जटावर्मन् सुंदर पांड्य जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम (१२५१-१२६८ ई.) पांड्य राजवंश का सबसे महान् शासक था जिसके समय में पांड्य साम्राज्य का चरमोत्कर्ष हुआ। उसकी गणना दक्षिणी भारत के इतिहास के प्रसिद्ध विजेताओं में होती है। उसने अपने राज्यकाल के प्रारंभ में ही चेर नरेश वीर रवि उदयमार्तड वर्मन् और उसकी सेना को नष्ट किया और मलैनाडु का विध्वंस किया। उसने राजेंद्र चोल को अपनी अधीनता स्वीकार करने और कर देने के लिये विवश किया। उसने लंका पर आक्रमण करके वहाँ के नरेश से अत्यधिक मोती और कई हाथी लिए। उसने होयसलों के अधिकार में करवेरि प्रदेश पर आक्रमण किया ओर कण्णान्नूर कोप्पम् के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में होयसलों की बहुत क्षति हुई, कई सेनानायक मारे गए और पांड्यों के हाथ में हाथी, घोड़े, धन और स्त्रियाँ आईं। होयसल नरेश वीर सोमेश्वर के युद्ध से भाग जाने पर सुंदर पांड्य ने युद्ध समाप्त कर दिया किंतु कुछ समय बाद वीर सोमेश्वर ने युद्ध फिर से आरंभ किया। इस युद्ध में वीर सोमेश्वर सुंदर पांड्य के ही हाथों मारा गया। सुंदर पांड्य ने शेंदमंगलम् में पराजित करके पहले तो उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिय किंतु बाद में कोप्पेरुग्जिंग को फिर से शासनाधिकार दे दिया। संभवत: कोप्पेरुग्जिंग ओर वीर सोमेश्वरके विरुद्ध युद्ध के संबंध में ही सुंदर पांड्य ने केंग और मगदै की विजय की थी। चिदंबरम् हेते हुए वह श्रीरंगम् तक गया। उत्तर की ओर उसने आक्रमण करके तेलुगु चोड शासक गंडगोपाल को पराजित किया, जो युद्ध ही में मारा गया और कांची पर अधिकार कर लिया किंतु बाद में उसके भाइयों को अपने सामंत के रूप में शासन करने दिया। उसने काकतीय नरेश गणपति और एक बाण सामंत को भी पराजित किया जो संभवत: गंडगोपाल के सहायक थे। इन विजयों के उपलक्ष में उसने नेल्लोर में वीराभिषेक किया। जटावर्मन् सुंदर पांड्य को अपने शासन में दूसरे पांड्य राजकुमारों से सहायता मिली थी जिसमें जटावर्मन् वीर पांड्य प्रथम अपनी विजयों के कारण उल्लेखनीय है। अपनी विजयों के द्वारा सुंदर पांड्य ने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार लंका से नेल्लार तक कर लिया था। उसे अपने प्रभाव और वैभव के प्रदर्शन की विशेष रुचि थी। उसन श्रीरंगम् और नेल्लोर में अपना अभिषेक ही नहीं संपन्न किया वरन् कई बार तुलाभार भी किया। उसने कई भव्य उपाधियाँ भी धारण की यथा महाराजाधिराज श्री परमेश्वर, एल्लांदलैयानान्, समस्त जगदाधार, एम्मंडलमुम्-कोंडरुलिय, मरकत पृथ्वीभृत् और राजतपन। अपनी विजयों से प्राप्त प्रभूत धन का उपयोग उसने चिंदंबरम् और श्रीरंगम् मंदिरों को दान देने और सुशोभित करने में किया। उसने दोनों मंदिरों की छतों को हिमाच्छादित किया, चिदंबरम् के मंदिर में एक सोने का संभामंडप बनवाया ओर श्रीरंगम् के मंदिर को १८ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दीं।
जटावर्मन् सुंदर पांडय द्वितीय, मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य (१२६८-१३१० ई.) के राज्यकाल के पूर्वार्ध में संयुक्त शासक था। उसका सिंहासनारोहण १२७६ ई. में हुआ और उसने १२९२ ई. तक राज्य किया।
जटावर्मन् सुंदर पांड्य तृतीय, मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य का ज्येष्ठ पुत्र था और १३०३ ई. से शासन में संयुक्त हुआ था। उसका उपनाम को दंडरामन् था। इस नाम के सिक्के संभवत: उसी के हैं। उसने अपने पिता की हत्या करके अपने भाई जटावर्मन् वीर पांड्य द्वितीय के साथ सिंहासन के लिए दीर्घकालीन संघर्ष किया था। (दे. जटावर्मन् वीर पांड्य द्वितीय)। उसने मदुरा पर अपना अधिकार स्थापित किया था। १३१९ उसके राज्यकाल की अंतिम ज्ञात तिथि है। संभवत: रविवर्मन् कुलशेखर और प्रतापरुद्र द्वितीय की विजयों के बाद उसका अधिकार अधिक समय तक नहीं बना रह सका। (लल्लन जी गोपाल)