जयदेव नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध वह संस्कृत कवि हैं जो 'गीत गोविंद' के रचयिता हैं। गोवर्धन, धोयि शरण तथा उमापतिधर के साथ ये बंगाल के महाराज लक्ष्मणसेन (लगभग १११९ ई.-११७० ई.) की सभा के पंचरत्नों में एक माने जाते हैं। इनका जन्म बीरभूमि जिले के किंदुबिल्व (केंदुलि) गाँव में हुआ था। 'भक्तमाल' में इनकी चर्चा कृष्ण के विशिष्ट भक्तों में की गई हैं- यद्यपि उसके अनुसार इनकी जन्मभूमि पुरी के निकट विंदुबिल्व गाँव थी। कहा जाता है कि मथुरा-वृंदावन का पर्यटन करते एक बार ये जगन्नाथपुरी पहुँचे। वहाँ एक ब्राह्मण को स्वप्न हुआ कि अपनी कन्या पद्मावती का पाणिग्रहण वह जयदेव के साथ कर दे। पद्मावती से विवाह करने के बाद कवि की अलौकिक प्रतिभा निखर पड़ी। उन्होंने गीतगोविंद में पद्मावती का आभार भी स्वीकार किया है। कवि की जयंती शताब्दियों से पौष शुक्ला सप्तमी को इनके (जो अब जयदेवपुरी कहलाता है) मनाई जाती है। उस रात वहाँ इनके गीतों से कृष्ण का कीर्तन होता है।
गीतगोविंद भारतीय साहित्य का अभिज्ञान शाकुंतल और मेघदूत की भाँति महत्वपूर्ण प्रतिनिधि काव्य है। इसकी लोकप्रियता देश में है ही, विदेश में भी महाकवि गेटे जैसे गुणग्राही विद्वान् इसपर मुग्ध हैं। इसकी कई टीकाएँ उपलब्ध हैं तथा इसके अनुकरण में लिखे काव्यों की संख्या काफी है। इन अनुकरणों में विशेष उल्लेखनीय महादेव विषयक काव्य हैं। भाषा साहित्यों में मध्ययुगीन मैथिली और उसी के द्वारा बंगला, असमिया और उड़िया की वैष्णव पदावलियों का विकास गीतगोविंद की ही प्रेरणा से हुआ।
गीतगोविंद, श्रीमद्भागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण से प्रभावित है। श्रीमद्भागवत के अनुकरण में इसमें बारह सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग को कवि ने चौबीस अष्टपदियों से अलंकृत किया है। प्रत्येक अष्टपदी में ताल और राग का तथा आदि और अंत में ध्रुव के रूप में सहगान का निर्देश है। कोमल और मधुर अनुप्रासमयी शब्दावली और तुकबंदी का प्रयोग, संगीत नृत्य अभिनय के साथ मिलकर इसमें एक अपूर्व समन्वय का आविष्कार करते हैं जो संस्कृत साहित्य के इतिहास में सर्वथा नवीन है। कुछ विद्वानों का मत है कि इस कारण यह ग्रंथ मध्ययुग के संगीतबहुल यात्रा-नाटकों से प्रभावित है अथवा प्राकृत भाषा से संस्कृत में अनूदित ग्रंथ है। वस्तुत: जयदेव संस्कृत काव्य के अंतिम महान् कवि थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा और निपुणता से आदिरस में ओतप्रोत इस अपूर्व पदावली का आविष्कार किया जिसने प्राचीन राधाकृष्ण की लीलाओं की परंपरा को लोकभाषाओं की जीवित शक्तियों के सहारे संस्कृत में स्थापित कर युगों तक संस्कृत काव्य को लोकप्रिय बनाए रखा। प्राचीन मिथिला और आधुनिक नेपाल में जयदेव की संगीत परंपरा (जो अन्य भारतीय परंपराओं से कुछ भिन्न है) सुरक्षित रही है।
गीतगोविंद के आरंभ में कवि ने अपना परिचय दिया है। तत्पश्चात् दशावतार का कीर्तन है तथा क्रमश: कवि कृष्णावतार की प्राचीन लीलाओं का वर्णन करते हैं। कथानक का आरंभ वसंत में कृष्ण की रासलीला से होता है। गोपियाँ कृष्ण को प्रेमविह्वल को घेर लेती हैं और उनके साथ मिलन की उत्कट अभिलाषा प्रकट करती हैं। दूसरी और कृष्ण भी प्रेमविह्वल दिखाए जाते हैं। वे कामदेव और राधा को याद करते हैं। इसी बीच राधा की सखी कृष्ण को उसकी दशा बताने आती हैं किंतु वे गोपियों के साथ चले गए हैं और राधा निराश पड़ी रहती है। रात्रि में चंद्रमा की किरणें राधा को और सताती हैं। अंत में जब कृष्ण स्वयं उसके पास पहुँचते हैं, राधा मान करती है। राधा का जब मान टूटता है, कृष्ण और राधा का मिलन होता है।
जयदेव की दूसरी कृतियों के बारे में संदेह है कि वे किस जयदेव की हैं। संभव है गीतगोविंदकार की लिखी 'रतिमंजरी' नामक कामशास्त्र का ग्रंथ और 'छंद:शतक' नामक छंद-संबंधी ग्रंथ मात्र हैं। प्रसन्नराघव नामक काव्यशास्त्र का ग्रंथ लिखनेवाले जयदेव मिथिला के प्रसिद्ध नव्य न्याय के विद्वान् पीयूषवर्ष पक्षधर उपनाम को धारण करनेवाले १२वीं शताब्दी के थे। अभिनव जयदेव उपनाम से महाकवि मैथिल कोकिल विद्यापति ठाकुर (लगभग १३४-१४४८ ई.) प्रसिद्ध हुए। आधुनिक काल में महामहोपाध्याय जयदेव मिश्र (१८५४-१९२६ ई.) वैयाकरण जया विजया और शास्त्रार्थरत्नावली आदि ग्रंथों के लेखक हुए।
जयदेव के संबंध में कोई मौलिक ग्रंथ नहीं लिखे गए हैं। सभी संस्कृत साहित्य के इतिहासों में इनकी चर्चा है। (ज. कां. मि.)
२. 'जयदेव मिश्र' नाम से प्रसिद्ध संस्कृत साहित्य के कई एक विशिष्ट विद्वान हुए हैं। इनमें प्रथम नव्यन्याय के आदि ग्रंथ 'तत्त्वचिंतामणि' की 'आलोक' नाम की टीका के रचयिता, जिनकी 'पक्षधर मिश्र' के नाम से विशेष प्रसिद्धि हुई; दूसरे अलंकार के प्रसिद्ध ग्रंथ 'चंद्रालोक' तथा 'प्रसन्नराधव' नाटक के रचयिता और तीसरे 'विजया,' 'जया' आदि टीकाओं के रचयिता वैयाकरण, ये तीन बहुत ही विख्यात विद्वान् हुए हैं। यहाँ क्रमश: इन तीनों के संबंध में ज्ञात विषयों का उल्लेख किया जाता है।
१. जयदेव मिश्र (पक्षधरमिश्र) - मिथिला के पसिद्ध सोदरपुर ग्राम निवासी, शांडिउल्यगोत्रोत्पन्न श्रोत्रिय गुणे मिश्र के द्वित्तीय पुत्र थे। नाथू मिश्र इनके बड़े भाई थे। वाद-प्रतिवाद में जिस किसी भी पक्ष को यह स्वीकार कर लेते थे उसी के समर्थन में इनकी विजय होती थी। इसी कारण 'पक्षधर' के नाम से वह प्रसिद्ध हुए। इन्हें परिवार के लोग 'पाखृ' कहा करते थे। इसी लिए संस्कृत में प्रसिद्ध उक्ति है-'पक्षधरप्रतिपक्षी लक्षीभूति न च क्वापि'।
मैथिली भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ठाकुर इनके सहपाठी थे। इन दोनो ने पक्षधर मिश्र के पितृव्य हरि मिश्र से न्यायशास्त्र पढ़ा था। यह लंबाई में नाटे थे। बंगाल के प्रसिद्ध नैयायिक रघुनाथ शिरोमणि ने इन्हीं से न्यायशास्त्र पढ़कर बंगदेश में नव्यन्याय के अध्ययनाध्यापन की परंपरा चलाई। इन बातों के आधार पर १४वीं शती में हम इनका समय निर्माण करते हैं।
कहा जाता है कि कर्णाटक के द्वैतवादी प्रौढ़ नैयायिक व्यासतीर्थ ने इनके साथ शास्र विचार करने के अनंतर इनकी विद्या के संबंध में कहा था-
यदधीतं तदधीतं यदनधीतं तदनधीतम।
पक्षधरप्रतिपक्षी नावेक्षि विनीऽभिनवव्यासेन।।
इन्होंने नव्यन्याय की एक दृढ़ परंपरा चलाई जो प्राय: समस्त भारतवर्ष में मान्य हुई। मैथिल गंगेश उपाध्याय रचित 'तत्त्वचिंतामणि' के ऊपर 'आलोक' नाम की एक बहुत सुंदर इनकी टीका है। एक भाग प्रकाशित हो चुका है। यह जानना आवश्यक है कि मिथिला में सोदरपुरवंश वस्तुत: बहुत विस्तृत तथा बड़े-बड़े विद्वानों का वंश था और आज भी है।
पक्षधर ने अधोलिखित ग्रंथों की रचना की :
(१) शशधर के 'न्यायसिद्धांतदीप' की टीका (२) तत्त्वचिंतामणि- 'आलोक' तथा (३) तत्त्वचिंतामणि- 'टिप्पणी'। 'विवेक' नाम से प्रसिद्ध कुछ ग्रंथ कुछ लोगों ने इन्हीं के रचित माने हैं।
मिथिला में वासुदेव मिश्र, रुचितदत्त, भगोरथ आदि तथा बंगाल में वासुदेव सार्वभौम, रघुनाथ शिरोमणि आदि इनके प्रसिद्ध शिष्यों में गिने जाते हैं। पक्षधर के समय पर्यंत नव्यन्याय का पांडित्य, अध्ययन तथा अध्यापन केवल मिथिला ही में होता था और आधुनिक विशिष्ट विद्वानों का कहना है कि मिथिला में ही नव्य-न्याय का व्यवसाय चरम सीमा पार कर चुका था।
२. दूसरे जयदेव मिश्र (पीयूषवर्ष) प्रधानतया साहित्यिक है। 'पीयूषवर्ष' इनके नाम की उपाधि थी। यह महादेव और सुमित्रा के पुत्र थे। यह भी मिथिला के वासी थे। यह कौंडिन्य गोत्र के बड़े सरस कवि थे। साथ ही साथ यह बहुत प्रौढ़ नैयामिक भी थे। इन दोनों बातों को कवि ने स्वयं कितने मधुर तथा कठोर शब्दों में कहा है। ये उल्लेख के योग्य श्लोक हैं :
विलासो यद्वाचामसमरसनिष्यंदमधुर:
कुरंगाचीविंबाधरमधुरभावं गमयति।
कवींद्र: कौडिन्य: स तव जयदेव: श्रवणयो-
रयासीदातिथ्यं न किमिह महादेवतनय:।।१।।
येषां कोमलकाव्यकौशलकलालीलावती भारती
तेषां कर्कश-तर्कवक्रवचनोद्गारेऽपि किं हीयते।
यै: कांता-कुचमंडले कररुहा: सानंदभारोपिता:
तै: किं मत्तकरींद्र-कुंभ-शिखरे नारोपणीया: शरा:? ।।२।।
उपर्युक्त दूसरे श्लोक से लोग अनुमान करते हैं कि 'आलोककार' तथा साहित्यिक पीयूषवर्ष जयदेव दोनों एक ही व्यक्ति हैं। परंतु यह भ्रांति है। आलोककार का शंडिल्य गोत्र है तथा 'प्रसन्नराघवकार' कौंडिल्य गोत्र हैं। प्रसन्नराधवकार भी एक उत्तम कोटि के नैयायिक थे यह उपर्युक्त श्लोक से ही स्पष्ट होता है और संभवत: 'न्यायलीलावतीविवेक', 'द्रव्यविवेक', 'कुसुमांजलिविवेक' आदि 'विवेकग्रंथ' इन्हीं 'पीयूषवर्ष' जयदेव मिश्र के हों। नाममात्र के साम्य से बाद के कुछ लोगों ने ऐसी भूल की है।
इन्होंने 'काव्यप्रकाशकार' मंमट के काव्य का तथा 'अलंकारसर्वस्वकार' रुय्यक के विकल्प, विचित्र, अलंकारों के लक्षणों का उल्लेख चंद्रालोक में किया है। अतएव ये जयदेव रुय्यक के बाद हुए हैं। रुय्यक का समय १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। इसलिए उसके बाद 'पीयूषवर्ष' हुए। पश्चात् अलंकारशेखरकार केशव मिश्र ने अपने ग्रंथ में प्रसन्नराघव का 'कदली कदली करभ: करभ:', इत्यादि श्लोक का उल्लेख किया है। केशव मित्र १६वीं शताब्दी में हुए थे। इन प्रमाणों के आधार पर पीयूषवर्ष का समय १३वीं शताब्दी माना जाता है।
इनके ग्रंथों को पढ़कर इनकी 'पीयूषवर्ष' उपाधि अन्वर्थक है, यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है। साथ ही यह कर्कश तर्क में भी पारंगत थे।
३. तीसरे जयदेव मिश्र (विजयाकार) - प्रधानरूप से वैयाकरण थे। यह मिथिलावासी सोदरपुर श्रोत्रियवंश के चित्रनाथ मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र थे। शची देवी इनकी माता का नाम था। इनका जन्म १८५४ ई. की कार्तिकी पूर्णिमा को हुआ था। इनके पाँच छोटे सोदरभाई भी भिन्न-भिन्न शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। इस वंश में बहुत पूर्वकाल से ही बड़े बड़े महामहोपाध्याय विद्वान् हुए हैं। इन्होंने मिथिला में 'हल्लीझा' तथा 'राजनाथ मिश्र' से अध्ययन कर काशी में 'बालशास्त्री', 'विशुद्धानंद सरस्वती' तथा 'कैलाशचंद्र शिरोमणि' से व्याकरण शब्दखंड, वेदांत तथा नव्यन्याय का विशेष अध्ययन किया। काशी के विशिष्ट तथा प्रसिद्ध विद्वान 'शिवकुमार मिश्र' के यह सहपाठी थे तथापि उनका यह गुरुवत् आदर करते थे। उनके साथ इन्होंने सभी शास्त्रों का मथन किया था। काशी, विश्वनाथ, तथा मणिकर्णिका के ये अन्य भक्त थे। कश्मीर नरेश आदि के विशेष आग्रह करने पर भी इन्होंने राजाश्रित होकर कहीं अन्यत्र जाना स्वीकार नहीं किया। सदाचार की जीवित मूर्ति यह समझे जाते थ। ५० वर्ष काशी में रहकर इन्होंने विद्यादान किया।
पूर्व में लगभग ४० वर्ष दरभंगा नरेश के काशी में स्थापित दरंभगा पाठशाला में अध्यापक थे। पश्चात् १९१६ में हिंदू विश्वविद्यालय में, पं. मदनमोहन मालवीय के आग्रह से, इनको जाना पड़ा और जीवन के अंत सय तक वहीं रहकर शतश: छात्रों को पढ़ाया। १९२६ के फाल्गुन शुल्क ७ को मणिकर्णिका की गंगा में इस भौतिक शरीर की लीला ७२ वर्ष की अवस्था में उन्होंने समाप्त की।
इनके रचित परिभाषेंदुशेखर की 'विजया' नाम की तथा व्युत्पत्तिवाद की 'जया' नाम की टीकाएँ देशविदेश में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने 'शास्त्रार्थ रत्नावली' नाम का एक पाणिनिसूत्र तथा परिभाषाओं पर स्वतंत्र ग्रंथ का निर्माण किया। इनके अतिरिक्त छोटे-छोटे बहुत से ग्रंथ इनके अभी भी अमुद्रित ही हैं। १९१९ में ब्रिटिश सरकार ने इन्हें 'महामहोपाध्याय' की पदवी दी थी। शास्त्रार्थ में उन दिनों न केवल काशी में अपितु समस्त भारत में इनका प्रतिपक्षी दूसरा कोई न था। इसीलिये इनके अन्यतम छात्र महामहोपाध्याय डाक्टर सर 'गंगानाथ झा' ने इनके संबंध में लिखा है-
जय कुले जयोऽभ्यासे जय: पंडितमंडले।
जयो मृत्यौ जयो मोक्षे जयदेव: सदा जय:।। (महामहोपाध्याय उमो मिश्र)