चैतन्यश्री और उनका संप्रदाय बंगाल के नवद्वीप या नदिया नगर में फाल्गुनी पूर्णिमा, सं. १५४२ वि. को श्री चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य हुआ, जब चंदग्रहण लगा हुआ था१ इनके पिता का नाम जगन्नाथ उपनाम पुरंदर मिश्र तथा माता का शचीदेवी था। इनका बाल्यकाल का नाम विश्वंभर था पर यह निमाई, गौर, गौरांग, गौरहरि नामों से भी विख्यात थे। संन्यास लेने पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नाम हुआ। बाल्यकाल ही से इनमें अलौकिकता प्रकट होती थी तथा यह बड़ी चंचल प्रकृति के थे। बालक्रीड़ा में उपद्रव बहुत करते थे। पाँच वर्ष की अवस्था में शिक्षा प्रारंभ हुई तथा नवें वर्ष की उपनयन संस्कार हुआ। इन्होंने पंडित गंगादास से दो वर्ष व्याकरण तथा दो वर्ष साहित्य का अध्ययन किया। दो वर्ष तक विष्णु मिश्र से स्मृति तथा ज्योतिष और सुदर्शन मिश्र से दो वर्ष षड्दर्शन पढ़ा। इसके अनंतर वासुदेव सार्वभौम की पाठशाला में न्याय तथा तर्कशास्त्र पढ़कर श्रोअद्वैताचार्य से वेदों तथा भागवत का अध्ययन किया और विद्यासागर की उपाधि पाई शास्त्रार्थ कने में यह अत्यंत पटु थे और इनके तर्कों को सुनकर इनके सहपाठी क्या अच्छे-अच्छे विद्वान् स्तंभित हो जाते थे। दीधिति के ग्रंथकर्ता रघुनाथ शिरोमणि इनके सहपाठी थे और इन दोनां ने न्याय पर ग्रंथ लिखे थे। इस विषय में इनक विलक्षण बुद्धि देखकर रघुनाथ ने इनके ग्रंथ की पांडुलिपि माँगकर पढ़ी, जब दोनों नाव पर बैठे गंगा पर वायुसेवन कर रहे थे। उन्होंने इस ग्रंथ को देखकर समझ लिया कि इसके रहते उनके ग्रंथ का कुछ भी आदर न होगा और दीर्घ निश्वास लिया। यह देखकर इन्होंने उनकी घबराहट का कारण पूछा और उसे सुनकर कहा कि भाई दुखी न हो, तुम्हारी प्रतिष्ठा में हम बाधा नहीं होंगे और यह विषय भी परमार्थ का नहीं है अत: हम इसे गंगा को समर्पित कर देते हैं। यह कहकर इन्होंने अपनी पुस्तक गंगा में फेंक दी। इस प्रकार सर्वविद्यानिष्णत होने पर १६ वर्ष की अवस्था में सं. १५५९ में इन्होंने अपनी पाठशाला खोली और व्याकरण पढ़ाने लगे। इनका अध्ययन इतना विशद था कि इनके यहँ छात्रों की भीड़ लगी रहती। इसी वर्ष इनका प्रथम विवाह वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीप्रिया जी से हुआ। श्री माधर्वेद्रपुरी के शिष्य ईश्वरपुरी यात्रा करते हुए नवद्वीप आकर कुछ दिन ठहरे और इनके उपदेशों से श्री गौर में प्रेमभक्ति का स्फुरण हुआ। सं. १५६० में श्री गौर ने पूर्व बंग की यात्रा की और अपने पूर्वजों के स्थान श्रीहट्ट गए। इसी यात्राकाल में नदिया में इनकी प्रथम पत्नी का सर्पदंशन से शरीरांत हो गया। यात्रा से लौटने पर इन्होंने अपनी पाठशाला आरंभ की और दिग्विजयी विद्वान् केशवकश्मीरी को साहित्यचर्चां में परास्त कर भक्त बना दिया। इससे यह नदिया के श्रेष्ठतम विद्वान् माने जाने लगे। सं. १५६१ में इनका द्वितीय विवाह श्री सनातन मिश्र की पुत्री विष्णुप्रिया जी से हुआ। इसके दूसरे वर्ष श्री गौर गया गए और वहां पिता का पिंडदानादि कर विष्णुपद का दर्शन करने गए। यहीं एकाएक इनमें ऐसा परिवर्तन हो गया कि यह उद्भट विद्वान् से विनम्र भक्त हो गए। पहले पहल यहीं प्रेमविभोर हो ये मूर्छित हुए और नृत्य कीर्तन किया। गया ही में ईश्वरपुरी से इन्होंने दशाक्षरी मंत्र की दीक्षा ली तथा नवद्वीप लौट आए। किंतु अब ये प्राध्यापक न रहकर हरिभक्ति के व्याख्याता हो गए। यह हरिनाम सकीर्तन तथा भगवद्भक्ति की शिक्षा तथा प्रचार करने में दत्तचित्त हुए और नित्यानंद, अद्वैताचार्य आदि सभी आकर इसमें सम्मिलित हो गए। सं. १५६५ में श्री गौर के महाभाव का प्रकाश हुआ और यह भगवदावतार माने जाने लगे। इनके हरिनाम संकीर्तन तथा श्रीकृष्ण की प्रेमभक्ति का ऐसा प्रचार बढ़ा कि बंग देश ही नहीं सारे उत्तरी भारत का धार्मिक जगत् इससे प्रभावित हो उठा।
प्रेमभक्ति तथा नामकीर्तन के अतिरिक्त श्रीकृष्ण की ब्रजलीला के रसास्वादन का भी इस भक्तमंडली में विशेष प्रचार हुआ और तत्संबंधी लीलास्थली वृंदावन का इसमें बड़ा महत्व था। उस समय वह धोर वन हो रहा था और सभी लीलाओं के स्थान अस्पष्ट तथा अज्ञात हो रहे थे। श्री गौर ने स. १५६५ में पहले लोकनाथ गोस्वामी को भूगर्भ गोस्वामी के साथ वृंदावन भेजा कि वे वहाँ रहकर लीलास्थलों की खोज की। इसके अनंतर भी अपने अनेक शिष्यों को इस कार्य तथा भक्ति के प्रचार के लिये वहाँ भेजा तथा बाद में स्वयं भी गए।
यद्यपि यह दीक्षा लेने के अनंतर नाम मत्र के गृहस्थ बने रहे तथापि हृदय से कृष्ण के अनुरक्त भक्त तथा संसार से विरक्त हो चुके थे। अंत में यह निश्चय कर कि गार्हस्थ्य धर्मं त्यागकर तथा संन्यासी होने पर ही वह अपने मत का देशव्यापी प्रचार कर सकेंगे, इन्होंने सं. १५६६ में केशव भारती से संन्यास की दीक्षा ले ली और इनका सन्यासाश्रम का नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हुआ। माता की आज्ञा से इन्होंने नीलाचल जगन्नाथपुरी में रहना स्वीकार किया और वहीं से स्वमत का प्रचार करने लगे। यहाँ उन्होंने प्रकांड विद्वान् सार्वभौम भट्टाचार्य के स्वज्ञान से प्रभावित कर भक्त बना लिया तथा अवधूत नित्यानंद गोस्वामी को प्रभावित कर गार्हस्थ्य धर्म स्वीकार करने तथा बंग देश में भक्ति का प्रचार करने के लिय पुरी से गृह लौटा दिया। इसके अनंतर श्री गौर दक्षिणयात्रा को निकले। मार्ग में राय रामानंद से भेंट हुई और उनसे आध्यात्मिक चर्चा करने के अनंतर यह श्रीरंगपत्तन पहुँचे। यहाँ वेंकट भट्ट के गृह पर चातुर्मास्य व्यतीत किया तथा उनके पुत्र गोपाल भट्ट गोस्वामी तथा इनकी शिष्यपरंपरा उत्तरी भारत से गुजरात तक इस मत की मुख्य प्रचारक हुई तथा इन्हीं ने स्वसेव्य श्री राधारमण जी का प्रतिष्ठान वृंदावन में किया। इस प्रकार दो वर्षों में दक्षिणयात्रा समाप्त कर यह नीलाचल लौट आए। यहाँ से यह एक बार बंगदेश में गए और उसके उसके अनंतर सं. १५७२ में ब्रज की यात्रा को चले। काशी, प्रयाग होते हुए यह मथुरा पहुँचे और अन्वेषण कर वहाँ के सभी लुप्त लीलास्थानों के दर्शन किए। यहाँ इनका भावावेश बहुत बढ़ गया था अत: इनके अनुचरों ने इन्हें प्रयाग में मकरस्नान करने को उद्यत किया। प्रयाग में रूप गोस्वामी को उपदेश देकर वृंदावन भेजा। यहीं अड़ैल में श्री वल्लभाचार्य जी से भेंट हुई और इसके अनंतर यह काशी आए। यहीं से सनातन गोस्वामी को भी उपदेश देकर वृंदावन भेजा तथा प्रसिद्ध विद्वान् मायावादी प्रकाशानंद सरस्वती को अपने तर्क से प्रभावित कर अनुगत बनाया। इसके बाद यह नीलाचल चले आए। इस प्रकार यात्रा कर इन्होंने प्रेमभक्ति की पवित्र धारा सारे भारत में प्रवाहित कर दी तथा हरिकीर्तन से सारे वातावरण को प्रभावित किया। यह भक्त का अनुपम आदर्श उपस्थित करने को अवतरित हुए थे और उसे पूर्ण रूप से चरितार्थ कर दिया। निर्मल चरित्र, सभी पर समान रूप से दया तथा सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण जो भी इनके संपर्क में आया वह इनका भक्त बन गया। यात्रा से सं. १५७६ के अंत में लौटने पर यह सं. १५९० तक नीलाचल में ही रहे और यहीं यह इसी वर्ष अप्रकट हो गए। इन १८ वर्षों में अहर्निश हरिकीर्तन, भागवतादि का पाठ तथा भजन गायन होता रहा और अनेक प्रसिद्ध भक्त विद्वान् इनके साथ बराबर रहे।
श्री चैतन्य ने स्वयं किसी संप्रदाय के प्रचार का कभी आग्रह नहीं किया। यह केवल कलियुग के जीवों के हितार्थ कृष्ण-भक्ति-तत्व, हरिनाम संकीर्तन तथा सब जीवों पर समान रूप से दया करना, इन्हीं का निरंतर उपदेश देते रहे और भगवादविरह में किस प्रकार भक्त दु:खी रहता है, इसका उन्होंने आदर्श उपस्थित किया। इनके अनुगत विद्वान् भक्तों ने इनके दिव्य उपदेशों तथा सारगर्भित प्रवचनों का आधार लेकर संस्कृत में अनुपम ग्रंथों की रचना की और असम से लेकर गुजरात तक इनके उपदेशों का प्रचार किया। यद्यपि इस संप्रदाय के उदय तथा प्रचार का आरंभ गौड़ प्रदेश में हुआ था तथापि इसके तात्विक एवं शास्त्रीय विवेचन का कार्य वृंदावन ही स हुआ और ये सब ग्रंथ प्रसार के लिये यहीं से श्रीनिवासचार्य की रक्षा में गौडद्य भेजे गए। इसी प्रकार उड़ीसा में प्रचारार्थ श्री श्यामानंद जी ग्रंथों को लेकर गए तथा खूब प्रचार किया। बंगाल में बँगला भाषा में भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचनाएँ हुई और बाद में होती रहीं। बंगाल में श्री नित्यानंद अद्वैताचार्य आदि की वंशपरंपरा तथा उनके शिष्य वर्ग ने इसका निरंतर प्रचार किया और कर रहे हैं। अनेक गौड़ीय मठ स्थान स्थान पर स्थापित हो गए हैं तथा प्रचार कर रहे हैं। वृंदावन में श्री गोपालभट्ट गोस्वामी की शिष्यपरंपरा उन्हीं के सेव्य ठाकुर श्री राधारमण जी के मंदिर के घेरे में रहती हुई आरंभ से अबतक इसके प्रचार में दत्तचित्त हैं। वृंदावन जयपुर राज्य के प्रभावक्षेत्र में था और वैष्णव विरोधियों ने वहाँ के राजा जयसिंह से इस संप्रदाय को अवैदिक बतलाया। इसपर सं. १७७५ के लगभग जयपुर में एक धर्मसम्मेलन हुआ, जिसमें इस संप्रदाय के वयोवृद्ध विद्वान् विश्वनाथ चक्रवर्ती भी निमंत्रित हुए। इन्होंने हुए शिष्य बलदेव विद्याभूषण को जयपुर भेजा जिन्होंने स्वमत की बड़ी विद्वत्ता से पुष्टि की तथा एतत्संबंधी वेदांतभाष्य के अभाव को इन्होंने 'गोविंदभाष्य' लिखकर पूरा किया। इस संप्रदाय के सफल प्रचार का मूल कारण यही था कि श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके अनुगत भक्तों ने विद्वत्ता के साथ-साथ आडंबरहीन निर्मल भक्तिभावना, शुद्ध आचरण तथा त्यागपूर्ण जीवन से जनता पर ऐसा प्रभाव डाला कि वह वशीभूत हो गई। इनके प्रेमभक्ति के प्रचार से ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक में कृष्णभक्ति का अपूर्व संचार हुआ और वे अगणित संख्या में उसी समय इस संप्रदाय के अनुगामी हो गए और होते जा रहे हैं। (ब्रजरत्न दास)