छीतस्वामी श्री गोकुलनाथ जी (प्रसिद्ध पुष्टिमार्ग के आचार्य ज. सं. १६०८ वि.) कथित दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता के अनुसार अष्टछाप के भक्त कवियों में सुगायक एवं गुरु गोविंद में तनिक भी अंतर न माननेवाले 'श्रीमद्वल्लभाचार्य' (सं. १५३५ वि.) के द्वितीय पुत्र गो. श्री विट्ठलनाथ जी (ज.सं.- १५३५ वि.) के शिष्य थे। जन्म अनुमानत: सं.- १५७२ वि. के आसपास 'मथुरा' यत्र सन्निहिओ हरि: (श्रीमद्भागवत : १०.१.२८) में माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके माता पिता का नाम बहुत खेज करने के बाद आज तक नहीं जाना जा सका है। 'स्वामी' पदवी उनको गो. विट्ठलनाथ जी ने दी, जो आज तक आपके वंशजों के साथ जुड़ती हुई चली आ रही है।
छीतस्वामी का इतवृत्त भक्तमाल जैसे भक्त-गुण-गायक ग्रंथों में नहीं मिलता। श्री गोकुलनाथकृत वार्ता, उसकी 'हरिराय जी (सं.- १६४७ वि.) कृत टीका- 'भावप्रकाश', प्राणनाथ कवि (समय-अज्ञात) कृत 'संप्रदाय कल्पद्रुम', एवं श्रीनाथभट्ट (समय-अज्ञात) कृत संस्कृत वार्ता-मणि-माला, आदि ग्रंथों में ही मिलता है।
छीतस्वामी एक अच्छे सुकवि, निपुण संगीतज्ञ तथा गुणग्राही व्यक्ति थे। 'संप्रदायकल्पद्रुम' के अनुसार यह समय (सं. १५९२ वि.) मथुरापुरी से नातिदूर नए बसे 'गोकुल' ग्राम में गोस्वामी श्री विठ्ठलनाथ के समृद्ध रूप में विराजने का तथा स्वपुष्टिसंप्रदाय के नाना लोकरंजक रूपों और सुंदर सिद्धांतों को सजाने सँवारने का था। श्री गोस्वामी जी के प्रति अनेक अतिरंजक बातें मथुरा में सुनकर और उनकी परीक्षा लेने जैसी मनोवृत्ति बनाकर एक दिन छीतस्वामी अपने दो-चार साथियों को लेकर, जिन्हें 'वार्ता' में गुंडा कहा गया है, गोकुल पहुँचे ओर साथियों को बाहर ही बैठाकर अकेले खोटा रुपया तथा थोथा नारियल ले वहाँ गए जहाँ गोस्वामी विट्ठलनाथ जी अपने ज्येष्ठ पुत्र गिरिधर जी (जं.सं. १५९७ वि.) के साथ स्वसंप्रदाय संबंधीं अंतरग बातें कर रहे थे। छीतू गोस्वामी जी गिरिधर जी का दर्शनीय भव्य स्वरूप देखकर स्तब्ध रह गए और मन में सोचने लगे, 'बड़ी भूल की जो आपकी परीक्षा लेने के बहाने मसखरी करने यहाँ आया। अरे, ये साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम हैं - 'जेई तेई, तेई, एई कछु न संदेह' (छीतस्वामी कृत एक पद का अंश), अत: मुझे धिक्कार है। अरे इन्हीं से तू कुटिलता करने आया? छीतू चौबे इस प्रकार मन ही मन पछतावा कर रही रहे थे कि एकाएक गोस्वामी जी ने इन्हें बाहर दरवाजे के पास खड़ा देखकर बिना किसी पूर्व जान पहचान के कहा 'अरे, छीतस्वामी जी बाहर क्यों खड़े हो, भीतर आओ, बहुत दिनन में दीखे।' छीतू चौबे, इस प्रकार अपना मानसहित नाम सुनकर और भी द्रवित हुए तथा तत्क्षण भीतर जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा साष्टांग प्रणाम कर अर्ज की, ''जैराज, मोई सरन में लेउ, मैं मन में भौत कुटिलता लैके यहाँ आयो हो सो सब आपके दरसनन ते भाजि गई। अब मैं आपके हाथ बिकानों हां जो चाँहों से करौ।'' गास्वामी जी ने 'छीतू' जी के मुख से ये निष्कपट भावभरे बचन सुने और अपने प्रति उनका यह प्रेमभाव देख उनसे कहा - ''अच्छौ, अच्छौ, आगे (भीतर) आऔ- ।'' तथा उठाकर उन्हें गले लगाया, पास में बड़े प्रेम से उन्हें बैठाया। तत्पश्चात् अपने पूजित भगवद्विग्रह के पास ले जाकर उन्हें नाममंत्र सुनायौ। नाममंत्र सुनते ही 'छीतू' जी ने तत्क्षण एक 'पद' की रचना कर बड़े गद्गद् स्वरों में गाया, जो इस प्रकार है :
भई अब गिरिधर सों पैहचान।
कपट रूप धरि छल के आयौ, परषोत्तम नहिं जान।।
छोटौ बड़ौ कछू नहिं देख्यौ, छाइ रह्यौ अभियान।
'छीतस्वामि' देखत अपनायौ, विट्ठल कृपा निधान।।
'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (सं.२) में लिखा हुआ है कि एक बार छीतस्वामी अपने यजमान महाराज बीरबल (ज.सं.- १६३२, या १६४० वि.) के पास अपनी 'बरसौढ़ी' (सालाना चंदा) लेने आगरा गए और उनके यहाँ ठहरे। प्रात: समय सोकर जब वे उठे श्रीवल्लभाचार्य का नामस्मरण किया। बाद में देवगंधार राग में स्वरचित एक पद गाया जिसके बोल हैं - ''श्रीवल्लभ राजकुमार। नहिं मिति नाथ कहाँ लों बरनों, अगनित गुन-गन-सार, 'छीतस्वामि' गिरिधर श्री विट्ठल प्रघट कृष्ण औतार।' अत: महाराज बीरबल ने पद सुना और आपकी गायकी ओर संगीतपरक ज्ञान की मधुर अभिव्यक्ति पर मुग्ध हो गए, पर मन में डरे कि 'कहूँ याहि देसाधिपति (अकबर) सुन लेवें तौ अपने मन में का कहैगौ।' इधर छीतस्वामी शैया से उठ श्री यमुनास्नान करने चले गए। वहाँ से लैटकर आए। पास के श्री ठाकुर जी (मूर्ति) को जगाया, सेवा की और भोगसामग्री सिद्ध कर प्रभु को समर्पण की। बाद में फिर स्वरचित एक कीर्तन पद गाने लगे। बीरबल को यह सब आपका कृत्य अच्छा न लगा। अत: उन्होंने बड़े ही नम्रभाव से छीतस्वामी से कहा- ''आपने सबेरें औरु या समैं जो पद गाए, उन्हें (यदि) म्लेच्छ देसाधिपति सुनि लेइ और माते पूंछै तो मैं कहा उत्तर देंउगो, सो ऐसै न करौ तौ अच्छौ है।'' यै सुनिकें छीतस्वामी बीरबल से बाले- ''राजा, देसाधिपति म्लेच्छ सुनैगो औरु पूंछैगौ जब की बात या समैं तुम पूंछ रहे हो, सो तुम्हहूँ म्लेच्छ जैसे, ही मोहि दीख रहे हौ, सो बरु आज ते मैं तेरौ मुख नाहीं देखौंगो।'' छीतस्वामी बीरबल से यह कह और अपना सामान बांध तथा सालाना बरखासन छोड़ मथुरा वापिस चले आए फिर गोकुल गोस्वामी जी के पास चले गए। उधर बादशाह अकबर ने किसी प्रकार यह सब- छीतस्वामी का आना और अपना सालना बरखासन छोड़कर चले जाना, सुना। उन्होंने बीरबल को पास बुलाया ओर समझाते हुए कहा- 'जो बीरबल, तेरे पिरोहित छीतस्वामी ने तोते कहू झूठी बात तौ कही नहीं, तुमकों वौ बात भूलि गई जब मैं और तू एक 'नवाड़ा (नाव- किश्ती) में बैठे जमना की सैर कर रहे है। जब नबाड़ा गोकुल पोंहचौ देखौ गो. विठ्ठलनाथजी 'ठकुरानी घाट' पै जमना किनारें बैठे आँख मीचें ध्यान में बैठे हैं। मेरे उनके प्रति आदाब बजा लेने पर उन्होंने मुझे आँख मींचे ही मींचे आशीर्वाद दिया था। उस समय मेरे पास एक 'मणि' विशेष थी, जो रोजाना पाँच तोला सोना उगला करती थी। मैंने उसे गुसाईं जी की भेंट कर दी और उन्होंने बिना देखे उस मणि को उसी जमना में डाल दिया; मुझे उनकी यह हरकत अच्छी न लगी और उसे वापिस माँगी। मेरी विशेष जिद पर उन्होंने जमना में हाथ डाल कर वैसी ही हूबहू मुठ्ठी भर मणियाँ निकालकर मेरे सामने रख दीं और कहा 'तिहारी जो मणि हाई वाइ पैहाचॉन कें लै लेउ।' उस समय मैं और तुम दोनों उनका यह हैरतअंगेज़ करिश्मा देखकर बुत बन गए और सोचने लगे कि ऐसा काम सिवा 'खुदा' के और कोई नहीं कर सकता। सो बीरबल वे बात तू भूल गया? और अपने सच्चे पिरोहित से ऐसा कहा। गुसाई जी साच्छात खुदा हैं, इसमें जरा भी फर्क नहीं। यह काम तुझसे अच्छा नहीं हुआ, जो अपने सच्चे खुदापरस्त पिरोहित को वापिस लौटाल दिया- इत्यादि.....।' उधर छीतस्वामी, गोस्वामी जी को गोकुल में न पाकर उनके दर्शनार्थ गोवर्धन चले गए और वहाँ उनके दर्शन किए।' गेस्वामी जी ने उनके आगरें जाइवे के आइवें के समाचर पूँछे, वहाँ कौ सब हाल छीतस्वामी ते सुनिकें आप बड़े प्रसन्न भए। वा समें आपके पास लाहौर के कछु वैष्णव हूँ बैठे हैं सो उनते आपने कही- 'जो तुम्ह पास छीतस्वामी को पठवत हो, सो तुम इनकी भली भाँति सें बिदा करियो। कछु दिन पाछें अपने छीतस्वमी कें एक पत्र दैकें सों बिदा करियो। कछु दिन पाछें अपने छीतस्वमी कों एक पत्र दैकें कह्यौ- जौ तुम्ह या पत्र कां लैकें लाहौर जाउ, वहाँ के वैष्णव तुम्हारी बिदा भलिभाँति सें करेंगे।' यह सुनकर छीतस्वामी ने श्री गुसाई जी से विनती की- 'जैराज, मैं आपको सेवक (शिष्य) कहू भीख माँगने के लियें भयौ नाहीं। बीरबल के पास मेरी बरसौढ़ी' (सालाना चंदा) बँधी ही, सो म्हौं तोर के लातो हो। जब का 'बहिर्मुख' ने म्लेच्छ कौ सौ आचरन कियो में उठिकें चलौ आयै, अब में इन चरनँन कों छोरि के कें कहूं न जाँउगो। वैष्णव हैं कें वैष्णवनँ के घर घर भीख माँगन डोलों, सो जै, अब मोते यै न होइगी।' श्री गो. विठ्ठलनाथ जी उनकी ये निष्कपट वैष्णवों जैसी सच्चे मन की बात सुनकर अति प्रसन्न हुए, और पास में बैठे दूसरे वैष्णवन सों कह्यों 'वैष्णवन कौ धरम ऐसों ई होई हैं वाई ऐसौई क्रनों चाहिएँ...।' बाद में आपने लाहौरवाले वैष्णवन को लिखा- 'छीतस्वामी जी, लाहौर आइ नाहीं सकत हैं, तुम्हीं उन्हें वरष वरष सौ सौ रुपैया उनकों भज दियौ करियो।' जो उन वैष्णवन नें आपकौ ऐसौ पत्र पढ़िकें छीतस्वामी को वरष सौ रुपैय भेज दियौ करते हैं (द्वितीय वार्ता)। अस्तु इन वार्ता उल्लेखों के करण छीतस्वामी जी के जीवन के साथ कितनी ही ऐतिहासिक उलझनें समय के विपरीत लिपट जाती हैं, जैसे 'गो. श्री विट्ठलनाथ जी का गोकुल निवास संप्रदाय में 'मधुसूदन' कृत 'बल्लभवंसावली' के अनुसार सं.- १६२८ वि. कहा सुना जाता है। यह समय गोस्वामी जी के सातवें लालजी (बेटे) घनश्याम जी के उत्पन्न होने का है, अर्थात् आपके प्रथम पुत्र गिरिधर जी, के जन्म (सं. १५९७ वि.) के बाद श्रीगोकुल पधारने और बसने का है। संप्रदाय में मान्यता है कि श्री छीतस्वामी गो. विठ्ठल जी की शरण, 'संप्रदायकल्पद्रुम' के अनुसार सं. १५९२ वि. में आए। अष्टछाप के अन्य कवि- 'कृष्णदास अधिकारी नंददास, चतुर्भुजदास' से पहले...। इसके बाद है। वह सोरों (शूकर क्षेत्र) में प्राप्त आपके वशंज- 'खाव जी' की सं.- १६२८ वि. वली तीर्थयात्रा से प्रारंभ हाकर खावजी के पुत्र वृंदावनदास जी (सं. १६६० वि.) तत्पुत्र- 'यदुनंदन, तपोधन तथा हरिशरण 'जिन्हें सं. १६९६ वि. में जयपुर राज्य की एक गद्दी विशेष 'शेखावत शाखा' के अज्ञातनामा राजा से दानस्वरूप २० बीघा जमीन, छीतस्वामी जी के सेव्य ठाकुर 'श्याम जी' का नया मंदिर तथा मंदिर के पासवाला 'श्याम घाट' का बनवाया जाना तथा जयपुर (राजस्थान) से १६ कोस दूर 'ताय पीर' गाँव के पास 'बाण गंगा' के किनारे 'धलैरा' गाँव का मिलना, जिसका सुव्यवस्थित पट्टा (प्रमाणपत्र) सं. १७०२ वि. में मिलाथा। छीतस्वामी जी का निधन श्री गिरिधर जी १३० ववनामृत कृति के अनुसार सं. १६४२ वि. में 'गास्वी विठ्ठलनाथ जी के निधन के समाचार सुनकर 'गोवर्धन' में यह पद- 'बिहरन, सातों रूप धरे' गाते गाते हुआ था। आपके यश-शरीर की गाथा वहाँ संप्रदाय में 'भगवल्लीला रूप से दिन में 'सुबल सखा' रात्रिसेवा में ललिता जी सहचरी 'पद्ममा' तदनुकूल वर्ण् 'कमल समान, शक्ति- 'दुमाले के शृंगार युक्त विठ्ठलनाथ जी की मूर्ति, जो इस समय 'श्रीनाथ द्वारा (उदयपुर) में विराजमान है, की संध्या आरती में अंगस्थान- 'कटि' कुंज माणिक, ऋतुवर्षा, मनोरथ हिंडोला 'लीलावाल' और स्थान 'बिलकुंड' कहा सुना जाता है।
छीतस्वामी कृत कुछ विशेष साहित्य नहीं मिलता। पुष्टि संप्रदाय में नित्य उत्सव विशेष पर गाए जानेवाले उनके हस्तलिखित एवं मुद्रित संग्रहग्रंथ- 'नित्यकीर्तन', 'वर्षोत्सव' तथा 'वसंतधमार' पदविशेष मिलते हैं। कीर्तन रचनाओं में संगीत सौंदर्य, ताल और लय एवं स्वरों का एक रागनिष्ठ मधुर मिश्रण देखा जा सकता है। (जवाहरलाल चतुर्वेदी)