जयसिंह, मिर्जा राजा आमेर के कछवाहा वंश के प्रसिद्ध राजाओं में मिर्जा राजा जयसिंह का नाम अग्रगण्य है। इसका जन्म सन् १६११ में हुआ। अत्यधिक मदिरापान के कारण चाचा भावसिंह की मृत्यु होने पर, जयसिंह गद्दी पर बैठा और जहाँगीर ने उसे दो हजारी मनसबदार बनाया। जहाँगीर की मृत्यु होने पर समझदार जयसिंह ने शाहजहाँ का साथ दिया। नए बादशाह ने उसे चार हजारी मनसबदार बनाया। बल्ख जीतने के लिए जब शाहजादे औरंगजेब की नियुक्ति हुई, जयसिंह उसकी सेना के बाएँ पार्श्व का नायक बना। औरंगजेब के कंधार पर आक्रमण के समय जयसिंह को हरावल में रखा गया जो उसकी बहादुरी और सैन्य संचालन का और भी अच्छा प्रमाण है। दाराशिकोह के कंधार पर आक्रमण के समय भी जयसिंह उसके साथ था। सन् १६५७ में शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर जब शाहशुजा बंगाल से दिल्ली की ओर बढ़ा तो जयसिंह को छह हजारी जात की मनसब देकर दारा के पुत्र सुलेमान शिकाह के साथ बनारस की ओर भेजा गया। शाहशुजा बहादुरगढ़ के युद्ध में उससे हारा। इससे प्रसन्न होकर बादशाह ने उसे ७००० जात ६ हजार सवार का मनसबदार बनाया।
दारा की सेना धरमत और सामूगढ़ के युद्धों में औरंगजेब से हारी। जयसिंह को जब ये समाचार मिले तब उसने सुलेमान शिकोह का साथ छोड़ दिया और २५ जून, १६५८ ई., को मथुरा के पड़ाव पर उसने औरंगजेब की अधीनता स्वीकार कर ली। जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का भी औरंगजेब से मेल करवाने में जयसिंह का पर्याप्त हाथ था। इस समय से जयसिंह राजस्थान के नरेशों में प्रमुख गिना जाने लगा। जिस सुलेमान शिकोह की उसने सेवा की थी, उसी का पीछा करने में अब उसने औरंगजेब का सहायता दी।
सन् १६६४ में औरंगजेब ने जयसिंह को दक्षिण का सूबेदार बनाया और उसे शिवाजी को दंडित करने का काम सौंपा। शाइस्ता खाँ और महाराजा जसवंतसिंह इस कार्य में असफल रहे थे। जयसिंह को पूरी सफलता मिली। पुरंदर की संधि द्वारा शिवाजी ने कई दुर्ग औरंगजेब को सौंप दिए और आगरा जाना स्वीकार किया। जयसिंह ने बहादुरी और नीतिपटुता का इस कार्य में प्रयोग किया था। बादशाह ने भी इस कार्य की कीमत समझी और जयसिंह को मुगल साम्राज्य में प्राप्त सात हजारी जात-सात हजार दो-अस्पा हजार दो-अस्पा ये से-अस्पा सवार का सबसे बड़ा मनसब मिला।
किंतु औरंगजेब की अदूरदर्शिता से शिवजी मुगल साम्राज्य का शत्रु ही रहा। जब शिवाजी बादशाही दुर्व्यवहार से असंतुष्ट हुआ तब उसे कैद में डाल दिया गया और यथा तथा जब वह वहाँ से भाग निकला तब सब दोष जयसिंह के पुत्र रामसिंह पर मढ़ा गया। जयसिंह की मृत्यु के बाद बादशाह ने रामसिंह का आसाम युद्ध में भेज दिया। वहीं उस वीर राजपूत की मृत्यु हुई।
जयसिंह का भाग्यसूर्य भी अब अस्तोन्मुख हो चला। बादशाह ने उसे बीजापुर के विरुद्ध प्रयाण करने की आज्ञा दी, किंतु अपने जीवन की इस अंतिम चढ़ाई में जयसिंह को सफलता न मिली। बादशाह रुष्ट तो था ही, अब और रुष्ट हुआ। मार्च, १६६७ ई. में जयसिंह को दक्षिण की सूबेदारी से हटाकर उस स्थान पर बादशाह ने शाहजादे मुअज्जम को नियुक्त किया। औरंगाबाद से उत्तर लौटते समय बुरहानपुर में २८ अगस्त, १६६७ का जयसिंह का देहात हुआ। उसने बड़ी ईमानदारी से औरंगजेब की सेवा की थी, अंतिम चढ़ाई में एक करोड़ अपनी जेब से भी खर्च किए थे। राज्य की सेवा उसने खाली हाथों शुरू न की थी। उसका शौर्य और चातुर्य भी अप्रतिम था। किंतु अपने जीवन के अंतिम समय मुगल बादशाह का यह सबसे बड़ा राजपूत खाली हाथ ही नहीं, ऋणी भी था। (द.श.)