जयसिंह चालुक्य बादामि के चालुक्य राजवंश की स्थापना करनेवाले पुलकेशिन् प्रथम के पितामह का नाम जयसिंह प्रथम था। यह संभवत: छठी शताब्दी के आरंभ में हुआ था। इस वंश के महाकूट स्तंभ अभिलेख (६०२ ई.) में जयसिंह के लिये सुंदर विशेषणों का उपयोग हुआ है जिनका कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं है। ११वीं शताब्दी के प्रारंभ से काल्याणि के चालुक्य राजाओं के अभिलेखों में जो अनुवृत्ति मिलती है उसमें जयसिंह के लिए कहा गया है कि देश की दीर्घकालीन तिमिराच्छन्न इतिहास का अंत कर उसने पाठ सौ हाथियोंवाली अपनी सेना की सहायता से राष्ट्रकूट नरेश इंद्र और अन्य पाँच सौ राजाओं की पराजित कर चालुक्यों की सत्ता स्थापित की। किंतु यह वर्णन ऐतिहासिक नहीं है और संभवत: तैल द्वितीय के द्वारा कल्याणि शाखा की स्थापना की अनुकृति मात्र है।

कल्याणि के चालुक्य घराने में विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के एक वर्ष के भीतर ही उसके दो छोटे भाई सिंहासल पर बैठे- अय्यन और उसके बाद जयसिंह द्वितीय। जयसिंह के विरुद्धों में जगदेकमल्ल भी है और वह जगदेकमल्ल प्रथम के नाम से भी प्रसिद्ध है। जयसिंह का नाग सिंगदेव भी था और त्रैलोक्यमल्ल, मल्लिकामोद और विक्रमसिंह उसके दूसरे विरुद्ध थे। जयसिंह द्वितीय का राज्यकाल सन् १०१५ से १०४३ ई. तक था। जयसिंह के राज्यकाल के पूर्वार्ध में अनेक युद्ध हुए। भोज परमार ने आक्रमण कर उत्तरी कोंकण की विजय कर ली थी और वह कोल्हापुर तक पहुँच गया था। उत्तर में उसकी दिग्विजय की योजनाएँ थी किन्तु उनके विषय में स्पष्टत: कुछ ज्ञात नहीं है। इन युद्धों में उसकी सफलता उसके सेनापति चावनरस, चट्टुग कदंब और कुंदमरस के कारण हुई थी। राजेंद्र प्रथम चोल की व्यस्तता से लाभ उठाकर जयसिंह ने सत्याश्रय के समय चालुक्यों के विजित प्रदेशों को चोलों से फिर से लेने के लिए और वेंगि के सिंहासन पर चोल राजकन्या की संतान राजराज के स्थान पर अपने व्यक्ति को आसीन कराने का प्रयत्न किया। इन युद्धों में भी जयसिंह को अपने सेनापतियों के कारण प्रारंभ में सफलता प्राप्त हुई। उसने रायचूर द्वाब पर अधिकार कर लिया और उसकी सेना तुंगभद्रा पार करती हुई बेल्लारि और संभवत: गंगवाडि तक पहुँच तक गई थी। दूसरी ओर वेंगि में बेजवाड़ा पर उसकी सेना ने अधिकार कर लिया और राजराज दो तीन वर्ष तक वेंगि के सिंहासन पर न बैठ सका। किंतु शीघ्र ही राजेंद्र चोल ने दोनों ही क्षेत्रों में विजय प्राप्त की। १०२२ ई. में राज-राज का वेंगि के सिंहासन के लिये अभिषेक हुआ। दूसरी ओर राजेंद्र की विजय करती हुई सेना का जयसिंह की सेना के साथ १०२०-२१ ई. में मुशंगि (मस्की) में घमासान युद्ध हुआ। विजय यद्यपि राजेंद्र की हुई और जयसिंह को युद्ध से भागना पड़ा किंतु शीघ्र ही दोनों राज्य की सीमा तुंगभद्रा बनी। जयसिंह के शासन के अंतिम २० वर्षों में उल्लेखनीय युद्ध नहीं हुआ। अभिलेखों से इस काल की शांत स्थिति का ज्ञान होता है। ऐसे तो कल्याणी चालुक्य राज्य की राजधानी बन गई थी किंतु मान्यखेट का महत्व बना रहा। इसके अतिरिक्त कई उपराजधानियों के भी उल्लेख मिलते हैं यथा, एतगिरि, कोल्लिपाके होट्टलकेरे तथा घट्टदकेरे। उसके अधीन शासन करनेवाले कुछ सामंतों के नाम हैं, कुंदमरस, सत्याश्रय, षष्ठदेव कदंब, जगदेकमल्ल नोलंब-पल्लव उदयादित्य, खेरस हैहय और नागादित्य सिंद। उसकी बहिन अक्कादेवी अपने पति मयूरवर्मन् के साथ बवासि, वेल्बोल और पुलिणेर पर राज्य करती थी। उसकी दो रानियों के नाम मालूम हैं- सुग्गलदेवी जिसके बारे में अनुश्रूति है कि उसने अपने जैन पति को शैव बनाया, और दूसरी नोलंब राजकुमारी देवलदेवी। उसकी पुत्री हंमा अथवा आवल्लदेवी का विवाह भिल्लम तृतीय सेउण से हुआ था। जयसिंह के सोने के सिक्के दो शैलियों में मिलते हैं। उसके अभिलेख उस काल की शासन-व्यवस्था के ज्ञान के लिये महत्वपूर्ण हैं। एक अभिलेख में उल्लेख है कि उसने धर्मबोलल के सोलह सेट्टियों को छत्र, चामर और शासन देकर सम्मानित किया। पार्श्वनाथ चरित और यशोधर चरित्र के रचयिता जैन विद्वान् वादिराज इसी के दरबार में थे। इनके मंत्री दुर्गसिंह ने कन्नड़ में पंचतंत्र नाम के चंपू की रचना की थी।

चोल साधनों से ज्ञात होता है कि चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम का जयसिंह नाम का एक अनुज था जो १०५१-५२ ई. में कोप्पम् के युद्ध में अन्य चालुक्य सेनापतियों के सहित राजेंद्र द्वितीय चोल के द्वारा पराजित हुआ और मारा गया। जयसिंह तृतीय, सोमेश्वर प्रथम का कनिष्ठ पुत्र सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ का अनुज था। अपने पिता के समय में वह तर्दवाडि का प्रांतपाल था। १०६१ ई. में वह कूडल् के युद्ध में वीर राजेंद्र के विरुद्ध लड़ा था किंतु चालुक्य पक्ष की गहरी हार हुई थी। सोमेश्वर द्वितीय ने सिंहासन पर बैठने पर जयसिंह को भी प्रांतों का शासन दिया। १०६८ ई. में वह कोगलि, कदंबलिगे और बल्लकुंदे पर राज्य कर रहा था। बाद में वह नोलंबवाडि और सिंदवाडि का प्रांतपाल नियुक्त हुआ जिस पद पर वह १०७३ ई. तक बना रहा। बीच बीच में उसे अन्य प्रांतों का भी अधिकार मिल जाता था। विरुद सहित उसका पूरा नाम त्रैलोक्यमल्लनोलंम-पल्लव पेर्माडि जयसिंहदेव था। विक्रमादित्य षष्ठम् और सोमेश्वर द्वितीय के संघर्ष में दोनों बार उसने विक्रमादित्य का पक्ष लिया। १०७६ ई. में वह भी विक्रमात्यि के साथ कुलोत्तुंग प्रथम, जिसने सोमेश्वर का पक्ष लिया था, के हाथों पराजित हुआ था। किंतु उसकी सहायता से विक्रमादित्य ने चोल नरेश को पराजित करके सिंहासन प्राप्त किया। विक्रमादित्य ने जयसिंह की सहायता का उचित महत्व स्वीकार किया और उसे बेल्वोल और पुलिगेरे का प्रांत दिया जो प्राय: युवराज को दिया जाता था। बाद में बनवासि और संतलिगे भी उसके अधिकार में कर दिए गए। १०८३ ई. तक जससिंह ने विक्रमादित्य की अधीनता में शासन किया। फिर उसने प्रजा को अनेक प्रकार से उत्पीड़ित करके धन एकत्र किया जिससे उसने एक विशाल सेना बनाई, चोल नरेश से भी मित्रता की, वन-जातियों से संधि की, विक्रमादित्य की सेना में फूल डालने का प्रयत्न किया और सिंहासन पर अपना अधिकार करने के लिये कृष्णा के तट पर आया जहाँ अनेक सामंत उससे मिल गए। पहले तो विक्रमादित्य ने शांतिपूर्ण उपायें स काम लेना चाहा किंतु अंत में विवश होकर उसे युद्ध करना पड़ा। जयसिंह को प्रारंभ में विजय मिलती हुई सी लगी, किंतु अंत में विक्रमादित्य की वीरता के कारण वह पराजित होकर बंदी बना। बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया। वास्तविकता कदाचित् उससे कुछ भिन्न थी; जयसिंह का इतिहास में इसके बाद कोई चिह्न नहीं मिलता।

वेंगि के चालुक्य राजवंश में भी दो जयसिंह हुए। जयसिंह प्रथम (६४१-७३ ई.) विष्णुवर्धन का पुत्र था। वह भागवत था। सर्वसिद्धि उसका विरुद था। उसके राज्यकाल की कोई राजनीतिक घटना विदित नहीं हैं। किंतु वह स्वयं विद्वान् था। असनपुर में उच्च शिक्षा का विद्यालय (घटिका) था। उसका एक अभिलेख तेलुगु के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेखों में से एक है।

मंगि युवराज विजयसिद्धि प्रथम के बाद उसके पुत्र जयसिंह द्वितीय ने ७०६ से ७१८ ई. तक राज्य किया। सर्वसिद्धि उसका भ विरुद था। (लल्लन जी गोपाल)