जायान (सियोन) येरुसलेम की पूर्वी पहाड़ी की दक्षिणी ढलान पर यबूसी जाति का किला (सियोन का अर्थ किला है), जिसपर दाऊद ने अधिकार कर लिया था और जिसे उन्होंने अपना निवासस्थान बनाया था। आगे चलकर यह शब्द येरुसलेम अथवा उसके निवासियों के लिये प्रयुक्त होने लगा, काव्य में इसका अर्थ प्राय: येरुसलेम में याहवे का निवासथान अर्थात् मंदिर है। अन्यत्र इसका अर्थ ईश्वर का प्रजा अर्थात् इसराएल ही है। बाद में (और आजकल तक) येरुसलेम के दक्षिणी पश्चिमी भाग को भी सियोन कहा गया है।
जायन आंदोलन ¾ अपनी प्राचीन मातृभूमि फिलिस्तीन (जायन, इसराएल) में यहूदियों के पुनर्वास का आंदोलन इस आंदोलन के अनेक कारण है।
(१) धार्मिक कारण ¾ छठी श. इ. पूर्व में यहूदी जाति को बाबुल में निर्वासित किया गया था।। उस समय से धर्मपरायण यहूदी यह आशा करते चले आ रहे हैं कि किसी दिन इसराएल को संसार के अन्य स्वतंत्र राष्ट्रों में अपना उचित स्थान प्राप्त होगा। बाइबिल में नबियों की उक्तियों का वही अर्थ लगाया जा सकता है। किंतु ईसाई धर्मपंडितों के अनुसार नबियों की वे भविष्यवाणियाँ ईसामसीह द्वारा स्थापित ईश्वर के राज्य (चर्च) से संबंध रखती हैं। धार्मिक जायनवादियों का विचार है कि नदियों की प्रतिज्ञाएँ अब तक पूरी नहीं हुई और अब यहूदियो के लिये अपनी प्राचीन मातृभूमि में लौटने का समय आ गया है। मध्यकाल में सर्वश्रेष्ठ इब्रानी कवि हालेवी (१०७८ ई.) ने उस धार्मिक प्रयाण को जाग्रत करने का प्रयास किया था।
(२) आर्थिक और सामाजिक कारण ¾ बहुत से देशों में समय समय पर यहूदी विरोधी आंदोलन हुए हैं और यहूदियों पर आर्थिकि तथा सामाजिक क्षेत्रों में अत्याचार किया गया है। आधुनिक राष्ट्रवादी विचारधाराओं के कारण यहूदियों को विदेशी कहकर संदेह की दृष्टि से देखा गया। यद्यपि बहुत से यहूदियों ने अपने को उन देशों के अनुकूल बना लिया है जहाँ वे रहते थे, तथापि अपने विरुद्ध भेदभाव देखकर दूसरे यहूदियों का विचार रहा कि हमारी समस्याओं का एकमात्र समाधान यह है कि हम अपने ही देश में अलग रहकर एक यहूदी राष्ट्र में सम्मिलित हा जाएँ।
(३) राजनीतिक प्रभाव ¾ मोसस मोंटेफिओरे, डिसराएली और मोसम हेस आधुनिक जायन आंदोलन के प्रथम प्रोत्साहक हैं। थेओडोर हेजेंल ने (मृत्यु १९०४ ई.) उस आंदोलन को राजनीतिक रूप देकर कूटनीतिक उपायों यहूदियों को कोई क्षेत्र दिलाने का प्रयास किया। उसका विरोधी खोइम वाइजमैन फिलिस्तीन देश में यहूदियों के उपनिवेश बसाने के पक्ष में था। बालफोर ने १९१७ ई. में ब्रिटेन की ओर से प्रतिज्ञा की थी कि यहूदियों को फिलिस्तीन में अपना राष्ट्रस्थापित करने की अनुमति मिलेगी। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् फिलिस्तीन को ब्रिटेन के शासन में दिया गया और यहूदी हरबर्ट सामुएल को वहाँ का उच्चायुक्त बनाया गया, जिससे बहुत से यहूदी जाकर बस गए। उनकी संख्या रूसी साम्यवाद तथा जर्मन हिटलरवाद के कारण बहुत बढ़ गई। यहूदी आवासियों और अरबी निवासियों में तनाव बढ़ जाने के डर से ब्रिटिश शासन जायन आंदोलन में बाघा उपस्थित करता रहा।
द्वितीया महायुद्ध के बाद तनाव फिर बढ़ गया। एक ओर यहूदी आवासी बड़ी संख्या में आए जो ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत फिलिस्तीन में एक डोमिनियन स्थापित करना चाहते थे किंतु ब्रिटेन ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। दूसरी ओर अरब लोग समस्त फिलिस्तीन में एक ही स्वतंत्र अरबी राज्य का दावा करते थे। सन् १९४७ ई. में एक ही स्वतंत्र बरबी राज्य दावा करते थे। सन् १९४७ ई. में संयुक्त राष्ट्रों की विशेष समिति ने फिलिस्तीन के विभाजन का निर्णय किया, अगले दिन ही (३० नवंबर) अरबों और यहूदियों के बीच युद्ध छिड़ गया। इतने में अधिकांश फिलिस्तीन यहूदियों के हाथ में आ गया था। अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस ने वर्तमान विभाजनरेखा की सुरक्षा का भार स्वीकार कर लिया किंतु अब तक अरबों तथा यहूदियों में शांति स्थापित करने के सभी प्रयत्न निष्फल रहे। युद्धविराम के बाद बहुत से यहूदी फिलिस्तीन के यहूदी अंग अर्थात् इसराएल में आकर बस गए किंतु जो अरब उस क्षेत्र से भाग गए वे कभी वापस नहीं जा सके और जार्डन में शरणार्थी रूप में रह रहे हैं। अब तक फिलिस्तीन की परिस्थिति विस्फोटक ही है। (आस्कर वेरक्रूसे.)