छुरीकाँटा के अंतर्गत वे काटनेवाले औजार और छुरियाँ आती हैं जिनका उपयोग घरों में तथा व्यक्तिगत रूप में होता है, जैसे कैंची, कर्तन, उस्तरा, भोजन के समय उपयोग में आनेवाला काँटा और छुरी, जेबी छुरी, पावरोटी काटने की छुरी, कसाई की छुरी, फल और सब्जी काटने की छुरी तथा बागवानी, कपड़ा काटने, बाल काटने, शल्य चिकित्सा आदि में काम आनेवाली कैंचियाँ आदि।
पाषाण युग से ही मनुष्य किसी न किसी रूप में काटनेवाले औजारों का उपयोग करता आ रहा है। आरंभ में इन औजारों के फल पत्थर तथा ताँबा आदि धातुओं के बनते थे। अब फल के लिए कर्तन इस्पात (shear steel) तथा ढालवा इस्पात (cast steel) के अतिरिक्त अविकारी इस्पात (stainless steel) का व्यवहार विशेष रूप से किया जा रहा है।
इस्पात की छड़ से चाकू का फल बनाने में गढ़ाई (forging), दृढ़ीकरण (hardening), मृदुकरण (tempering) तथा अपघर्षण (grinding) किया जाता है। इस्पात की छड़ से फल मशीन या हथौड़े द्वारा इच्छित आकृति में गढ़ा जाता है। अपेक्षित कठोरता एवं कड़ापन लाने के लिय गढ़ा हुआ फल दृढ़ीकरण एवं मृदुकरण की प्रक्रिया से गुजरता है। फल को गरम (इस्पात ७६०° सें. तथा अविकारी इस्पात ८३८° सें. तक) कर शीतलन द्रव (प्राय: जल) में बुझाकर, उसे पुन: १९९° सें. ताप पर गरमकर शीतलन द्रव में बुझाया जाता है। यह दृढीकरण एवं मृदुकरण की प्रक्रिया है। अंतिम प्रक्रिया फल को उचित दृढ़ता एवं कड़ाई प्रदान करती है। दृढ़ीकरण तथा मृदुकरण की प्रक्रिया के पश्चात् फल का अपघर्षण होता है। इसके लिये मनुष्य द्वारा चालित अपघर्षण पत्थरचक्र, अथवा मशीन द्वारा चालित अपघर्षण पत्थर, का उपयोग होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से बालू पत्थर का चक्र हानिकार होने के कारण अब कृत्रिम आपघर्षक (abrasive) चक्र का उपयोग किया जाता है।
अपघर्षण हो जाने के पश्चात् फल में बेंट लगाई जाती है। बेंट के लिए हाथीदाँत, सींग, हड्डी, सोप, सैलूलॉयड, चंदन की लकड़ी, प्लास्टिक, आबनूस, साधारण लकड़ी, सोना, चाँदी, इस्पात तथा अन्य धातुओं का उपयोग होता है। भरत में चाँदी, सोना, सीप, सींग और चंदन की लकड़ी की बेंट का अधिक चलन है। इंग्लैंड में घरेलू उपयोग में हाथीदाँत, सैलूलॉयड तथा हड्डी की बेंट का तथा जर्मनी और अमरीका में चाँदी, चाँदी मुलम्मा तथा निकल की बेंट का चलन अधिक है।
घरेलू उपयोग में आनेवाले चाकुओं में विभिन्न कार्यों के लिए पृथक्-पृथक् चाकू बनते हैं। पावरोटी काटने के लिए आरी की तरह दाँते दार अथवा लहरदार धार का चाकू होता है। केक, पेस्ट्री आदि मिठाइयों को काटने के लिये छोटा चाकू होता है, जिसे टी नाइफ (tea knife) कहते हैं। पहले चाकू बेंट में बने खाँचे में बदं होता था, परंतु बाद में कमानी का प्रोग आरंभ हुआ, जिससे उसके व्यवहार में सुरक्षा बढ़ गई। कमानी लगाने में अधिक दक्षता की आवश्यकता होती है। यदि कमानी ठीक से न लगे तो चाकू को बंद करने और खोलने में कठिनाई होती है। कलम बनानेवाला चाकू कलमतराश (pen knife) कहलाता है। इसके एक सिरे पर बड़ा फल तथा दूसरे सिरे पर छोटा फल होता है और यही छोटा फल कलम बनाने के काम में आता है। जेबी चाकू भी बनाए जाते हैं। इनका फल भोजन करने में काम आनेवाले चाकू की अपेक्षा अधिक दृढ़ किया जाता है।
चित्र. चम्मच और काँटे का निर्माण
चद्दर पर ठप्पा लगाने के पूर्व से लेकर संपूर्ण तैयार होने तक की अवस्थाएँ दिखाई गई हैं।
उस्तरा प्राचीन काल से मानव व्यवहार में आ रहा है। अब इसका फल उत्कृष्ट कोटि के इस्पात का बनाया जाता है। फल की धार पतली बनाने के लिए फल को घर्षित करने के बाद सान लगाई जाती है। उचित दृढ़ता एवं अत्यंत तीक्ष्ण धार उस्तरे के फल की विशेषता है। उस्तरे द्वारा उत्पन्न असुरक्षा से सेफ्टी रेज़र को जन्म दिया। जिलेट नामक व्यक्ति ने इसे पहले पहल बनाया। सेफ्टी रेज़र में धारक (holder), जिसमें रक्षक (guard) लगा रहता है, ब्लेड को सुरक्षित रखता है। रक्षक ब्लेड की धार को त्वचा के ठीक स्पर्श में लाता है। सेफ्टी रेज़र का ब्लेड सीधी धार का होता है और इसका उत्पादन मशीन द्वारा होता है।
काँटा (fork) मध्यकाल तक भोजन करने के उपकरण के रूप में व्यवहार में नहीं आया था। १६वीं शताब्दी में इटली में सर्वप्रथम इसका व्यवहार आरंभ हुआ। भोजन करने तथा अन्य कई कार्यों में काँटा व्यवहृत होता है। भोजन करने का काँटा इस्पात, चाँदी तथा अब विशेषकर अविकारी इस्पात का बनाया जाता है।
कैंची के दोनों भागों को अवपात ठप्पे (drop stamps) से गढ़कर बनाया जाता है। इसके लिए जो इस्पात काम में आता है, वह उस्तरे के इस्पात से घटिया होता है। गढ़ जाने के बाद दोनों भागों को कठोर इस्पात के पेंच द्वारा दो प्रकार से लगाया जाता है। प्रथम विधि में कैंची के दोनों फल एक दूसरे की ओर झुके रहते हैं, जिससे काटनेवाली धारों की समीपता बनी रहे।
अँगूठा और अँगुली फँसाकर सुगमता से कार्य करने के लिए कैंची के फल के दोनों सिरों पर धनुषाकार आकृति घातवर्ध्य ढलाई (malleable casting) के द्वारा बनाई जाती है ओर बाद में इस्पात का फल इन आकृतियों में लगा दिया जाता है। ऐल्यूमिनियम की धनुषाकार आकृतियाँ भी ठप्पा ढलाई (die casting) द्वारा तैयार कर फल में लगाई जाती हैं। ऐसी कैंचियाँ देखने में सुंदर और काम में हल्की होती हैं। बाल काटने, कपड़ा काटने, कसीदा तथा सलमा लगाने, बागवानी तथा शल्यचिकित्स आदि विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न आकृतियों की कैंचियाँ बनाई जाती हैं। (अजित नारायण महरोत्रा)