छत्तोसगढ़ी भाषा और साहित्य छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिंदी की तीन विभाषाओं में से एक है। यह रायगढ़, सरगुजा, विलासपुर, रायपुर, दुर्ग, जबलपुर तथा बस्तर आदि में बोली जाती है। कहते हैं किसी समय इस क्षेत्र में ३६ गढ़ थे, इसीलिये इसका नाम छत्तीसगढ़ पड़ा। किंतु गढ़ों की संख्या में वृद्धि हो जाने पर भी नाम में कोई परिवर्तन नही हुआ। डा. हीरालाल के मतानुसार छत्तीसगढ़ चेदीशगढ़ का अपभ्रंश हो सकता है। सन् १९२१ की जनगणना के अनुसार इस बोली का प्रयोग करने वालों की संख्या ३७, ५५, ३७३ थी। संभलपुर में तथा उसके आसपास छत्तीसगढ़ी 'लरिया' कहलाती है। छत्तीसगढ़ी मराठी तथा उड़िया भाषाओं से प्रभावित हुई है।

छत्तीसगढ़ी साहित्य में भारतीय संस्कृति के तत्व वर्तमान हैं। इस साहित्य में अनेक लोककथाएँ हैं जिनके मूल भाव भारत की अन्य भाषाओं में भी सामान्य रूप से पाए जाते हैं। कहीं कहीं स्थानीय तथा सामयिक ढंग से इन कथाओं की रोचकता बढ़ गई है। छत्तीसगढ़ी पँवाड़ों के प्रबंधगीत किसी न किसी कहानी पर आधारित हैं। पँवाड़ों के केंद्रविंदु बहुधा ऐतिहासिक है। वीरगाथाओं में राजा वीरसिंह की गाथा प्रसिद्ध है। इसमें मध्यकालीन विश्वासों की प्रचुरता है। कुछ गीतों में देवता के पराक्रम का वर्णन है। श्रवणकुमार संबंधी 'सरवन' के गीत तथा 'सरवन' की गाथा प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ी में ऋतुगीत, नृत्यगीत, संस्कारगीत, धार्मिक गीत, बालकगीत तथा अन्य प्रकार के विविध गीत पाए जाते हैं। लोकोक्तियों तथा पहेलियों की भी कमी नहीं है।

सं. ग्रं. - पं. उदयनारायण तिवारी : (सं.) भारत का भाषा-सर्वेक्षण खंड १, भाग-१, सन् १९५९ मं. सं. राहुल सांकृत्यायन (संपादक) : हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास सं. २०१७ वि.; श्री हीरालाल काव्योपाध्याय : 'ए ग्रामर ऑव द छत्तीसगढ़ी' डायलैक्ट ऑव हिंदी, सन् १९२१'