जांभॅकर, बाल गंगाधर (जन्म स. १८१२; मृत्यु स. १८४६) का जन्म राजापुर जिले के पोंवर्ले गाँव में हुआ था। उनके पिता अच्छे वैदिक थे। अध्यापकों में बापू छत्रे तथा बापू शास्त्री शुक्ल थे।

दादोबा पांडुरंग ने अपनी आत्मकथा में उनकी अद्भुत स्मरणशक्ति के संबंध में एक प्रसंग का उल्लेख किया है ¾

एक बार उन्होंने दो गोरे सिपाहियों को लड़ते हुए देखा। अदालत में उनको गवाह के रूप में उपस्थित होना पड़ा। यद्यपि उन्हें उस समय तक अंग्रेजी नहीं आती थी, उन्होंने केवल अपनी स्मरणशक्ति से उनके संभाषण को तथ्यत: उद्धृत किया। प्रो. आर्लिबार से उन्होंने गणित शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया। स. १८२० में अध्ययन की समाप्ति के बाद वे एल्फिंस्टन कॉलेज में अपने गुरु के सहायक के रूप में गणित के अध्यापक नियुक्त हुए। १८३२ में वे अक्कलकोट के राजकुमार के अंग्रेजी के अध्यापक के रूप में भी रहे। इसी वर्ष भाऊ महाजन के सहयोग से उन्होंने 'दर्पण' नामक अंग्रेजी मराठी साप्ताहिक चलाया। इसमें वे अंग्रेजी विभाग में लिखते थे। वे अनेक भाषाओं के पंडित थे। मराठी और संस्कृत के अतिरिक्त लैटिन, ग्रीक, इंग्लिश, फ्रेंच, फारसी, अरबी, हिंदी, बंगाली, गुजराती तथा कन्नड भाषाएँ उन्हें आती थीं। उनकी यह बहुमुखी योग्यता देखकर सरकार ने 'जस्टिस ऑव दि पीस' के पद पर उनकी नियुक्ति की (१८४०)। इस नाते वे हाईकोर्ट में ग्रांड ज्यूरी का काम करते थे। १८४२ से १८४४ तक एज्युकेशनल इन्सपेक्टर तथा ट्रेनिंग कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में भी रहे। १८४० में 'दिग्दर्शन' नाम की एक मासिक पत्रिका भी उन्होंने शुरू की। इसमें वे शास्त्रीय विषयों पर निबंध लिखते थे। ग्रहण से संबंधित वास्तविकता अपने भाषाणों में प्रकट करने तथा श्रीपाद शेषाद्रि नामक ब्राह्मण को ईसाई धर्म से पुन: हिंदूधर्मं में लेने के कारण वे जातिबहिष्कृत कर दिए गए थे। महाराष्ट्र के वे समाजसुधारक थे।

उन्होंने इतिहास और गणित से संबंधित विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी तथा जिऑग्राफिकल सोसाइटी में पढ़े गए शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों से संबंधित उनके निबंध अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। शिलालेखों की खोज के सिलसिले में जब वे कनकेश्वर गए थे, वही उन्हें लू लग गई। इसी में उनका देहावसान हुआ। सच्चे अर्थ में उन्होंने अपने कर्म में अपने जीवन का समर्पण किया था। (हरिअनंत फड़के)