गोजरदंश - गोजर काटता है। इसके पैरों के प्रथम जोड़े विषदंत का कार्य करते हैं। यह दंशस्थान पर चिपक जाते हैं। इन्हें हटाना कठिन होता है। इसके विष का प्रभाव समस्त शरीर पर पड़ता है। दंश्स्थान पर वेदना और शोथ होता है। चक्कर आने लगता है। वमन तथा सिर दर्द होने लगता है। वृश्चिकदंश की तरह इसका भी उपचार होता है।
मकड़ी का दंश - प्राय: सभी मकड़ियों में विषग्रंथि होती है। इसके काटने पर दंशस्थान पर लाल उभार दिखाई पड़ता है, मांसपेशियों में सकोच होता है, जिससें पेट में ऐंठन, नाड़ीगति में तीव्रता अथवा चमड़े पर छाले निकल आते हैं। नाड़ीमूल के आक्रांत होने पर नाड़ीमंडल में दर्द उत्पन्नश् होता है। प्राथमिक उपचार के रूप में पोटासियम परमैंगनेट का तनु विलयन दंशस्थान पर लगाते हैं। इसका उपचार वृश्चिक दंश के अनुसार ही किया जाता है।
कुत्ते का दंश - पागल कुत्ते के काटने से जलसंत्रास नामक दुस्साध्य घातक रोग हो जाता है, जिससे रोगी को जल पीने, जल देखने तथा उसके नाममात्र से भय होता है और विचित्र प्रकार के आक्षेप एवं श्वासावरोध के लक्षण उत्पन्नश् होते हैं (देखें जलसंत्रास)। कुत्ते के काटे हुए स्थान को पहले साबुन के पानी से, फिर हाइड्रोजन परॉक्साइड, या प्रबल पोटासियम परमैंगनेट के विलयन से धोते हैं। कार्बोलिक अम्ल से घाव को जलाकर ऐंटिरैबिक (antirabic) की १४ सुई देनी चाहिए। पागल बंदर, गीदड़ या बिल्ली के काटने पर भी पागल कुत्ते के काटने जैसा उपचार किया जाता है।
सर्पदंश - विषैले जंतुओं के दंश में सबसे अधिक भंयकर होता है। इसके दंश से कुछ ही मिनटों में मृत्यु तक हो सकती है। कुछ साँप विषैले नहीं होते और कुछ विषैले होते हैं। समुद्री साँप साधारणतया विषैले होते हैं, पर वे शीघ्र काटते नहीं। विषैले सर्प भी कई प्रकार के होते हैं (देखें उरग)। विषैले सांपों में नाग (कोब्रा), काला नाग, नागराज (किंग कोब्रा), करैत, कोरल वाइपर, रसेल वाइपर, ऐडर, डिस फालिडस, मॉवा (Dandraspis), वाइटिस गैवौनिका, रैटल स्नेक, क्राटेलस हॉरिडस आदि हैं। विषैले साँपों के विष एक से नहीं होते। कुछ विष तंत्रिकातंत्र को आक्रांत करते हैं, कुछ रुधिर को और कुछ तंत्रिकातंत्र और रुधिर दोनों को आक्रांत करते हैं।
भिन्न भिन्न साँपों के शल्क भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। इनके शल्कों से विषैले और विषहीन साँपों की कुछ सीमा तक पहचान हो सकती है। विषैले साँप के सिर पर के शल्क छोटे होते हैं और उदर के शल्क उदरप्रदेश के एक भाग में पूर्ण रूप से फैले रहते हैं। इनके सिर के बगल में एक गड्ढा होता है। ऊपरी ओंठ के किनारे से सटा हुआ तीसरा शल्क नासा और आँख के शल्कों से मिलता है। पीठ के शल्क अन्य शल्कों से बड़े होते हैं। माथे के कुछ शल्क बड़े तथा अन्य छोटे होते हैं। विषहीन सांपों की पीठ और पेट के शल्क समान विस्तार के होते हैं। पेट के शल्क एक भाग से दूसरे भाग तक स्पर्श नहीं करते। साँपों के दाँतों में विष नहीं होता। ऊपर के छेदक दाँतों के बीच विषग्रंथि होती है। ये दाँत कुछ मुड़े होते हैं। काटते समय जब ये दाँत धंस जाते हैं तब उनके निकालने के प्रयास में साँप अपनी गर्दन ऊपर उठाकर झटके से खीचता है। उसी समय विषग्रंथि के संकुचित होने से विष निकलकर आक्रांत स्थान पर पहुँच जाता है।
लक्षण - कुछ साँपों के काटने के स्थान पर दाँतों के निशान काफी हल्के होते हैं, पर शोथ के कारण स्थान ढंक जाता है। दंश स्थान पर तीव्र जलन, तंद्रालुता, अवसाद, मिचली, वमन, अनैच्छिक मल-मूत्र-त्याग, अंगघात, पलकों का गिरना, किसी वस्तु का एक स्थान पर दो दिखलाई देना, तथा पुतलियों का विस्फारित होना प्रधान लक्षण हैं। अंतिम अवस्था में चेतनाहीनता तथा मांपेशियों में ऐंठन शुरू हो जाती है और श्वसन क्रिया रुक जाने से मृत्यु हो जाती है। विष का प्रभाव तंत्रिकातंत्र और श्वासकेंद्र पर विशेष रूप से पड़ता है। कुछ साँपों के काटने पर दंशस्थान पर तीव्र पीड़ा उत्पन्न होकर चारों तरफ फैलती है। स्थानिक शोथ, दंशस्थान का काला पड़ जाना, स्थानिक रक्तस्त्राव, मिचली, वमन, दुर्बलता, हाथ पैरों में झनझनाहट, चक्कर आना, पसीना छूटना, दम घुटना आदि अन्य लक्षण हैं। विष के फैलने से थूक या मूत्र में रुधिर का आना तथा सारे शरीर में जलन और खुजलाहट हो सकती है। आंशिक दंश या दंश के पश्चात् तुरंत उपचार होने से व्यक्ति मृत्यु से बच सकता है।
निरोधक उपाय - कुएँ या गड्ढे में अनजान में हाथ न डालना, बरसात में अँधेरे में नंगे पाँव न घूमना और जूते को झाड़कर पहनना चाहिए।
उपचार - सर्पदंश का प्राथमिक उपचार शीघ्र से शीघ्र करना चाहिए। दंशस्थान के कुछ ऊपर और नीचे रस्सी, रबर या कपड़े से ऐसे कसकर बाँध देना चाहिए कि धमनी का रुधिर प्रवाह भी रुक जाए। लाल गरम चाकू से दंशस्थान को १/२¢¢ लंबा और १/४¢¢ चौड़ा चीरकर वहाँ का रक्त निकाल देना चाहिए। तत्पश्चात् दंशस्थान साबुन, या नमक के पानी, या १ प्रतिशत पोटाश परमैंगनेट के विलयन से धोना चाहिए। यदि ये प्राप्य न हों तो पुरानी दीवार के चूने को खुरचकर घाव में भर देना चाहिए। कभी कभी पोटाश परमैंगनेट के कणों को भी घाव में भर देते हैं, पर कुछ लोगों की राय में इससे विशेष लाभ नहीं होता। यदि घाव में साँप के दाँत रह गए हों, तो उन्हें चिमटी से पकड़कर निकाल लेना चाहिए। प्रथम उपचार के बाद व्यक्ति को शीघ्र निकटतम अस्पताल या चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए। वहाँ प्रतिदंश विष (antivenom) की सूई देनी चाहिए। दंशस्थान को पूरा विश्राम देना चाहिए। किसी दशा में भी गरम सेंक नहीं करना चाहिए। बर्फ का उपयोग कर सकते हैं। ठंडे पदार्थो का सेवन किया जा सकता है। घबराहट दूर करने के लिए रोगी को अवसादक औषधियाँ दी जा सकती हैं। श्वासावरोध में कृत्रिम श्वसन का सहारा लिया जा सकता है। चाय, काफी तथा दूध का सेवन कराया जा सकता है, पर भूलकर भी मद्य का सेवन नहीं कराना चाहिए। (प्रि.कु.चौ.)