जस्ती इस्पात (Galvanised Steel) सादे इस्पात के बने हुए पतले तारों और चादरों को संक्षरण से बचाने के लिये इस्पात की किसी संक्षरणरोधी धातु की पतली परत से ढका जाता है। इस कार्य के लिये जो धातुएँ उपयोग में आती हैं उनमें जस्ता और वंग (Tin) मुख्य हैं। जस्ता सबसे सस्ती धातु पड़ती है।

इस्पात पर जस्ता चढ़ाने की चार विधियाँ हैं :

१-उष्ण निमज्जन प्रक्रिया (Hot Dip process);

२-विद्युद्विश्लेषीय रीति से जस्ते का मुलम्मा चढ़ाना (Electrolytic Zinc Plating);

३-शेरार्डीकरण (Sherardising) तथा

४-उष्ण धातु का फुहारा देना (Spraying of Hot Metal)।

उष्ण निमज्जन - यह सबसे अच्छी विधि है। यदि उचित ढंग से मुलम्मा चढ़ाया जाय तो वायुमंडल में खुला रखने के लिये सर्वश्रेष्ठ मुलम्मा इस विधि से चढ़ता है।

इसके लिये पिटे लोहे, या मृदु इस्पात, का एक पात्र आवश्यक होता है, जिसमें पिघला स्पेल्टर रखा जा सके। इस पात्र को नीचे से गरम कर जस्ते को पिघलाते हैं। जिन पात्रों पर जस्ता चढ़ाना होता है, उन्हें पहले अम्ल से, पीछे जल से धोकर सुखाते और तब द्रावक के साथ उपचारित कर पिघले जस्ते में डुबा देते हैं। लोहे की सतह पर यदि बालू के कण चिपके हों तो ५ प्रतिशत हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से प्रारंभ में उपचारित कर लेते हैं। अम्लमार्जन के पश्चात् आक्सीकरण से बचाने के लिये, उसे पानी में डुबाकर रखते हैं। जस्ता-उष्मक पर तैरते हुए द्रावक स्तर पर ले जाने के पूर्व, इस्पात की ऊपरी सतह के आक्साइड को ५ से २० प्रति शत तक के जिंक ऐमोनियम क्लोराइड के विलयन से पारित कर दूर कर लेते हैं।

जस्ता उष्मक का ताप ४२५° से ४६०° सें. तक रह सकता है। जस्ती तार बनाने की विधि यह है कि उर्ध्वाधर तर्कु (spindle) से इस्पात के तार को पहले सोस उष्मक में ले जा कर तार का ऐनीलीकरण करते हैं और फिर क्रमश: उष्ण हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में ले जाते, पानी से धोते, और ज़िंक क्लोराइड के द्रावक उष्मक में ले जाते हैं। तब उसे जस्ता उष्मक में ले जाकर निमज्जक छड़ों द्वारा सतह के नीचे रखते हैं। उष्मक से निकालकर इसे ऐस्बेस्टस के गुद्दों या काठ कोयले के संस्तर से पारित करते हैं और पानी के फुहारे से ठंडा कर गड़ारी (reel) पर लपेटते हैं। चादर की जस्ती बनाने के लिये भरणरोलों (feeding rolls) से चादरें निकालकर द्रावक उष्मक में और द्रावक स्तर से होते हुए जस्ता उष्मक में ले जाते हैं। पार्श्वनियामक (side guide) और निचले रोलों द्वारा चादरें पिंच (pinch) रोलों में जाती हैं, जो अंशत: उष्मक में डूबे रहते हैं और वहाँ से निकलकर वे शीतक वाहक (cooling conveyors) मे जाती हैं। समतल करनेवाले रोलों (rolls) से निकलने के बाद चादरें आवश्यक विस्तार में काट ली जाती हैं।

जस्ती पाइप का द्रावक धावन (flux wash) करते हैं और उसे जस्ता चढ़ानेवाली केटली के द्रावक स्तरों से पारित करके लपेटते हैं। पाइप को ऐसे रखते हैं कि उसके आभ्यंतर भाग से अधिक से अधिक जस्ता बहकर निकल जाय। अम्लमार्जन और द्रावक उपचार के बाद छोटे छोटे खंडों और लोगों (fixtures) को पिटकों में रखते और पोछते हैं। मैल की निकासी और पोंछाई से कितना जस्ता नष्ट होता है, यह वस्तु की किस्म पर निर्भर करता है।

जस्ता शीघ्रता से लोहे के साथ मिश्रधातु की परत बनाता है। इस्पात के तुंरत बाद Fe3Zn10 के निक्षेप का पतला कठोर निक्षेप रहता है। दूसरा यौगिक FeZn7 होता है, जो जस्ते के लेप को चिपकाता है। यह FeZn13 से घिरा हुआ रहता है, जो विसरण की दर (disffusion rate) को सीमित करता है। बाह्य भाग पर शुद्ध जस्ते की परत रहती है।

जस्ती लेप का बाहरी रूप जस्ते की सतह की परत के मणिभीकरण की प्रकृति से निर्धारित होता है, जो अधिकांश शीतलन की दर पर निर्भर करता है। जस्ते में वंग की उपस्थिति से लेप की एकरूपता और चिपकने का गुण बढ़ जाता है। जसते के ऊष्मक (bath) में ०.१ प्रति शत, या इससे कम सांद्रण में, ऐल्यूमिनियम की उपस्थिति का उपयोग बहुत बढ़ गया है। इसे सतह के नीचे इसलिये डाला जाता है कि गलन के द्रावक से इसकी प्रक्रिया तेजी से होकर परिचालन की कठिनाइयों को न बढ़ाए। जस्ती गलन की तरलता को ऐल्यूमिनियम सरलता से बढ़ा देता है, अत: इसका उपयोग अनियमित आकार की झिरी या तरेड़ (slot or crevices) वाली वस्तुओं के लेप में होता है, जहाँ अन्य विधि से जस्ते के पहुँचने में कठिनाई होती हैं।

कोई भी वस्तु, जो जस्ते के सतह तनाव को बदल सकती है चमक का नियंत्रण करती है। इसमें निम्ललिखित बातें महत्व रखती हैं : १, इस्पात की किस्म, २. अम्लमार्जन की विधि और कोटि, ३. चादर का ऐनीलीकरण करनेवाले द्रव्यों की भिन्नता, ४. चादर की सतह की दशा, ५. उपयोग में आए स्पेल्टर की किस्म, ६. जस्ता चढ़ाने के ऊष्मक का ताप, ७. जस्ते में चादर में निमज्जन का समय तथा ८. जस्ता चढ़ाने की रीति।

विद्युद्विश्लेषीय या जस्ती मुलम्मा प्रक्रिया - कुछ किस्म के पदार्थों पर जस्ता चढ़ाने के लिये शीतक या विद्युत्मुलम्मा प्रक्रिया आजकल काम में आती है। इस विधि के लाभ ये हैं : १. जस्ते के उपयोग में मितव्ययिता; २. लेप की वांछित मोटाई पर एक सीमा तक नियंत्रण; ३. शुद्ध जस्ते के लेप का चढ़ना; ४. इस्पात की कमानी जैसी वस्तुओं के लिये, जो उष्ण विधि में पिछले जस्ते के ताप से प्रभावित हो सकती है, इसकी उपयुक्तता तथा ५. सपाट सतह के लेप में विकृत और टेढ़ा मेढ़ा होने का अभाव, जैसा उष्ण विधि में देखा जाता है।

इस विधि के दोष ये हैं: १. उष्ण विधि की अपेक्षा अधिक समय का लगना, २. मोटे अस्पंजीय लेप प्राप्त करने में कठिनता, ३. उष्ण मुलम्मे की तरह लेप का चमकदार न होना, ४. ठीक ठीक लेप प्राप्त करने में उष्ण विधि की अपेक्षा अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता और अधिक कठिनाइयों का सामना पड़ना तथा ५. जलाभेद्य बर्तनों के निर्माण में विद्युद्विश्लेष्य विधि का झलाई में उतना प्रभावशाली न होना जितना उष्ण विधि का। सभी विद्युद्विश्लेषिक विलयनों का आधार ज़िंकसल्फेट है।

शेरार्डीकरण - इस विधि में लेप की जानेवाली वस्तु को धातु के ड्रम या बक्स में जस्ताचूर्ण से घेर कर, जिसमें धात्विक जस्ता रहता है, गरम करते हैं। यह विधि विशेष रूप से उन वस्तुओं के लिये उपयुक्त है जिनपर संरक्षण के लिये बहुत पतला लेप आवश्यक होता है और जहाँ पात्रों पर नक्काशी, प्रतिरूप एवं रूपांकन को ज्यों का त्यों रखना होता है। इसमें यही दोष है कि छोटी मोटी वस्तुओं पर ही इससे जस्ता चढ़ाया जा सकता है।

धातु फुहार - इस विधि में पहले से स्वच्छ किए हुए उष्ण इस्पात पर पिघले जस्ते की हल्की फुहार एक विशेष प्रकार की धातु की पिचकारी से की जाती है। बड़े बड़े पात्रों पर जस्ता चढ़ाने के लिये यह सुगम विधि है। इस लेप से इस्पात के साथ मिश्रधातु नहीं बनती।

जस्ती लेप की आयु - साधारण जस्ती लेप वायुमंडलीय तथा द्रव संक्षारण के प्रति खुले रहते हैं और मिट्टी के संक्षारण के प्रति कम मात्रा में खुले रहते हैं। इनका वायुमंडलीय संक्षारण प्रतिरोध हवा के अम्लीय पदार्थों, जैसे औद्योगिक स्थानों पर सल्फर डाइआक्साइड, लवणीय जल की झीलों या समुद्रों के पास सोडियम क्लोराइड, के प्रति संदूषण पर निर्भर है। इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक क्षेत्रों की अपेक्षा जस्ती लेप की आयु ४ से लेकर १० गुना तक अधिक होती है। द्रव में, या द्रव द्वारा, जस्तीकृत चादरों के संक्षारण की मात्रा संक्षारक माध्यम के हाइड्रोजन आयन की सांद्रता पर निर्भर करती है। पीएच ६ और १२ के बीच संरक्षी फिल्म स्थायी होता है। पीएच के ४ और १२.५ हो जाने से चादरें शीघ्रता से आक्रांत होती हैं। प्रबल खनिज अम्लों के कुछ लक्षणों, विशेषत: क्लोराइड और नाइट्रेट वाले लवणों के विलयन में जस्ता शीघ्रता से घुल जाता है।

जस्ती लेप का परीक्षण और उसके दोष - जस्ती चादरों के रासायनिक, चुंबकीय, सूक्ष्मदर्शीय तथा भौतिकी परीक्षण किए जाते हैं।

अपलेपन परीक्षण (test) रासायनिक है और यह जस्ती लेप के जस्ते के भार के अंतर पर आधारित है, जो परीक्षण के समय विलीन हो जाने से होता है। बिना वस्तु को नष्ट किए चुंबकीय परीक्षण द्वारा लेप की मोटाई निर्धारित की जाती है। जस्ते का लेप अचुंबकीय होने के कारण चादर के संघनित्र परिपथ (condenser circuit) की चादर के लेप की मोटाई के अनुसार प्रेरणा (induction) में परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन मापा जाता है और उससे गणना कर मोटाई ज्ञात की जाती है। ठीक ठीक निक्षारित आड़ी काट (etched cross section) के सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन से लेप की मोटाई और बनावट प्रकट होती है। भौतिक विधियों में लेप को बिना हटाए चादर में सामान्य रूप में मोड़ने, गोठने (beading), किनारे दबाने और खींचने से जो विरूपता आती हैं, उसका निर्धारण होता है।

बार बार सामने आनेवाले दोषों में मुख्य दोष फफोला पड़ना है। ये फफोले अत्यंत सूक्ष्म आकार से लेकर बड़े बड़े आकार तक के हो सकते हैं और चादर की सतह पर न्यून स्थान बृहत स्थान तक घेरते हैं। इस्पात की सतह के असातत्य (discontinuities) के कारण हाइड्रोजन एकत्र होता है और उससे फफोले बनते हैं। दूसरा दोष लेप का धूसर होना है। इसमें क्षेत्र धूसर रग का हो जाता है, जिसमें मणिभ या तो बिल्कुल होते नहीं, अथवा सामान्य विस्तार से छोटे होते हैं। इस दोष के निश्चित कारण हैं : (1) लोहे में अधातु पदार्थों का रह जाना और (2) जस्ता ऊष्मक से निकलने पर चादर का बड़ा तीव्र गति से ठंढा होना। जस्ता चढ़ाने में विशेष सावधानी बरतकर इन दोषों का निवारण किया जा सकता है। (हृषिको त्रिवेदी)