जगसिंह, राजा यह राजा बासू का बेटा था। सर्वप्रथम यह एक छोटै से मंसब के साथ बंगाल में नियुक्त हुआ। जब इसके भाई सूरजमल ने, जो दक्षिण का शासक नियत था, विद्रोह किया तब बादशाह जहाँगीर ने जगतसिंह को बंगाल से बुलाकर उसका मंसब एकहजारी ५०० सवार का करके और अन्य बहुत सी वस्तुएँ देकर उसे सूरजमल का दमन करने के लिए नियत राजा विक्रमाजीत सुंदरदास की सहायता के लिये भेजा। जहाँगीर के राज्य के अंत में इसका मंसब तीनहजारी १००० सवार तक पहुँचा था। शाहजहाँ के शासन में यही मंसब रहा। बादशाही सेना के कश्मीर से लौटने पर इसे बंगश की थानेदारी और खंगजाति के विद्रोहियों का दमन करने के लिये नियुक्त किया गया।
शाहजहाँ के शासन के १०वें वर्ष यह उस पद से हटा दिया गया और काबुल का सहायक सरदार बनाया गया। जलाल तारीकी के पुत्र करीमदाद को इसने बड़ी चतुराई से गिरफ्तार करवाया था। बताते हैं कि जलाल तारीकी इस्लाम धर्म का विरोधी था। ११वें वर्ष इसे जमींदावर दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा गया। बड़ी वीरता दिखाकर इसने दुर्ग पर प्रभुत्व प्राप्त कर लिया। १२वें वर्ष यह लौटकर आया। इसे पुरस्कार मिला और यह बंगश का फौजदार नियुक्त किया गया। १४वें वर्ष्ज्ञ काँगड़ा की तराई में इसके पुत्र राजरूप को फौजदार नियत किया गया और इसने पर्वतीय राजाओं से भेंट लेने की आज्ञा बादशाह से प्राप्त कर ली। किंतु इसी समय इसके मन में विद्रोह की भावना जगी। इसके लिए बादशाह ने खानजहाँ बारहा सर्द्वद खाँ जफरजंग और असालत खाँ के अधीन सेनाएँ भेजीं और सुल्तान मुरादबख्श को पीछे से भेजा।
जगतसिंह ने अपने अधीनस्थ मदफनूरगढ़ ओर तारागढ़ आदि दुर्गों को बचाने के लिए जमकर युद्ध किया। विजय होती न देखकर खानजहाँ को मनाकर शाहजादे के पास आया। शाहजादे ने इस शर्त पर कि मऊ और तारागढ़ ध्वस्त कर दिए जाएँगे, इसे क्षमा कर दिए।
बादशाह ने अपनी दयालुता से इसे दंड नहीं दिया और इसका मंसब वही रहने दिया।
उसी वर्ष यह दाराशिकोह के साथ कंधार पहुँचकर किलात दुर्ग का प्रध्यक्ष बना। १६४५ ई. में शाहजहाँ ने अमीर-उल-उमरा अलीमर्दान खाँ को शाहजादा मुरादबख्श के साथ बदख्शाँ विजय के लिए नियुक्त किया। उसमें भी इसने अपनी विलक्षण चतुराई का परिचय दिया। तत्पश्चात् यह पेशावर पहुँचकर सन् १६४५ ई. (१०५५ हि.) में मर गया।