जड़भरत इनका प्रकृत नाम भरत है, जो स्वायंभुव वंशी ऋषभ के पुत्र हैं। मृग के छौने में तन्मय हो जाने के कारण इनका ज्ञान अवरुद्ध हो गया था और वे जड़वत् हो गए थे जिससे ये जड़भरत कहलाए। (वि.पु. २/१३ अ.- १६ अ.) शालग्राम तीर्थ में तप करते समय इन्होंने सद्य: जात मृगशावक की रक्षा की थी। उस मृगशावक की चिंता करते हुए इनकी मृत्यु हुई थी, जिसके कारण दूसरे जन्म में जंबूमार्ग तीर्थ में एक 'जातिस्मर मृग' के रूप इनका जन्म हुआ था। बाद में पुन: जातिस्मर ब्राह्मण के रूप में इनका जन्म हुआ। आसक्ति के कारण ही जन्मदु:ख होते हैं, ऐसा समझकर ये आसक्तिनाश के लिए जड़वत् रहते थे। इनको सौवीरराज की डोली ढोनी पड़ी थी पर सौवीरराज को इनसे ही आत्मतत्वज्ञान मिला था (श्रीमद्भा. ४/५-१४)। (रामशंकर भट्टाचार्य)