जनगणना का शाब्दिक अर्थ है मनुष्यों की गणना, किंतु आधुनिक अर्थ में जनगणना किसी क्षेत्र या देश के ग्राम, नगर या उपक्षेत्रों के निवासियों की संख्या तथा तत्संबंधी विभिन्न तथ्यों जैसे आयु, लिंग, शिक्षा, कार्यकलपा, निवास, आश्रितों तथा धर्म आदि की संख्या, के अतिरिक्त कृषि, उद्योग धंधों, पशु धन, खनिज एवं अन्य प्राकृतिक तथा जन-साधनों का समसामयिक वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत करती है। अत: 'जनगणना' संसार के लगभग सभी सभ्य देशों में साधारण आवधिक गणना मात्र ही नहीं, प्रत्युत निवासियों की संख्या तथा तत्संबंधी अन्य तथ्यों का समसामयिक विवरण प्रस्तुत करनेवाली राष्ट्रीय संस्था हो गई है, जिसपर प्रशासनिक एवं आयोजना संबंधी सरकारी नीतियाँ निर्धारित होती हैं।
इतिहास - सर्वप्रथम जनगणना का प्रचलन संसार के किस क्षेत्र या देश में हुआ, इसका ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है, किंतु इतिहासकारों का मत है कि इसका प्रचलन अति प्राचीन काल से संसार के विभिन्न भागों में रहा है, यद्यपि इसका रूप अव्यवस्थित था। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में जब जातीय या पारिवारिक संगठन था, तब नेता को अपने वर्ग तथा पशुधन का पता रहता था। विपत्ति के दिनों में संपूर्ण वर्ग की गुहार होती थी और भोजादि के अवसरों पर सब निमंत्रित होते थे। पूर्ववैदिक काल में भारत में आर्य लोग अपनी जातियों, कुरु, यदु आदि में बंटे थे और राजा को पूरी जाति का पता रहता था। महाभारत में कौरवों और पांडवों ने अपने अपने सैन्यदल की गणना द्वारा अपनी अपनी शकित का आकलन और युद्धायोजन किया था।
सेंसस (Census-जनगणना) शब्द रोम के प्राचीन शब्द सेंसर (Censor) से बना है, जबकि रोमन राज्यसेवक, जिन्हें सेंसर (Censor) कहते थे, सरकारी निर्देशानुसार प्रति पाँचवे वर्ष राज्य के परिवारों तथा प्रत्येक परिवार के सदस्यों की संख्या तथा आर्थिक और सामाजिक तथ्यों का विवरण प्रस्तुत करते थे। इसका प्रारंभ सर्वियत टालियस नामक रोम के छठे राजा (५७८-५३४ ई.पू.) ने किया था। ऑगस्टस ने ईसा से पाँच वर्ष पूर्व इस रीति को संपूर्ण रोम साम्राज्य में प्रचलित कर दिया।
प्रणाली तथा ताथ्यिक स्वरूप - आधुनिक जनगणना का स्वरूप अत्यंत विशद होता जा रहा है। इसमें किसी देश के प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, ग्राम, मुहल्ला, नगर, विभिन्न प्रशासकीय क्षेत्रों और संपूर्ण क्षेत्र के मनुष्यों तथा उनकी आवासीय, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, जातीय, राजनीतिक तथ्यों, अंत: क्षेत्रीय, अंत:प्रांतीय या अंतरराष्ट्रीय गमना-गमन, बेकारी आदि विवरणों का समावेश रहता है। ये सब तथ्य निरंतर परिवर्तनशील हैं, अत: प्रति पाँच या दस वर्षों पश्चात् ये आँकड़े लिए जाते हैं, जिससे तत्यों में परिवर्तनक्रम के अनुसार सरकारी नीति और योजनाओं तथा विभिन्न मदों में, आमदनी खर्च की अयोजनाओं में भी, आवश्यकतानुसार संशोधन तथा परिवर्तन किया जा सके।
जनगणना का स्वरूप प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न देशों में उद्देश्यानुसार विभिन्न प्रणालियाँ उपयोग में लाई जाती हैं। गणना की प्रधानतया दो प्रणालियाँ प्रचलित हैं - एक यथार्थ (de facto), दूसरी अयथार्थ (de Jure)। यथार्थ प्रणाली के अनुसार निर्धारित जनगणना के समय व्यक्ति को उसके तात्कालिक आवास या ठहराव के स्थान पर ही परिगणित कर दिया जाता है, यद्यपि वस्तुत: उसका स्थायी या लगभग स्थायी आवास दूसरे क्षेत्र में स्थित रहता है। अयथार्थ प्रणाली में व्यक्ति को जनगणनाकालिक ठहराव पर नहीं, प्रत्युत उसके स्थायी या मुख्य निवासस्थान की गिनती में सम्मिलित किया जाता है। अत: जिसे देश या क्षेत्र की जनता अधिक चल (Mobile) नहीं है, वहाँ तो एक गणनांक से कार्य संपन्न हो जाता है, परंतु उद्योगप्रधान देशों में अधिक लोगों के निरंतर चल होने से गणना-संबंधी समस्य दुरूह हो जाती है। इस दूरूहता को कम करने के लिए गणना की एक निश्चित अवधि निर्धारित करके जनता से उस काल में स्थानांतरण न करने की अपील की जाती है, ताकि यथार्थ गणना हो सके, और इस प्रकार आँकड़े दूसरी प्रणाली के समान हो जाते हैं। ऐसा न होने पर यथार्थ गणना में प्रचुर त्रुटियाँ आ जाती हैं और गणना का उद्देश्य निरर्थक हो जाता है, जैसे किसी नगर में एक लाख निवासी हैं ओर वहाँ आवासीय कठिनाई है। यदि गणना काल में यथार्थं प्रणाली द्वारा केवल ५० हजार ही गिने जाते हैं, तो वहाँ की आवसीय कठिनाई का पता नहीं चल पाएगा। द्वितीय प्रणाली भी दोषरहित नहीं है। उदाहरण्स्वरूप, भारत के पर्वतीय नगरों में स्थायी तथा ग्रीष्मकालीन जनसंख्या में बहुत ही अंतर रहता है और यदि ग्रीष्मकाल में गणना की जाती है, तो यथार्थ जनसंख्या का पता हीं नहीं चलता। वैसे ही बड़े नगरों के केंद्रीय स्थानों में दिन (कार्यालय क समय) और रात्रि की जनसंख्या में पर्याप्त अंतर रहता है। इस प्रकार दोनों प्रणालियाँ दोषरहित नहीं है। कुछ देशों में ऐसी त्रुटियों को दूर करने के लिए कुछ उपाय प्रयुक्त होते हैं। भारतीय जनगणना दूसरी प्रणाली के अनुसार संपन्न होती है, किंतु पर्वतीय भ्रमणस्थलों की जनसंख्या के सही आकलन के लिए ग्रीष्म एव जाड़े दोनों ऋतुओं में गणना की जाती है। नीचे कुछ देशों की प्रणालियों का विवरण दिया जाता है:
ब्रिटेन की जनगणना दसवर्षीय है और यथार्थ प्रणाली द्वारा संपन्न होती है। गृहपति द्वारा प्रश्नावली भरी जाती है। तालिका में व्यक्ति का नाम, गृहपति से संबंध, आयु, लिंग, वैवाहिक (Married status) अवस्था, माँ बाप का जीवित या मृत होना, जन्मस्थान, राष्ट्रीयता, शिक्षास्तर, व्यवसाय, औद्योगिक स्वरूप, मालिक, वेतन भोगी या अपना धंधा करनेवाला, स्थान, जीवित संतानों की संख्या तथा आयु और १६ वर्ष से कम उम्रवाली सौतेली संतानें। फ्राँस और जर्मनी में पंचवर्षीय तथा अमरीका एवं इटली में दसवर्षीय जनगणना होती है।
जनसंख्या खाता (Population registers) - दसवर्षीय या पंचवर्षीय जनगणनाओं की दुरूहता के निवारण के लिए कुछ देशों में जनसंख्या खाता का प्रचलन प्रारंभ हो गया है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के संबंध का विविध विवरण समाविष्ट होता है। इसमें किसी व्यक्ति से संबंधित विवरणों में होनेवाले क्रमिक परिवर्तनों का सुविधापूर्वक उल्लेख होता रहता है और इस प्रकार देश या क्षेत्र के कुल निवासियों का विशद समसामयिक विवरण निरंतर तैयार रहता है। लेकिन यह असंभव-सा मालूम होता है। अधिकांश व्यक्तियों के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक स्थिति में इतने परिवर्तन होते हैं कि सबका निरंतर उल्लेख करते रहना अत्यंत दुरूह और बहुव्ययसाध्य कार्य है। ऐसे परिवर्तनक्रमों की ठीक ठीक उपलब्धि भी असंभव है। हालैंड, स्वीडेन, बेल्जियम आदि में कुछ हद तक इसका उपयोग हो रहा हैं। भारत में भी व्यक्तिगत खाते (personal register) का प्रचलन हुआ है लेकिन उसका क्षेत्र अभी व्यापक नहीं है।
विशेष विवरण - आधुनिक जनगणनाओं में भी कुछ आवश्यक तथ्यों का समावेश नहीं हो पाता, जिनका समावेश आधुनिक अध्ययनशास्त्रों में अन्वेषणात्मक कार्यों के लिए अधिक उपयोगी हो सकता है। सरकारी नीतियों को निर्दिष्ट करने में भी उनसे सहायता प्राप्त होगी। उदाहरण स्वरूप, किसी व्यक्ति के कुल शील का ज्ञान, विवाह के पहले या बाद के अनुचित यौन संबंध, किसी स्त्री के कौमार्यावस्था अथवा विवाहितावस्था की भ्रूण-हत्याएँ, अन्य असामाजिक या समाज विरोधी कार्य (लूट, हत्या, पापादि) अथवा गुप्तांगों या अन्य अंगों की बीमारी आदि का विवरण समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, चिकित्साशास्त्र, आदि के अन्वेषणात्मक कार्यों के लिए अत्यावश्यक है। ऐसे व्यक्तिगत या पारिवारिक विवरण गोपनीय होते हैं, जिनका रहस्योद्घाटन अवांछित होता है। रहस्योद्घाटन का भयनिवारण करने पर और प्रत्येक ग्राम या नगर संबंधी ऐसे तथ्यों की कुल संख्या दिखलाने पर संभवत: ऐसे विवरण प्राप्त हो सकेंगे।
अंकन प्रक्रिया (Tabulation method) - आधुनिक जनगणना में विभिन्न प्रकार के विशद आँकड़ों का वैज्ञानिक अंकन, प्रतिचयन (Sampling) तथा विवरण प्रस्तुत करने का कार्य अत्यंत दुरूह हो गया है। इस कार्य में समयाभाव के कारण क्षिप्रता, शुद्धि एवं वैज्ञानिकता अत्यावश्यक है, जिससे विभिन्न कार्यों के लिए आँकड़ों एवं विवरणों का उपयोग किया जा सके। अमरीका जैसे देशों में अंकशास्त्र तथा वैद्युतिकी के आधुनिक सिद्धांतों पर निर्मित यंत्रों के उपयोग द्वारा अंकन, गणना, प्रतिचयन आदि कार्य अति क्षिप्रता तथा कुशलता के साथ संपन्न होते हैं। अमरीका में एक आधुनिकतम यंत्र से यह कार्य होता है, जिसे यूनिवैक (Univac) कहते हैं।
भारतीय जनगणना - बर्मा (१९३६) तथा पाकिस्तान के अलग होने जाने पर भी भारतीय जनगणना संसार में बृहत्तम है (चीन जनसंख्या की दृष्टि से संसार में प्रथम है, लेकिन अभी तक वहाँ कोई संगठित जनगणना नहीं हो पाई है)। भारत के मद्रास, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में १९वीं सदी के पूर्वार्ध में ही विविध तथ्यों पर आधारित गणनाएँ प्रस्तुत हुई थीं, किंतु वस्तुत: १८६५-७२ ई. के काल में देश के अधिकांश भाग में आयोजित जनगणना हो सकी। किंतु इससे कई बड़े देशी राज्य - हैदराबाद, कश्मीर, मध्यभारत, राजपूताना तथा पंजाब के राज्य लाभान्वित नहीं हुए थे। यह गणना अपूर्ण भी थी और आवागमन के आधुनिक साधनों से वंचित अतंर्वर्ती वन्य तथा मरुक्षेत्रों में अपूर्ण ढंग से आँकड़े प्रस्तुत किए गए थे। वस्तुत: भारत से तथ्यपरक एवं आधुनिक ढंग की सर्वथा आयोजित जनगणना १७ फरवर, १८८१ को संपन्न हुई। फिर भी इसमें कश्मीर, सिक्कम तथा कुछ अन्य छोटे भाग नहीं लिए जा सके। १८८१ से १९६१ ई. तक आठ जनगणनाएँ संपन्न हो चुकी हैं, जो प्रत्येक दशक के प्रथम वर्ष में ली जाती हैं। १८९१ में कश्मीर एवं सिक्किम भी सम्मिलित किए गए। तृतीय जनगणना १९०१ ई. के प्रथम मार्च को संपन्न हुई, जिसमें राजपूताने का भील क्षेत्र तथा अंदमान निकोबार द्वीपसमूह भी सम्मिलित किए गए। इस बार जनगणना की तालिका तैयार की गई थी और प्रथम बार यहाँ पर्ची प्रणाली (slip system) का प्रयोग आरंभ हुआ।
स्वतंत्रता-प्राप्ति (१९४७) के पहले की जनगणनाओं में अंगरेज शासकों ने आंकड़ों को क्रमबद्ध रखने की चेष्टा नहीं की और विभिन्न राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कभी संप्रदाय, कभी भाषा, कभी जाति आदि के अनुसार तालिकाएँ तथा प्रश्नावलियाँ बनती थीं। इनके अतिरिक्त कोई स्थायी विभाग या कार्यालय न होने के कारण येनकेन प्रकारेण जनगणना संपन्न कराई जाती थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जनगणना के महत्व को समझते हुए एक स्थायी गणना अधिनियम (Census act) पारित कराया और एक प्रमुख जनगणना अधिकारी के अधीन जनगणना कार्यालय संघटित हुआ। १९५१ की जनगणना के लिए पहले से ही उसका विशद प्रारूप, विभिन्न क्षेत्रीय कार्यालयों और कार्यकर्ताओं का निर्धारण, गणना तालिका तथा देश की विभिन्न भाषाओं एव स्थानीय बोलियों में पर्चे तैयार कर लिए गए। देश को गणना प्रमंडल एवं गणना प्रमंडलों की गणना खंडों में बाँट लिया गया। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना में ५,९३,५१८ गणक, ८०,००६ निरीक्षक तथा ८,९५४ कार्य अधिकारी लगे थे।
१९५१ की जनगणना के कुछ प्रमुख तथ्य इस प्रकार हैं :
भारत की १९६१ की जनगणना १९५१ की जनगणना से भी अधिक विशद एवं व्यापक है। यह ५ मार्च, १९६१ को संपन्न हुई। भारतीय जनगणना के इतिहास में प्रथम बार १९६१ में 'गृह' के इकाई मानकर उसके आवासीय या अन्य कार्यों (functions of a house or use of a house), दीवार तथा छत निर्माण के सामान, कमरों की संख्याएँ, गृहस्वामित्व का विवरण आदि तथ्यों का समावेश किया गया है। इसके अतिरिक्त १९६१ में नौ साधनों के लिए सूचनाएँ प्राप्त की गई। १९६१ की जनगणना में निम्नांकित पंजिकाएँ प्रस्तुत की गई :
भाग १- जनगणना का सामान्य विवरण, गौण सारणी। इसके अतिरिक्त १९५१-६१ ई. की दशाब्दी के जन्म मरण के आँकड़े,
भाग २- सारणियाँ,
भाग २ क- सामान्य जनसंख्या सारणी और प्रमुख गणना विषयक संक्षिप्त पंजिकाएँ,
भाग २ ख- सामान्य जनसंख्या की आर्थिक सारणी।
भाग २ ग- सांस्कृतिक और स्थानांतरण सारणी।
भाग ३- पारिवारिक आर्थिक सारणी, परिवार के सदस्यों की संख्या ओर सदस्यीय विवरण,
भाग ४- गृह तथा संस्थापन (estabilshment) सारणी एवं विवरण,
भाग ५- विशेष सारणियाँ (पिछड़ी जातियाँ ओर अनुसूचित जातियाँ) एवं अन्य जातीय विवरण (ethnographic tables)।
भाग ६- ग्रामीण क्षेत्रों के सर्वेक्षण (village survey monographs)।
भाग ७- हस्तकलाओं का सर्वेक्षण;
भाग ८- जनगणना का प्रशासकीय विवरण (बिक्री के लिए नहीं),
भाग ९- मानचित्रावली।
भाग १०- दस लाख तथा उससे अधिक जनसंख्यावाले नगरों की विशेष विवरणपंजिका।
अन्य प्रकार के विवरण- संयुक्त राज्य तथा कुछ अन्य देशों में इन गणनाओं के अतिरिक्त कुछ विवरण भी दिए जाते हैं, जो विभिन्न प्रशासनिक एवं आयोजन कार्यों के लिए अत्यावश्यक हैं। (का.ना.सिं.)
राजनीतिक महत्व - राजनीतिक परिवर्तनों का जनसंख्या से घनिष्ठ संबंध है। इस प्रकार नियतकालीन जनगणना का सूत्रपात ही राजनीतिक कारणों से सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ। वहाँ प्रत्येक राज्य से सब सरकार में जानेवाले प्रतिनिधियों की संख्या तथा करारोपण की मात्रा निर्धारित करने के लिए इस किस्म की गणना सर्वप्रथम १९९० में की गई और तब से प्रति दस वर्ष बाद यह गणना ली जाती है। भारत में अंग्रेजी शासनकाल में साइमन कमीशन और गोलमेज़ सम्मेलनों के बाद होनेवाले परिवर्तन, सांप्रदायिकता का फैसला, भारत सरकार का सन् १९३५ का अधिनियम आदि काफी हद तक १९२१ और १९३१ की जनगणना रिपोर्ट पर आधारित थे। इस प्रकार १९४७ का 'रेडक्लिफ फैसला', विशेषकर बंगाल और पंजाब का विभाजन १९४१ की जनगणना के आधार पर हुआ। इसी प्रकार १९५३ में भाषा के आधार पर आंध्र राज्य का निर्माण और सन् १९६० में बृहत् बंबई राज्य का गुजरात और महाराष्ट्र के दो प्रदेशों में विभाजन सन् १९५१ की जनगणना के आधार पर हुआ। चुनाव के समय विभिन्न निर्वाचित क्षेत्रों का बँटवारा भी जनगणना रिपोर्ट पर आधारित होता है। सरकार की सारी वैज्ञानिक तथा शासन संबंधी कार्यवाही जनगणना से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित होती है।
आर्थिक महत्व - जनगणना से प्राप्त आँकड़ों का आर्थिक क्षेत्र में काफी महत्व है। इन आँकड़ों के आधार पर ही सरकार आनेवाली पीढ़ी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और अन्य नागरिक सुविधाओं को देने की योजना बनती है, प्रत्येक जनगणना रिपोर्ट के साथ आयु तालिकाएँ भी दी रहती हैं, जिससे सरकार अनुमान लगाती है कि अमुक समय रोजगार ढूँढ़नेवालों की संख्या इतनी होगी और उसी के अनुसार रोजगार व्यवस्था का प्रबंध करती है। आज नियोजन और पूर्ण रोजगार के युग में इसका बड़ा महत्व है। इसके अतिरिक्त देश में प्रति व्यक्ति औसत आय तथा वस्त्र आदि अन्य वस्तुओं का उपभोग और देश के लोगों के रहन-सहन के स्तर का अनुमान भी जनगणना से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर लगाया जाता है। इसी के आधार पर केंद्रीय तथा राज्य सरकारं अपना सालाना बजट बनाती हैं और जनता पर कर लगाती हैं। इन्हीं आँकड़ों के आधार पर यह भी पता लगाया जा सकता है कि देश में जनसंख्या तथा खाद्य पदार्थों के उत्पादन, दोनों में किस में तीव्रतर गति से वृद्धि हो रही है। यदि जनसंख्या की वृद्धि की दर अधिक तेज़ है तो यह देश के लिए चिंताजनक विषय होगा। फिर सरकार को भविष्य में दुर्भिक्ष की संभावना से बचने के लिए बंध करना पड़ेगा और जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता हो सकती है पर आँकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकालते समय पर्याप्त सावधानी बरतनी चाहिए। (भूदेव कुमार मुकर्जी)