए गए। स्विटसरलैंड तथा नीदरलैंड में वे डीडेन (पगन) नाम से पुकारे जाते हैं और उत्तरी जर्मनी, डेनमार्क तथा स्विडन में उनका नाम तातर (तारतार) है। जर्मनी में प्राय: उनका नाम जिगूनर है, जो इटली के जिंगारो या जिंगानो, स्पेन के जिंगारो या जिटानो, हंगरी के सिगनी, तुर्की के शिंगने से भिन्न नहीं है। वे अपने को रोम कहते हैं और उनकी भाषा का नाम रोमणी है। यूरोप में जिप्सियों की संख्या अनुमानत: ७, ५०, ००० है, किंतु के रूमानिया, हंगरी, यूरोपीय टर्की और बाल्कन राज्यों में विशेष रूप से बहुसंख्यक हैं। स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली और ग्रेट ब्रिटेन में भी सहस्रों की संख्या में ये लोग बसे हुए हैं। पूरे यूरोप मे उनकी भाषा का मूल रूप एक सा है, जो भारतीय भाषा के अत्याधिक निकट है, यद्यपि भाषा पर उन जातियों का भी व्यापक प्रभाव पड़ा है, जिनके संपर्क में वे रहे हैं।

जिप्सी जिन जातियों के संपर्क में रहते हैं, उनसे अपनी शारीरिक रचना, जाति और भाषा के भेद से वे अलग दिखाई देते हैं। वे प्राय: शरीर के दुर्बल और चुस्त होते हैं। देह का रंग भूरा, आँखे बड़ी बड़ी काली और चमकदार होती हैं। इनके बाल लंबे, गहरे काले और घुँघराले होते हैं। जिप्सियों के मुख छोटे और सुंदर आकृति के होते हैं। अब वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इन घुमक्कड़ लोगों का मूल न तो यूरोप में है और न ही अफ्रीका में, वरन् यह किसी भारतीय आदिवासी जाति के अवशेष हैं। यह निष्कर्ष इस बात से और भी स्पष्ट होता है कि उनकी भाषा नि:संदेह संस्कृत से निकली मालूम होती है, यद्यपि अब उसमें ग्रीक, रूमानिया, मगयर, जर्मन, फ्रांसीसी और अंग्रेजी भाषाओं के शब्द मिल गए हैं।

जिप्सियों का संघटित रूप यूरोप में सर्वप्रथम १५ वीं शताब्दी के आरंभ में प्रकट हुआ और इटली में सन् १४२२ में इनकी संख्या लगभग १४,००० थी। पाँच वर्ष पश्चात् वे प्रथम बार पेरिस में दिखाई दिए। उस समय वे कहा करते थे कि हम मिस्र के ईसाई हैं और हमे सारासेंस से भागकर यूरोप आना पड़ा है। कुछ ही समय पहले उन्होंने बोहेमिया छोड़ा था। अपने कथन के अनुसार वे एक प्रकार की तपस्या कर रहे थे, जिसका आदेश उन्हें पोप मार्टिन पंचम ने उन पापों की शुद्धि के लिये दिया था, जो उनहोंने अपनी यात्रा के दौरान किए थे१ आदेश यह ¾ कि वे निरंतर सात वर्ष तक बिना शयन किए संपूर्ण पृथ्वी पर करें। उन्हें पेरिस नगर के बाहर बसने की अनुमति मिल गई, किंतु ¾ जब इन लोगों ने हस्तसामुद्रिक और भविष्यवाणी का पेशा अपनाया, तो वहाँ के धर्माध्यक्ष ने उन्हें उस स्थान से निष्कासित कर दिया और राजकठोर उन तमाम नागरिकों को धर्म से बहिष्कृत कर दिया, जिन्होंने जिप्सियों की साथ से संपर्क रखा था। वे चोर प्रकृति के व्यक्ति थे और यूरोप में जहाँ तहाँ ¾ वे गए, उनका तिरस्कार किया गया। उनके विरुद्ध नियम भी बनाए गए किंतु सब व्यर्थ रहे। फ्रांस के सम्राट फ्रांसिस प्रथम ने उन्हें तुरंत देश छोड़ने का ओदश दिया। आलींस के स्टेट्स जनरल ने उन्हें सदैव के लिये अपनी भूमि से बाहर कर दिया। १५ वीं शताब्दी के मध्य में पोप पायस द्वितय ने उन्हें काकेशस से आए हुए चोर बताया। १४९२ में ये लोग स्पेन से निकाल बाहर किए गए और १० वर्ष पश्चात् पुन: यही आदेश दोहराया गया। रानी एलिजबेथ ने हेनरी अष्टम की भॉति उनके विरुद्ध कदम उठाया। स्काटलैंड में उन्हें शरण दी गई और उनकी सुरक्षा का प्रबंध किया गया। छोटे से मिस्र के सम्राट् जान फा ने अपनी जिप्सी प्रजा पर नियंत्रण का कार्य आरंभ किया। जर्मनी ने उन्हें निष्कासित करने का प्रयत्न किया और मारिया थेरेसा ने १७६८ में उन्हें प्रदेश में बसाया तथा कृषि के लिये भूमि प्रदान की। यह कदम सफल नहीं हुआ, लेकिन जोसेफ द्वितीय ने बहुत प्रयत्न करके, उन्हें बसाया, उन्हें व्यापार-पद्धति सिखाई; और उनके बच्चों की शिक्ष का प्रबंध किया। अब वे पहले की भाँति खानाबदोश नहीं रह गए हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि उनमें सभ्यता की चेतना जगी है और कृषि का उन्होंने बुद्धिमत्ता से उपयोग किया है।