ज़फ़र खाँ ख्वाजा अहसन जहाँगीर शासन के १९वें वर्ष अपने पिता ख्वाज: अबुल हसन तुरबती का प्रतिनिधि बनकर काबुल का शासक नियुक्त हुआ। जहाँगीर राज्य के अंतिम समय इसकी स्थिति में बहुत उन्नति हो गई थी। जब शाहजहाँ शासनारूढ़ हुआ, उस समय किन्हीं कारणोंवश इसे काबुल छोड़कर आगरा आना पड़ा।

एकवर्ष पश्चात् अपने पिता के साथ जुझारसिंह बुंदेला के दमन हेतु नियुक्त किया गया। सम्राट् शाहजहाँ के दक्षिण प्रस्थान के समय पुन: इसको अपने पिता के साथ नासिक, संगमनेर, और त््रयंबक पर आक्रमण करने का काम सौंपा गया।

ख्वाजा अबुलहसन तुरबती जब कश्मीर का सूबेदार नियुक्त किया गया तब यह अपने पिता का प्रतिनिधि बनकर वहाँ गया। पिता की मृत्यु पर स्वयं ही कश्मीर का सूबेदार नियुक्त किया गया।

अपने कश्मीर के शासकत्व काल में इसने शीघ्रता से तिब्बत प्रांत पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक अब्दाल को कैद कर लिया। शाहजहाँ ने कुछ समय के पश्चात् इसे कश्मीर की सूबेदारी से मुक्त करके खानदौराँ नसरत जंग की सहायता में हमारा जाति पर आक्रमण करने को भेजा। तदनंतर यह शाहज़ादा मुरादबख्श के साथ रहा। परिस्थितियाँ बदलीं, दो वर्ष तक यह दंडित होकर निर्वासित रहा किंतु फिर उसी स्थिति पर आसीन हुआ। कश्मीर के तत्कालीन सूबेदार पर अप्रसन्न होकर सम्राट् ने इसे पुन: वहाँ का सूबेदार बनाया। इसके सुप्रबंध पर प्रसन्न होकर सम्राट् ने इसे उचित पुरस्कार दिया।

कुछ काल तक यह ठट्टा प्रांत का शासक नियुक्त रहा। इसके पश्चात् सम्राट् की सेवा में चला आया। यह सांसारिक छलकपट से पूर्णत: अनभिज्ञ था। औरंगजेब अपने शासन काल में चालीस सहस्र रुपया वार्षिक वृत्ति के रूप में इसे देता रहा। सन् १६६३ ई. में लाहौर में इसकी मृत्यु हो गई।

कहते हैं कि यह पूर्णरूपेण निश्छल व्यवहार-कुशल व्यक्ति था और विद्वानों का सम्मान करता था।