चौर्य व्यापार (Smuggling) करों या वैधानिक प्रतिबंधों से (Legal prohibition) आँख छिपाकर या उनकी चोरी कर लाभ कमाने के लिये अवैध रूप से मुद्रा, वस्तु या व्यक्तियों का किया गया आयात, निर्यात, अंतर्देशीय या अंतर्प्रातीय व्यापार (क्रय विक्रय की प्रक्रिया) चौर्य व्यापार माना जाता है। स्वतंत्र व्यापार (Free trade) पर कर या प्रतिबंध- विलासमयी विदेशी वस्तुओं के उपयोग की आदत की समाप्ति या उनमें कमी करने के उद्देश्य, विदेशी मुद्रा के अभाव या उसके संकट से मुक्ति, राष्ट्रीय उत्पादन को प्रोत्साहन, राष्ट्रीय उद्योगों के संरक्षण तथा प्रवर्धन, राष्ट्र की आर्थिक योजनाओं के कार्यान्वयन, विदेशी-व्यापार-संतुलन तथा सामरिक एवं दैवी आपदाओं से त्राण पाने आदि के लिये लगाया जाता है। इन करों तथा प्रतिबंधों के कारण या तो वस्तुओं आदि का मूल्य बढ़ जाता है या उनकी माँग बढ़ जाती है। फलस्वरूप प्रतिबंधित तथा अधिक करवाली वस्तुओं आदि के उपयोग के लिये लोगों में सहज स्वाभाविक रुचि बढ़ जाती है। चौर्य व्यापार में करों की चोरी की जाती है, इसलिये वैध रूप से यातायात की हुई वस्तुएँ अवैध माध्यम से उपलब्ध वस्तुओं की अपेक्षा महँगी पड़ती हैं। इस लाभ के कारण लोग इन्हें क्रय करते हैं। जिन वस्तुओं आदि के यातायात पर पूर्ण या सीमित प्रतिबंध हैं वे भी इस अवैध माध्यम से उपलब्ध हो जाती हैं। इसलिये ऐसी अनुपलब्ध वस्तुओं को लोग आदत या ऐसी वस्तुओं की अधिक उपादेयता या ऐसी वस्तुओं के उपयोग के प्रदर्शन की सहज मानवीय दुर्बलता के कारण अधिक मूल्य देकर तथा कानून भंग करके भी लोग क्रय करना अधिक पसंद करते हैं और इस अवैध अनैतिक व्यापार को जीवन प्रदान करने में योगदान करते हैं। ऐडम स्मिथ ने इसलिये इन अवैध व्यापार करनेवालों के प्रति सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए लिखा है कि 'इसमें संदेह नहीं कि चौर्य व्यापार करनेवाले देश के विधान की मर्यादाओं को भंग करने के लिये निश्चय ही अत्यधिक दोषी हैं, तो भी प्राय: वे सहज स्वाभाविक न्याय (Natural Justic) को तोड़ने में असमर्थ हैं क्योंकि सभी दृष्टियों से ऐसे व्यक्ति अति श्रेष्ठ नागरिक माने जाते यदि उनके देश का विधान उस बात को अपराध घोषित न कर देता जिसे प्रकृति कभी भी रोकना नहीं चाहती (वेल्थ ऑव नेशन)।
यद्यपि व्यापार में करव्यवस्था वाले सभी देशों में सदा से ही करों की चोरी होती रही है और स्वतंत्र यातायात व्यापार पर लगे प्रतिबंधों को लुक छिपकर तोड़ा जाता रहा है, तो भी इनका गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन उन राष्ट्रों में होता चला आ रहा है जहाँ आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था का उद्भव, पल्लवन एवं विकास हुआ। यद्यपि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कर चोरी के लिये दंडविधान की व्यवस्था है एवं भारत के मध्यकाल के इतिहास में भी कर चोरी के लिये दंडविधान का उल्लेख यत्र तत्र मिल जाता है, तो भी औद्योगिक प्रगति के आदिदूत इंग्लैंड के आर्थिक इतिहास में इस अनैतिक अवैध व्यापार का क्रमबद्ध विवरण सन् ११९८ ई. से ही उलूक व्यापार (निशाचरी व्यापार) (Owling) के रूप में मिलने लगता है और तब से आज तक निरंतर संसार के सभी औद्योगिक देशों में यथासमय, यथावश्यकता, किसी न किसी रूप में यह वर्तमान रहा है। इंग्लैंड ने ऊन के विदेशी व्यापार पर १२वीं शताब्दी में प्रतिबंध लगया। इन प्रतिबंधां तथा करों से बचने के लिये रात्रि में संगठित रूप से किए गए ऊन के निर्यात का आतंकपूर्ण तस्कर व्यापार उलूक व्यापार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस समय तक आशंका यही थी कि यह चोरी कर विभाग के अधिकारी कराते हैं और न्यायाधीशों पर उनकी ही जाँच का कार्य सौंपा गया। यह व्यापार शताब्दियों तक इंगलैंड के दक्षिण तट से चला और तस्कर व्यापारियों ने जनसहानुभूति भी अर्जित की। समय समय पर इतनी अधिक जनसहानुभूति इन व्यापारियों को प्राप्त होती रही कि जनता भी इसके अवैध कार्यों में स्पष्ट रूप से योगदान करती थी।
यूरोप के औद्योगिक तथा व्यापारिक केंद्रदेशों के तथ्य का सही सही विवरण १४वीं शताब्दी के मध्य मिला और इस अनैतिक व्यापार के लिये सूली तक का दंड अनेक राष्ट्रों ने निर्धारित किया। जब जब कर बढ़े या स्वतंत्र व्यापार पर प्रतिबंध लगा फ्रांस, इंग्लैंड, स्पेन, पुर्तगाल, हालैंड, जर्मनी तथा इटली आदि सभी योरोपीय देशों और अनेक उपनिवेशों में यह अवैध अनैतिक व्यापार गति के साथ चलता रहा। इतना ही नहीं, समय समय पर शत्रु राष्ट्रों ने इसके प्रवर्धन में, आर्थिक संतुलन बिगाड़ने के लिये, सहायता पहुँचाई; इन व्यापारियों से जासूस का काम लिया और इन्हें यथावश्यकता शरण भी दीया। इन व्यापारियों ने राष्ट्रद्रोह का कार्य भी किया है। नेपोलियन के समय फ्रांस और इंग्लैंड के युद्ध में केंट आदि के तत्कालीन तस्कर व्यापारियों ने बड़े पैमाने पर राष्ट्रद्रोह किया था। केवल विदेशी व्यापार के क्षेत्र में ही यह नहीं प्रगट हुआ, अपितु फ्रांस तथा अन्य देशों में, देश के भीतर विभिन्न प्रातों एवं राज्यों में वस्तुगत कर की असमानता या उनपर लगे यातायात संबंधी प्रतिबंधों के कारण देश के भीतर भी यह पनपा। १९वीं शती में फ्रांस में तथा २०वीं शती में भारतवर्ष में यह विशेष रूप से दिखाई पड़ा। वाटरलू के युद्ध (सन् १८१७ ई.) के उपरांत इस व्यापार पर जलसेना एवं तटरक्षकों के कठोर निरीक्षण तथा राष्ट्रों के मध्य हुई संधियों के आधार पर नियंत्रण करने का प्रयास किया जाने लगा; तथा विभिन्न देशों के विधानों में भी यथावश्यक परिष्कार तथा सुधार इसके नियंत्रण तथा उन्मूलन के लिये किया जाने लगा। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (International trade) में करों को कम करने की प्रवृत्ति तथा स्वतंत्र व्यापार को प्रवर्द्धित करने की नीति अपनायी जाने लगी। प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत (सन् १९१८ ई. से १९३९ ई. तक) जर्मनी आदि का योरोप के अन्य देशों से विनिमय दरों में भेद तथा व्यापारिक प्रतिबंधों एवं प्रतिबंधित करनीति ने इसे पुन: उभाड़ा और यह व्यापार फिर चमका। द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण यह भड़कता हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में सभी राष्ट्रों ने उपयोग पर व्यापक नियंत्रण एवं प्रतिबंध को तथा कर को घोर प्रतिबंधित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को युद्ध की परमावश्यक अर्थनीति के रूप स अंगीकार किया। कृष्णमुखी व्यापार (Black Market) की वृद्धि हुई और तस्कर व्यापायियों की पुन: गोटी लाल हुई। युद्धसमाप्ति के उपरांत सन् १९४५ ई. के पश्चात् वह व्यापार और उभड़ा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत संसार के अनेक परतंत्र राष्ट्र स्वतंत्र हुए। आर्थिक दृष्टि से ये अविकसित राष्ट्र आर्थिक निर्माण के लिये नवआयोजन कर रहे हैं। इसलिये इन्हें अपनी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित एवं संरक्षित प्रणाली पर ले चलना पड़ रहा है। पर पुरानी आदत तथा श्रेष्ठ राष्ट्रीय उत्पादन के अभाव के कारण इन राष्ट्रों में इस व्यापार को बढ़ावा मिल रहा है। यह व्यापार न केवल जल अपितु थल एवं नभ के माध्यम से भी होता है और यान, जहाज, मोटर, बैल ऊँट आदि यातायात के सभी साधनों का उपयोग इसके लिये किया जाता है। इन व्यापारियों के लिये परिवहन सेवाओं में कार्य करनेवाले, यात्री और यहाँ तक कि राजदूत भी योगदान करते हुए पाए जा रहे हैं, यद्यपि इसपर कठोर नियंत्रण एवं निरीक्षण की व्यवस्था है। भारतवर्ष में भी द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ से ही तस्कर व्यापार किसी न किसी रूप में बराबर चल रहा है और आर्थिक नवनिर्माण में योजनाबद्ध रूप से लगे हुए स्वतंत्र भारत को तो तस्कर व्यापारियों ने कुछ अर्थों में स्वर्ग समझ रखा था। १९६३ का स्वर्ण-नियंत्रण-अधिनियम इसको निर्मूल करने का इस देश में अन्यतम मौलिक अभियान है। भारत की थल सीमा का अनेक देशों से मिला रहना तथा अल्प समय में हुई इसकी आर्थिक प्रगति एवं यात्रियों को दी जानेवाली विशेष सुविधाएँ तथा विनिमय नियंत्रण एवं प्रतिबंधित व्यापारनीति इसके मूल में हैं। अनेक आर्थिक सिद्धांतों की उपलब्धि भी इससे त्राण पाने के मार्गसधान के कारण हुई जिनमें ग्रेशम का सिद्धांत अति प्रसिद्ध है।
अलग अलग देशों में इसके लिये अलग अलग दंडविधान है जो समय समय पर बदलता रहता है। तस्कर व्यापार के लिये कम्युनिस्ट देशों में प्राणदंड या आजीवन कारावास का विधान है तथा अन्य देशों में सामान की जब्ती, जुर्माना एवं कठोर सजा की व्यवस्था अलग अलग अपराधों के लिये हैं। (सुधाकर पांडेय)