छायावाद अंग्रेजी में जिसे रोमांटिसिज़्म कहते हैं, हिंदी में उसे छायावाद कहते हैं। यों हिंदी कविता में छायावाद का युग द्विवेदी युग के बाद आया, किंतु उसका आरंभ द्विवेदी युग में ही हो गया था। उससे बहुत पहले बँगला में रवींद्रनाथ की रचनाओं से छायावाद प्रतिष्ठित हो चुका था। सन् १९१३ में 'गीतांजलि' पर रवींद्रनाथ को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उनका काव्यप्रभाव अखिल भारतीय आधुनिक साहित्य पर पड़ने लगा था, हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। द्विवेदीयुग के प्रतिनिधि कवि मैथिलीशरण गुप्त की 'झंकार' (सन्, १९१४-१७) देखने से ज्ञात होता है कि यत्र-तत्र वे भी रवींद्रनाथ की प्रतिभा से प्रभावित हुए।

द्विवेदी युग में छायावाद के विशेष कवि सियारामशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय हैं। सियारामशरण जी की प्रारंभिक पुस्तकों ('मौर्य्य विजय' और 'अनाथ') के बाद की कवितापुस्तकों ('दूर्वादल', 'विषाद', 'पाथेय') में रवींद्रनाथ का काव्यप्रभाव परिलक्षित है। मुकुटधर जी की भी किन्हीं कविताओं में रवींद्रनाथ का प्रभाव है, किंतु शेली के 'टु ए स्काईलार्क' की याद दिलानेवाली उनकी 'कुररी के प्रति', शीर्षक कविता देखने से ज्ञात होती है कि वे अंग्रेजी की उस रोमांटिक कविता से भी प्रेरित थे जिससे स्वयं रवींद्रनाथ भी प्रभावित थे। किशोरावस्था में उन्हें तुतलाता शैली कहा जाता था।

भारतेंदुयुग के बाद द्विवेदीयुग के भाषा और छंद की नवीनता दी थी, द्विवेदीयुग के बाद छायावाद ने भाषा और छंद की नवीनता दी। यद्यपि रवींद्रनाथ उसके कलागुरु थे तथापि हिंदी का छायावादयुग उन्हीं के प्रभाव तक सीमित नहीं रहा, उसने प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और शृंगांर की कविताओं) से भी आदान लेकर आत्मविस्तार किया। उसकी विस्तीर्णता में बौद्ध दर्शन और सूफी दर्शन का भी समावेश हो गया। रवींद्रनाथ ने भी ऐसा ही विशद काव्यानुष्ठान (काव्यसमन्वय) किया था। सभी भारतीय भाषाओं को प्राचीन वाङ्मय का उत्तराधिकार प्राप्त था, फलत: हिंदी में भी छायावाद का सांस्कृतिक और भावात्मक संबंध तीत से स्थापित हो गया था। वह गतिशील था, अतएव अंग्रेजी की रोमांटिक कविता से भी उसका भावात्मक और कलात्मक संबंध जुड़ गया था। उसका हृदय उन्मुक्त था, स्वभावत: वह साहित्य में ही नहीं, जीवन में भी अनंत सृष्टि और असीम विश्व की ओर उन्मुख हो गया था। इसीलिए एक युग, एक दिशा और एक भाषा में आकर भी छायावाद सभी युगों, सभी देशों और सभी भाषाओं से एकात्म हो गया। जैसे सांप्रदायिक सीमाओं को तोड़कर उसने संस्कृति को आत्मसात् किया, इस तरह उसमें सभी युगों और सभी दिशाओं का उपादान एकसार हो गया। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था।

छायावाद की शब्दावली (प्रेम, मूक भाषण, अव्यक्त वेदना, इत्यादि) से सूचित होता है कि उसके भाव अतींद्रिय अथवा अनिर्वचनीय थे। उसके सामने भी सूरदास की तरह 'अविगत गति' (परीक्षा अनुभूति) को अभिव्यक्ति देने की समस्या थी। निर्गुण (रहस्यवाद) में केवल अविगत गति थी, किंतु छायावाद निर्गुण की तरह वीतराग नहीं, सगुण की तरह सानुराग था। वह हिंदी का नवीन सगुण काव्य था। मध्ययुग का सगुण 'अवतार' को लेकर चला था, छायावाद उस स्वात्म को लेकर अग्रसर हुआ था जिसे तुलसीदास ने 'स्वांत:' कहा है। कवि का स्वात्म वह 'चित्त' है जो अपनी ही तरह निखिल सृष्टि को सचेतन रूप में उपलब्ध करता है। इसीलिए छायावाद ने प्रकृति को भी सजीव रूप में देखा। मध्ययुग के सगुण और श्रृगांर काव्य में प्रकृति केवल जड़ उपकरण है, उद्दीपन और अलंकरण का साधन है। छायावाद ने उसे अपना अंत:करण देकर काव्य में एक विशेष भावात्मक सत्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया।

छायावाद का 'छाया' शब्द सूक्ष्मता का बोधक है। वह पंचभूतों को स्थूल रूप (वस्तुरूप) में नहीं ग्रहण करता। छायावाद के काव्यजगत् के लिए भी कवि के शब्दों में यही कहा जा सकता है जो उसने अपने मनोजगत् ('छाया का देश') के लिए कहा है:

यह छाया का देश, कल्पना का क्रीड़ास्थल,

वस्तुजगत् अपना घनत्व खोकर इस जग में

सूक्ष्म रूप धारण कर लेता, भावद्रवित हो।

कवि के केवल सूक्ष्म भावात्मक दर्शन का ही नहीं, 'छाया' से उसके सूक्ष्म कलाभिव्यजंन का भी परिचय मिलता है। उसकी काव्यकला में वाच्यार्थ की अपेक्षा लाक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता है। अनुभूति की निगूढ़ता के कारण अस्फुटता भी है। शैली में राग की नवोद्बुद्धता अथवा नवीन व्यंजकता है।

द्विवेदी युग में कविता का ढाँचा पद्य का था। वस्तुत: गद्य का प्रबंध ही उसमें पद्य हो गया था, भाषा भी गद्यवत् हो गई थी। छायावाद ने पद्य का ढाँचा तोड़कर खड़ी बोली को काव्यात्मक बना दिया। पद्य में स्थूल इतिवृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अतंर्वृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अंतर्वृत्त आ गया। भाव के अनुरूप ही छायावाद की भाषा और छंद भी रागात्मक और रसात्मक हो गया। ब्रजभाषा के बाद छायावाद द्वारा गीतकाव्य का पुनरुत्थान हुआ। छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं- प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार। पूर्वानुगामी सहयोगी हैं- माखनलाल और 'नवीन'।

गीतकाव्य के बाद छायावाद में भी महाकाव्य का निर्माण हुआ। तुलसीदास जैसे 'स्वांत:' को लेकर लोकसंग्रह के पथ पर अग्रसर हुए थे वैसे ही छायावाद के कवि भी 'स्वात्म' को लेकर एकांत के स्वगत जगत् से सार्वजनिक जगत् में अग्रसर हुए। प्रसाद की 'कामायनी' और पंत का 'लोकायतन' इसका प्रमाण है। 'कामायनी' सिंधु में विंदु (एकांत अंतर्जगत्) की ओर है, 'लोकायतन' विंदु में सिंधु (सार्वजनिक जगत्) की ओर। (शाांतिप्रिय द्विवेदी)