जगन्नाथ (पुरी) संसार के स्वामी, विष्णु अथवा कृष्ण को संज्ञा है, किंतु पिछली कई शताब्दियों से इस शब्द का प्रयोग रूढ़रूप से उड़ीसा में स्थित जगन्नाथमंदिर के देवता के लिए होता रहा है। भुवनेश्वर को जगन्नाथपुरी अथव पुरुषोत्तम क्षेत्र कहा जाता है। पुरषोत्तमतीर्थ और जगन्नाथ देवता की उत्पत्ति की चर्चाएँ बहुत बाद में लिखे गए कुछ पुराणों में मिलती हैं (ना.पु., उ.भा., अ. ५२.३, स्क.पु., उ.खं.अ. १८; व्र.पु., अ. ४५.५१)। जगन्नाथमंदिर का निर्माण कलिंग के गंगवंशी राजा चोडगंग ने ११०० ई. के आसपास कराया था। इस मंदिर के साथ १०० से कुछ अधिक ही मंदिर हैं जो शिव और विष्णु जैसे देवताओं के आस्पद हैं। विष्णुचक्र और ध्वज से युक्त १९२ फुट ऊँचे शिखरवाले अत्यंत भव्य जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ (कृष्ण) के अतिरिक्त बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ हैं। कुछ पाश्चात्य विद्वानों के मत में ये त्रिमूर्तियाँ बौद्ध प्रभाव और बौद्धों के त्रिरत्नां-बुद्ध, संघ और धर्म-की सूचक हैं। किंतु भारत में ऐसे मंदिर प्राय: मिलते हैं जहाँ मुख्य देवता के परिवार के अन्य सदस्यों की भी मूर्तियाँ और उपमंदिर बने हैं। तथापि जगन्नाथ के संबंध में ऐसी अनेक रीतियाँ और विश्वास प्रचलित हैं, जो अन्य हिंदू मंदिरों से सर्वथा भिन्न हैं और जिनपर बौद्ध प्रभाव भी दिखाई देता है। उनमें एक तो यह है कि जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर एक अस्थिमंजूषा भी होती है जो समय समय पर (आजकल प्रति १२वें वर्ष) बदलकर नई मूर्ति में स्थापित की जाती है। ये अस्थि-अवशेष कृष्ण के माने जाते हैं, किंतु भारतीय इतिहास में बुद्ध के अस्थि अवशेषों की तरह कृष्ण के अस्थि-अवशेषों की कोई परंपरा नहीं है। असंभव नहीं कि आधुनिक जगन्नाथ मंदिर के स्थान पर प्राचीन काल में कोई बौद्ध स्तूप रहा हो, जिसकी मूल अस्थियाँ जगन्नाथ की मूर्ति में भी स्थापित कर दी गई हों। जगन्नाथ की महिमा और पूजा का सर्वाकर्षक रूप उनकी रथयात्रा (आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को) है। उस अवसर पर भारत के दूरस्थ प्रदेशों से लाखों की संख्या में तीर्थयात्री आते हैं। वहाँ की दूसरी विशेषता यह है कि छुआछूत के सभी भावों को त्यागकर सभी लोग उस मंदिर का महाप्रसाद ग्रहण करते हैं। (विशुद्धानंद पाठक)