जिजिया, खराज इस्लामिक विधान के नियमों के अनुसार गैरमुस्लिमों (या जिम्मी, अर्थात् कुरान के स्थान पर अन्य धर्मपुस्तकों में विश्वास रखनेवालों) पर लगाए जानेवो दो मुख्य कर। मुसलमानों पर दो विशेष कर जकात और उश्र होते थे। जिजिया प्रति पुरुष (या प्रति मुंड) कर है तथा जकात से बिल्कुल भिन्न है, जो वास्तव में भूमि को छोड़ अन्य संपतित पर कर है। प्रत्येक बालिग जिम्मी को, जा शरीर से पूर्णतया असमर्थ तथा दरिद्र नहीं है, जिजिया देना पड़ता था। केवल तीन दर्रे अनुमोदित हैं ¾ निर्धनों को १२ दिरहम, मध्यम वर्ग को २४ दिरहम तथा धनवानों को ४८ दिरहम वार्षिक देना पड़ता था। खरज एवं उश्र स्वभावत: अनुरूप हैं। दोनों ही भूमिकर हैं, किंतु खराज की दर्रे उश्र से सदैव मूलत: अधिकतम रही हैं। इस प्रकार जब उश्र में एक मुसलमान को अपनी भूमि के उत्पादन के १/५ से कम नहीं हो सकती, यद्यपि यह आधे से या दो तिहाई से अधिक भी न होनी चाहिए।
यह वास्तव में मन: कल्पित और भावनात्मक कर व्यवस्था है, और समय समय पर स्वयं मुस्लिम स्मृतिज्ञों को भी इसमें हेरफेर स्वीकार करना पड़ा। मावर्दी का कथन है कि जब कोई जिम्मी खराज देता है, तब उससे जिजिया नहीं लेना चाहिए। मुसलमान का उश्र (न कि खराज) देने का अधिकार इस सिद्धांत से कम कर दिया कि यदि किसान मुसलमान है तो भी उसे उस भूमि पर खराज देना पड़ेगा जो मुसलमानों के पूर्वकाल की खोदी हुई नहरों से सींची जाती है, या वह भूमि किसी ऐसे गैरमुस्लिम के अधिकार में थी जो खराज अदा करता था, या जो भूमि से सटी हुई है। इन परिस्थितियों में कठिनता से कोई मुसलमान खराज से मुक्ति पाता होगा।
व्यावहरिक रूप से इस्लाम की प्रारंभिक शताब्दियों में यह कर-व्यवस्था और भी गूढ़ थी। यथार्थ में वैलोसन का यह मत था कि जिजिया एवं खराज मूलत: एक ही कर के नाम हैं, जो गैरमुस्लिमों के समुदायों पर पिंडराशि में लगाया जाता था। और आठवीं शताब्दी के मध्य से कुछ समय पूर्व ही ये कर पहली बार अलग अलग लगाए गए। हाल के अनुसंधानों से यह स्पष्ट हुआ है कि यद्यपि दोनों शब्द ¾ जिजिया और खराज ¾ पूर्वकाल में आपस में परिवर्तनशील थे, तथापि प्रति पुरुष कर की, अरबों की प्रारंभिक विजयों के समय से, भूमिकर से अलग सत्ता रही है, क्योंकि यह सासानी एवं बाइजेंटाइन साम्राज्यों में भी प्रचलित था। परंतु जिजिया की दरें किसी भी प्रकार एक सी न थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस्लाम के आरंभ के दिनों में यह मुख्यत: अकृषक जनता पर लगाया जानेवाला एक अलग कर था।
मध्यकालीन भारत में खराज का प्रयोग सदैव ''माल'' अथवा भूमिकर के पर्यायवाची के रूप में किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमिराजस्व की दरों के संबंध में मुसलमान और गैरमुसलमान कृषकों में कोई पक्षपात नहीं हुआ। इसके विपरीत जिजिया का अपना इतिहास है। यह प्रथम बार मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंघ की विजय के समय लगाया गया (७१२-१३) और इस प्रकार पारसियों की भाँति हिंदुओं को भी जिम्मी समझा गया। दिल्ली सुल्तानों ने इसे प्रचलित रखा और फिरोज तुगलक (१३५१-८८) ने इसको ब्राह्मणों पर भी लगा दिया, जिन्हें अब तक छूट थी। अकबर ने १५६४ में जिजिया लेना समाप्त कर दिया। १६७९ में जब औरंगजेब ने इसे पुन: लगाया तब इसकी वसूली का प्रबंध विशेष महत्वपूर्ण ढंग से किया गया। समस्त शहरी एवं ग्राम्य गैर मुस्लिम जनता को जिजिया देना पड़ता था, केवल उन लोगों को छोड़कर जो विधित: मुक्त थे। इसकी वसूली से लोगों को बहुत कष्ट हुआ तथा भ्रष्टाचार फैला। १७१३ में फर्रुखसियर द्वारा यह रोक दिया गया और अंत में इसकी समाप्ति १७१९ में फर्रुखसियर, द्वारा यह रोक दिया गया और अंत में इसकी समाप्ति १७१९ में मोहम्मद शाह द्वारा हुई।
सं.ब्रं - एफ. लोकगार्ड: इस्लामिक टैक्सेशन इन दि क्लासिकल पीरियड, कापेन्हेगेन, १९५०; आर.सी. डेगेट : कन्वेंरान ऐंढ पोल टैक्सेशन इन अलीं (इरफान हबीब)