चौहान दे. 'चाहमान'।

चौहान (चाहमान) राज्य में संस्कृति- सम्राट् शासन के विभिन्न अंगों का प्रमुख था। कुछ कवि सम्राटों को विष्णु का कोई अवतार बतलाते अथवा उनसे तुलना करते थे। चाहमान वंश के नरेशों की उपाधियाँ उनके पद में वृद्धि के साथ बढ़ती थीं। युवराज का भी राज्य में गौरवपूर्ण स्थान होता था। कुछ चाहमान रानियाँ शासन में महत्वपूर्ण भाग लेती थीं। राजदरबार की भव्यता की ओर ध्यान दिया जाता था। अन्य परंपरागत मंत्रियों के अतिरिक्त विद्वानों की सभा बुलाने और उनका सत्कार करनेवाले मंत्री तथा पौराणिक का भी उल्लेख मिलता है। राज्य विषयों, ग्रामसमूहों और ग्रामों में विभक्त था किंतु साथ ही सामंत व्यवस्था भी साम्राज्य के स्वरूप में प्रविष्ट थी। राजा और उनके परिवार के व्यक्तियों के उपभोग के लिये उनकी जागीर या भुक्ति होती थी। संभवत: आरंभ में चाहमान कबीले के सामंतों को राज्य में ऐसी जागीरें मिली थीं। प्रधान सामंत मंडलेश्वर कहलाते थे और उनके अधिकार में मंडल होते थे। साधारण सामंत ठाकुर, राणक अथवा भोक्ता कहलाते थे। सम्राट् की सेना मुख्यत: सामंतों की टुकड़ियों की बनी होती थी। सेना में सबसे अधिक महत्व हाथियों को दिया जाता था। अश्वारोही सैनिक भी चाहमान सेना में अधिक संख्या में होते थे। ऊँट सामान ढोने के काम में आते थे। सेना के उच्च अधिकारी प्रस्थान करते समय सुख और ऐश्वर्य का उपयोग करते थे। चाहमान राज्य में विशेष रूप से उत्तरी भाग में कई सुदृढ़ दुर्ग थे। शत्रु के हाथों दुर्ग को समर्पित करना अति लज्जा की बात थी। ऐसे अवसर पर जौहर के उपरांत सैनिक दुर्ग के द्वार खोलकर जीवन की परवाह न करके युद्ध करते थे। चाहमानों के अभिलेखों में परंपरागत करों के अतिरिक्त तलाराभाव्य' सेलहथाभाव्य, बलाधियाभाव्य और दशंबध के भी उल्लेख मिलते हैं। कभी कभी किसान और परिजन, जो दासों से भिन्न थे, भूमिदान के साथ ही सदैव के लिये हस्तांतरित कर दिए जाते थे। एक अभिलेख में एक नगर के निवासी सम्मिलित रूप से चौकादारी की व्यवस्था करते हैं। न्याय के क्षेत्र में व्यवस्था थी कि ब्राह्मण अभियुक्त को एक गर्दभपत्र देना पड़ता था जिसमें वह घोषणा करता था कि यदि न्यायाधीश के निर्णय से असंतुष्ट होकर वह आत्महत्या करे तो वह गदहे अथवा चांडाल मृत्यु मरे।

मुस्लिम आक्रमण की प्रतिक्रिया में ब्राह्मणों ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिये सामाजिक नियमों की कठोरता बढ़ा दी जिससे विदेशियों के साथ रक्तसम्मिश्रण न होने पाए।

ब्राह्मणों की कई उपशाखा, श्रीमाली, नागर, रायकवाल और दव्या आदि के उल्लेख मिलते हैं। राजपूतों में ३६ कबीले थे जिनमें से कुछ की उत्पत्ति अभारतीय थी किंतु धीरे धीरे वे सभी अपने को क्षत्रिय कहने लगे। दूसरे वर्ण के लोगों की भी, व्यापार करने के कारण, वैश्य वर्ण में गणना होती थी, उदाहरणार्थ अग्रवाल, माहेश्वरी और ओस्वालों की क्षत्रिय उत्पत्ति थी। राज्य में वैश्यों का महत्व ऊँचा था और वे प्राय: मंत्री नियुक्त होते थे। वैश्यों में भी कई शाखाएँ थीं- प्राग्वाट, उकेशवंश, धरकट, दूसर बीसा आदि। इसी प्रकार शूद्रों में भी विभिन्न व्यवसायों के करण उपजातियाँ थीं। राजस्थान में अहीर, कायस्थ, खत्री, जाट और गुर्जर भी अधिक संख्या में थे। अंत्यजों में मेद, भील, मीणा, लावरी, मातंग, डोंब और चांडाल के उल्लेख मिलते हैं।

कन्या का जन्म हर्षकारक नहीं था। प्राय: उच्च घरानों में उनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। राजकन्याओं का विवाह कभी कभी राजनीतिक उद्देश्यों से होता था। स्वयंवर के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। अनुलोम विवाह के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। बहुविवाह की प्रथा भी। उच्च और समृद्ध लोगों में प्रचलित थी। स्त्रियों में सतीत्व का गौरव बढ़ने के साथ ही सती और जौहर की प्रथाओं का प्रचलन बढ़ रहा था। साथ ही उच्च वर्णों में विधवा विवाह की प्रथा समाप्त सी हो रही थी। नर्तकियों और गणिकाओं की संख्या देवमंदिरों और दरबारों में बढ़ गई थी।

पुरुष भी आभूषणों का उपयोग करते थे। जैन धर्म के प्रभाव के कारण शाकाहार की जनप्रियता बढ़ रही थी किंतु क्षत्रिय मांस खाते थे। प्रसिद्ध मंदिर यात्रियों के लिये आकर्षण थे। विभिन्न देवताओं के दल (यात्रा) भी निकलते थे। विभिन्न धर्मों के त्योहारों और पवित्र दिवसों के भी उल्लेख मिलते हैं। वसंतोत्सव जनप्रिय त्योहार था। जैनियों में दीक्षा, प्रतिष्ठा और ध्वजारोपण धूमधाम से मनाए जाते थे।

चाहमान राज्य में राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक कारणों से कई नगरों की स्थापना हुई। इन नगरों का उस युग के सांस्कृतिक जीवन में विशेष योगदान था। राजस्थान के व्यापारी अंतर्प्रांतीय व्यापार में ही नहीं, बल्कि समुद्र के मार्ग से विदेशी व्यापार में भी भाग लेते थे। ब्याज की साधारण दर ३०% प्रतिवर्ष थी। अजयदेव और उसकी पत्नी सोमलेखा ने सिक्के चलाए थे। भिल्लमाल की टकसाल प्रसिद्ध थी। सिक्कों का उल्लेख प्राय: द्रंम के नाम से आता है। कुछ दूसरे सिक्कों के नाम हैं पाठस्थ, द्रंम, द्विवल्लकद्रंम, विंशोपक, लोहटिक, रूपक, टंक, दीनार और जीतल। वस्तुओं के दाम कम थे। व्यापार के कारण राज्य में समृद्धि थी और जनसंख्या का दबाव अधिक न होने के कारण कृषक और साधारण जनता अभाव से त्रस्त नहीं थी। किंतु प्राकृतिक कारणों से जब दुर्भिक्ष आते थे, जैसे १२५५-५८, १२९४ और १३३७ ई. में आए थे, तो अधिक संख्या में जन जीवन की हानि के साथ ही जनता को अवर्णनीय दु:ख उठाना पड़ता था।

विद्यामठों में विद्यार्थी और गुरु दोनों के भोजन वस्त्र आदि का व्यय धनवान व्यक्ति पुण्य के लिये उठाते थे। विग्रहराज चतुर्थ के द्वारा स्थापित सरस्वती मंदिर राज्य के विभिन्न भाग के शिक्षाथियों के लिये आकर्षण का केंद्र था। अजमेर, भीनमाल, आबू और चितौड़ शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे। विग्रहराज चतुर्थ समय समय पर विद्वानों और कवियों की सभाओं का आयोजन करता था। पृथ्वीराज की सभा में जनार्दन और विद्यापति गौड़ जैसे पंडित थे जो दरबार में आनेवालों की विद्वत्ता की परीक्षा करते थे। पंडितसभा में विद्वानों में सभी विषयों पर गहन विवाद और विवेचन होता था। विवाद में जिस विद्वान् की विजय होती थी उसे जयपत्र मिलता था और उसके समर्थक उसका जुलूस निकालते थे। प्रसिद्ध ग्रंथों की प्रतियाँ बनाई जाती थीं जो जैसलमेर, जालोर आदि के ग्रंथभांडारों में रखी जाती थीं।

चाहमान राज्य में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों ही में ग्रंथ रचना हुई। किंतु प्राकृत का महत्व घट गया था। अपभ्रंश में रचनाएँ समय के साथ बढ़ती गईं और अंत में मारवाड़ी रासो, आख्यान, चरित और प्रबंध के रूप में पल्लवित हुई।

कई चाहमान नरेशों की साहित्य में अभिरुचि थी। विग्रहराज चतुर्थ कविबांधव के रूप में प्रसिद्ध था। उदयसिंह भी विद्वान् था। मंत्रियों में पद्मनाभ, यशोवीर और वैजादित्य सफल कवि थे। चाहमान दरबार के संरक्षण में सोमदेव, जयानक और जयमंगल जैसे काव्यकारों ने रचनाएँ कीं। अनुश्रुति चंद बरदाई का नाम पृथ्वीराज तृतीय के साथ जोड़ती है। चाहमान काल में राजस्थान में साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में सुंदर मूल ग्रंथ और महत्वपूर्ण टीकाओं की रचना करनेवाले विद्वानों की लंबी सूची है। इनमें कुछ प्रसिद्ध नाम हैं जिनवल्लभ, जिनदत्त सूरि, जिनपति सूरि, जिनपाल, उपाध्याय, सुमतिगणि, चंद्रतिलक, पल्ह, धर्मघोष और यशोभद्र।

चाहमानों से पूर्व ही बौद्ध धर्म राजस्थान से लुप्तप्राय हो गया था। जैन धर्म और ब्राह्मण धर्म ही चाहमान राज्य में प्रमुख धर्म थे। जैन धर्म को सुधारने का प्रयास हरिभद्र सूरि, उद्योतन सूरि और सिद्धर्षि सूरि ने अपनी रचनाओं द्वारा किया। किंतु सबसे अधिक श्रेय खरतर नाम के गच्छ के आचार्यों को है। इन्होंने विधिमार्ग का प्रतिपादन किया। इनका प्रभाव इनके ग्रंथों, उपदेशों और व्यक्तिगत उदाहरण के कारण अधिक गहरा था। बाद में इन्होंने अपभ्रंश में रचना कर अपने विचार जनसुलभ बना दिए। इन आचार्यों में जिनेश्वर सूरि, अभयदेव सूरि, जिनवल्लभ, जिनदत्त सूरि और जिनपति सूरि उल्लेखनीय हैं। जैन धर्म को कई चाहमान नरेश और मंत्रियों की सहायता प्राप्त थी। वैश्यों में जैन धर्म के अनुयायी बहुत संख्या में थे। जैन धर्म के प्रभाव के कारण ही मांसाहार की मात्रा कम हो गई थी।

पुष्कर के अतिरिक्त अन्य कुछ दूसरे स्थानों पर भी ब्रह्मा के मंदिर थे। किंतु विष्णु के उपासकों की संख्या अधिक थी। ब्राह्मण संप्रदायों में शैव मत सबसे अधिक लोकप्रिय था। शिव की मूर्ति के स्थान पर लिंग का ही प्रचलन था। चाहमान अभिलेखों में कापालिक और पाशुपत संप्रदायों का उल्लेख आता है। शक्ति की आराधना कम जनप्रिय नहीं थी। इसके अतिरिक्त गणपति, दिक्पाल, कार्तिकेय और सरस्वती की भी आराधना होती थी। चाहमान काल में सूर्य की उपासना भी राजस्थान में काफी प्रचलित थी और भीनमाल, ओसिआ और मंडोर उसके प्रसिद्ध केंद्र थे।

कला के क्षेत्र में चाहमान काल में उललेखनीय प्रगति हुई। ओसिआ, झालरापाटन, किराडु, आबू आदि अनेक स्थानों पर अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। ये मंदिर नागर शैली में हैं। इनकी अपनी प्रादेशिक विशेषताएँ हैं जो मध्य भारत में मिलनेवाली प्रवृत्तियों का एक समानांतर रूप दिखलाती हैं। मंदिरों के अतिरिक्त दुर्ग और राजभवनों का भी निर्माण हुआ। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ इन सभी में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। जैसलमेर के मंदिर भी कला की दृष्टि से उच्च कृतियाँ हैं। इस युग के सास बहू नाम के मंदिरों में सुंदर नक्काशी मिलती है।

सं. ग्रं. - दशरथ शर्मा : अर्ली चौहान डाइनेस्टीज़ (लल्लन जी गोपाल)