जगदेकमल्ल (चालुक्य) कल्याणी के चालुक्य वंश में जगदेकमल्ल के विरुदवाले तीन नरेश हुए हैं। जयसिकंह द्वितीय (१०१५-४२ ई.) ने सर्वप्रथम इस विरुद को धारण किया। अतएव यह जगदेकमल्ल प्रथम के नाम से भी प्रसिद्ध हैं (दे. 'जयसिंह द्वितीय')।
सोमेश्वर तृतीय के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र कल्याणी के सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसके नाम का निर्देश नहीं है। अपने विरुद्ध जगदेकमल्ल के नाम से ही उसका उल्लेख आता है अतएव उसे जगदेकमल्ल द्वितीय (११३८-५५ ई.) कहा गया है। उसके अन्य विरुद्ध थे- पेर्म, प्रताप चक्रवर्तिन् और त्रिभुवनमल्ल। अपने पितामह विक्रमादित्य षष्ठ के समय में ही उसे शासन में विशेष महत्व का पद प्राप्त हो गया था। चालुक्य वंश की क्षीण होती हुई शक्ति का लाभ उठाकर विष्णुवर्धन् होयसल ने अपन राज्य का विस्तार धारवाड़ में बंकारपुर तक कर लिया था, फिर भी वह चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करता था। उसने नरसिंह होयसल के साथ ११४३ ई. के लगभग मालव पर आक्रमणकर जयवर्मन् के स्थान पर बल्लाल को सिंहासन पर बैठाया था। इसके अतिरिक्त लाट, गुर्जर, चोल, कलिंग और नोलंबपल्लव पर भी उसकी विजय का उल्लेख है लेकिन इसमें अतिशयोक्ति की संभावना अधिक है। जगदेकमल्ल को अपना अधिकार बनाए रखने में कई सेनानायकों और सामंतों से सहायता मिली थी। इनमें पेरमाडिदेव सिंद, बर्म्म दंडाधिप और केशिराज दंडाधीश के नाम उल्लेखनीय हैं। ११४९ ई. के लगभग ही जगदेकमल्ल का छोटा भाई तैल तृतीय भी जगदेकमल्ल के साथ शासन में संयुक्त हो गया था। जगदेकमल्ल न एक संवत् की स्थापना की थी किंतु स्वयं उसके राज्यकाल में ही उसका सदैव उपयोग नहीं होता था; उसके शासन के बाद वह शीघ्र ही समाप्त हो गया। 'संगीतचूड़ामणि' जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। कर्णाटक भाषाभूषण, काव्यालोकन और वस्तुकोश का रचयिता नागवर्म द्वितीय उसका उपाध्याय था।
११४६ से ११८१ ई. तक के काल में कल्याणी पर कलचुरि लोगों का अधिकार रहा। किंतु ११६३ में तैल द्वितीय की मृत्यु के बाद भी चालुक्यों ने अपना दावा नहीं छोड़ा। जगदेकमल्ल तृतीय इसी समय हुआ। उसके अभिलेखों की तिथि ११६४ से ११८३ तक है। कदाचित् वह तैल तृतीय का पुत्र था। संभवत: परिस्थिति के अनुकूल वह कभी कलचुरि नरेश का आधिपत्य स्वीकार करता था और कभी स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य करता था। उसके अभिलेख चितलद्रुग, बेल्लारी और दूसरे जिलों से प्राप्त हुए हैं। एक अभिलेख में तो उसे कल्याण से राज्य करता हुआ कहा गया है। विजय पांड्य उसका सामंत था। (लल्लन जी गोपाल)