जहाँआरा पादशाह बेगम या बेगम साहब के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म अजमेर में २३ मार्च, १६१४ ई. को हुआ था। ये शाहजहाँ तथा मुमताजमहल की जीवित संतानों में सबसे बड़ी थीं। इनकी शिक्षा सती उन्निसा खानम की देखरेख में हुई। जहाँआरा फारसी गद्य और पद्य की तथा हिकमत (वैद्यक) की भी अच्छी ज्ञाता तथा धर्मपरायण थीं।

शाहजहाँ इनका बड़ा आदर करता था। मुमताजमहल की मृत्यु के बाद (७ जून, १६३१) अगले २७ वर्षों के लिये यही बादशाह की सबसे अधिक प्रतिष्ठापात्री रहीं। मार्च, १६४४ में आग से बुरी तरह जल जाने के कारण इन्हें चार महीनों तक मृत्यु से घोर संघर्ष करना पड़ा।

४४ वर्ष की उम्र तक इनका जीवन परम सुखमय रहा। भारत के दूसरे भागों के स्वाधीन शासक, मुगल साम्राज्य के अधीन राजकुमार, शाही परिवार के सदस्य तथा राज्य के अन्य कुलीन व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर इनकी मध्यस्थता स्वीकार करते थे और इसके लिये उन्हें कभी निराशा नहीं हुई। इनके पास अपार धन था परंतु उसका तथा अपने प्रभाव का उपयोग इन्होंने सदा दूसरों के उपकार के लिये ही किया। शाही परिवार में तो इनका कार्य ही शांतिदूत का था और इनके भाई कठिनाई के समय इन्हीं से अपना दुखड़ा रोते थे।

सन् १६५७ जहाँआरा के लिये परीक्षाकाल बनकर आई, जब इनके चारों भाई राजसिंहासन के लिये परस्पर लड़ने लगे। ये स्वयं दाराशिकोह के पक्ष में थीं जिसे शाहजहाँ ने भी चुन रखा था। धर्मत के युद्ध के बाद इन्होंने औरंगजेब को पत्र लिखकर मेल कराने का प्रयास किया जो व्यर्थ गया। आगरे से दस मील पूर्व सामूगढ़ में हारने के बाद दाराशिकोह दिल्ली की ओर निकल भागा। औरंगजेब ने अपने पिता को आगरे के किले में बंदी बना लिया। जहाँआरा अपने विजयी भाइयों से (औरंगजेब व मुराद बख्श) १० जून, १६५८ को उनके शिविर में मिली और मुगल साम्राज्य को चारों भाइयों में शांतिपूर्वक बाँट देने का प्रस्ताव रखा, परंतु वह असफल रहीं।

शाहजहाँ के औरंगजेब द्वारा बंदी बनाए जाने पर जहाँआरा ने अपने पिता का ही साथ देना उचित समझा और साढ़े सात वर्षों तक - जनवरी, १६६६ ई. जब शाहजहाँ की मृत्यु हुई - वे सेवा में रत रहीं। तदनंतर औरंगजेब ने उनकी वृत्ति दुगुनी कर दी और यथापूर्व सम्मान दिखाया।

अपने जीवन के चरमोत्कर्ष काल में ही जहाँआरा लाहौर के संत मियाँमीर की शिष्या बन गई थीं। इन्होंने शेख मुईनुद्दीन चिश्ती का जीवन और उनके उपदेशों का अध्ययन किया और फारसी में मुनीस उल-अखाह नामक एक छोटा सा विवरण भी लिखा।

६ सितंबर, १६८१ को जहाँआरा स्वर्गवासिनी हुईं और दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया की समाधि की छाया में इन्हें दफना दिया गया। सं. ग्रं. - १. जियाउद्दीन अहमद बरनी : जहाँआरा बेगम, कराची १९५५; वी. पी. सक्सेना : हिस्ट्री ऑव शाहजहाँ ऑव देहली, इलाहाबाद १९५८; अब्दुल हमीद लाहौरी : बादशाहनामा, कलकत्ता, १८६७-६८, बनिंयर : ट्रैवेल्स इन द मोगल एंपायर, संपादित आचींबल्ड कांसटेबिल, द्वितीय संस्करण १९१६। (मोहम्म्द यासीन)