चुंबकत्व, पार्थिव (Terrestrial Magnetism) आज से बहुत वर्ष पूर्व प्राकृतिक चुंबक, चुंबक पत्थर (loadstone), की खोज हुई थी। लोहे का अपनी ओर आकर्षित कर लेना, इस चुंबक का विशेष गुण है। चुंबक की खोज के पश्चात्, नाविक दिक्सूचक का प्रयोग ११वीं शताब्दी से करते आ रहे हैं। कहा जाता है कि चीनियों को ईस से २,६०० वर्ष पूर्व तथा जापानियों को सातवीं शताब्दी में दिक्सूचक का ज्ञान प्राप्त था। परंतु कॉलचेस्टर निवासी, विलियम गिलबर्ट (William Gilbert, सन् १५४०-१६०३), सर्वप्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के संबंध में सही मत प्रकट किया। उन्होंने प्राकृतिक चुंबक पत्थर के गोलाकार टुकड़े पर प्रयोग करके निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी एक बहुत बड़ा चुंबक है और इसके चुंबकीय प्रभाव का कारण इसके ही अंदर है, जब कि उसके समसामयिकों का यह विश्वास था कि दिक् सूचक ध्रुवतारा से निर्देशित होता है।

चुंबकीय तत्व - पृथ्वी पर जहाँ तक मनुष्य और यंत्रों की पहुँच है,

चित्र १.

चुंबकीय क्षेत्र पाया जाता है। यह क्षेत्र आकाश में भी दूर तक विस्तृत है। पृथ्वी से ४,००० मील ऊपर भी इसकी शक्ति धरातल की विद्युत् का १/८ भाग है। इस क्षेत्र का अस्तित्व चुंबकीय सुई से निर्धारित किया जा सकता है। प्राय: दिक्सूचक इस प्रकार कीलित रहता है कि केवल क्षैतिज दिशा में घूम सकता है। दिकसूचक भौगोलिक उत्तर की ओर संकेत नहीं करता। भौगोलिक याम्योत्तर (meridian) चुंबकीय याम्योत्तर के साथ जो कोण बनाता है, उसे दिक्पात, दि (D), कहते हैं (देखें चित्र १ तथा २)। चुंबकीय सुई यदि इस प्रकार संतुलित हो कि ऊर्ध्वतल में स्वतंत्रतापूर्वक घूम सके ता वह क्षैतिज दिशा की ओर संकेत नहीं करती, वरन् इसका उत्तरी ध्रुव (उत्तरी गोलार्ध में) क्षैतिज दिशा से कुछ नीचे की ओर झुका होता है। जो कोण चुंबकीय सुई क्षैतिज तल के साथ बनाती है, उसे चुंबकीय अवपात, अ (I), कहते हैं। चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता का प्रतीक प (F) माना जायगा। इसके क्षैतिज तथा ऊर्ध्व घटकों को क्ष (H) तथा ऊ(Z) से अंकित किया जाएगा। क्ष (H) के पूर्वी और उत्तरी घटकों के प्रतीक क्रमश: य र (X, Y) कहे जायंगे। य, र, ऊ, क्ष, प, दि, अ, (X. Y, Z, H, F, D, I), राशियों को चुंबकीय तत्व कहते हैं। इन राशियों को निम्नलिखित समीकरणों से संबंध किया जा सकता है।

= क्ष+ (F2=H2+Z2)

क्ष= + (H2=X2+Y2)

क्ष=´ कोज्या अ (H=F cos I)

=´ ज्या अ (Z=F sin I)

= क्ष´ ज्या दि (X=H cos D)

= क्ष´ ज्या दि (Y=H sin D)

= स्प दि (Y/X=tan D)

= स्प अ (Z/H=tan I)

किसी स्थान के चुंबकीय तत्व निर्धारित करने के लिये उपर्युक्त तत्वों में से केवल तीन तत्वों की आवश्यकता है। प्राय: (१) क्ष, अ दि (H, I, D) अथवा (२) य, र, ऊ(X, Y, Z) अथवा (३) क्ष ऊ, दि (H, Z, D) प्रयोग में लाए जाते हैं।

चुंबकीय तत्वों की माप - चुंबकीय दिक्पात तथा अवपात कोणों से चुंबकीय क्षेत्र की दिशा निर्धारित होती है। दिक्पात कोण मापने के लिये प्रथम चुंबकीय सुई द्वारा चुंबकीय याम्योत्तर की दिशा का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, तत्पश्चात् चुंबकीय याम्योत्तर तथा भौगोलिक याम्योत्तर के बीच का कोण मापा जा सकता है। अवपात कोण को अवपात सुई से मापा जा सकता है, परंतु इसके लिये जो विद्युद्यंत्र प्राय: प्रयेग में लाया जाता है उसे अवपातप्रेरक कहते हैं। इस यंत्र में एक कुंडली का घूर्णन कराया जाता है, जिसके घूर्णाक्ष की दिशा को बदला और मापा जा सकता है। अक्ष की दिशा को इस प्रकार समंजित किया जाता है कि गैल्वैनोमापी द्वारा कुंडली में शून्य धारा पाई जाती है।

चित्र २. चुंबकीय दिक्पातन, डि (D), प्रदर्शक पृथ्वी का मानचित्र

(काल सन् १९४५)

अब घूर्णाक्ष चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में होता है। इस प्रकार अवपात कोण मापा जा सकता है। अवपात कोण मापने की तीसरी विधि इस प्रकार हो सकती है कि क्षैतिज तीव्रता तथा ऊर्ध्व तीव्रता को पृथक पृथक नापा जाय। तदनंतर निम्नलिखित समीकरण का प्रयोग किया जाय।

स्प अ =

अंतरराष्ट्रीय प्रथानुसार दिक्पात तथा अवपात के मापन में ०.१ कला की यथार्थता स्वीकार की जाती है।

दिक्पात तथा अवपात कोण ज्ञात हो जाने के पश्चात् यदि क्षैतिज तीव्रता माप ली जाय तो शेष तत्वों की गणना की जा सकती है। क्षैतिज तीव्रता मापने के लिय गौस (Gauss) की विधि इस प्रकार है। दोलन चुंबकत्वमापी से एक छड़ चुंबक का आवर्तकाल, क (T) ज्ञात किया जाता है, यदि चुंबकीय छड़ का चुंबकीय घूर्ण म (M) है और अवस्थितित्व का घूर्ण घ (K) है तो स्पष्ट है कि

=

यदि एक अचुंबकीय वस्तु, जिसका अवस्थितित्व का घूर्ण घ (K¢ ) है, चुंबकीय छड़ के साथ रखी जाय तो क (T), क (T¢ ) में परिवर्तित हो जाता है-

क (T) तथा क१ (T¢ ) ज्ञात होने पर उपर्युक्त समीकरणों द्वारा म (M) और क्ष (H) का मूल्यांकन किया जा सकता है। इसके उपरांत चुंबकत्वमापी म/क्ष (M/H) मापा जाता है। म´ क्ष (M´ H) तथा म/क्ष (M/H) के मान ज्ञात हो जाने पर क्षैतिज तीव्रता क्ष (H) की गणना की जा सकती है। अंतरराष्ट्रीय प्रथानुसार चुंबकीय तीव्रता के मापन में १०- गौस की यथार्थता नहीं प्राप्त की जा सकती। गौस विधि पर निर्धारित सबसे यथार्थ उपकरण किउ चुंबकत्वमापी (Kew magnetometer) है।

विद्युतीय विधियों द्वारा क्षैतिज तीव्रता अधिक सरलता एवं यथार्थता से मापी जा सकती है। शुष्टर (Schuster-Smith) कुंडली चुंबकत्वमापी की कुंडली में ज्ञात धारा प्रवाहित कर पृथ्वी के क्षैतिज चुंबकीय क्षेत्र का संतुलित किया जाता है। धारा की मात्रा और पूर्वांशन से क्षैतिज तीव्रता जानी जा सकती है। डाई (Dye) ने इसी प्रकार का एक यंत्र बनाया है, जिसमें ऊर्ध्व तीव्रता मापी जा सकती है। लाकूर (Dr. Lacour) ने ऊर्ध्वबल चुंबकत्वमापी बनाया, जिसमें क्षैतिज तल में स्थित कुंडली का अर्धघूर्णन कराया जाता है। इस घूर्णन का अक्ष क्षैतिज दिशा में होता है। प्रेरित धारा की मापकर पूर्वाशन द्वारा ऊर्ध्वबल ज्ञात किया जा सकता है।

पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र अस्थिर है। चुंबकीय वेधशालाओं में चुंबकीय तत्वों के परिवर्तनों का फोटोग्राफी अथवा अन्य युक्तियों द्वारा निरंतर अभिलेख किया जाता है। प्राय: क्षैतिज तीव्रता, ऊर्ध्व तीव्रता तथा दिक्पात कोण का अभिलेख किया जाता है। संसार में चुंबकीय वेधशालाओं की संख्या लगभग ८० है।

केवल वेधशालाओं में मापे गए तत्वों से पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र विस्तारपूर्वक ज्ञात नहीं होता। अत: इस ध्येय के लिये और अधिक प्रेक्षण अनिवार्य हैं। समय समय पर चुंबकीय सर्वेक्षण नियोजित किए जाते हैं; जिनमें समुद्र तथा भूमि पर चुंबकीय तत्वों को विस्तार से मापा जाता है।

चुंबकीय तत्वों का पृथ्वी पर विस्तार - चुंबकीय तत्वों का पृथ्वी पर विस्तार चुंबकीय मानचित्रों द्वारा जाना जा सकता है। इस मानचित्रों में समचुंबकीय रेखाएँ खींची रहती हैं। समचुंबकीय रेखाएँ उन स्थानों को मिलाती हैं जहाँ किसी एक चुंबकीय तत्व का मान समान होता है। इसी प्रकार समदिक्पाती रेखाएँ समानदिक्पात कोण, समावपाती रेखाएँ समान अवपात कोण एवं समतीव्रता रेखाएँ समान चुंबकीय तीव्रता के स्थानों से गुजरती हैं। दूसरे चुंबकीय मानचित्र में इस प्रकार रेखाएँ खींची जाती हैं कि प्रत्येक स्थान पर रेखा की दिशा क्षैतिज तीव्रता की दिशा में होती है।

सभी समदिक्पाती रेखाएँ ऐसे स्थानों में होकर जाती हैं जहाँ क्षैतिज तीव्रता शून्य तथा अवपातकोण + ९०° होता है। इन स्थानों को अवपात ध्रुव कहते हैं। क्षैतिज तीव्रता की सभी रेखाएँ भी इन स्थानों से होकर जाती हैं। पृथ्वी पर दो मुख्य अवपात ध्रुव हैं, जिनकों स्थिति समय समय पर निकाली गई है। सारणी १ (क) में उत्तरी और १ (ख) में दक्षिणी ध्रुव की स्थितियों का विवरण है :

सारणी १ (क). चुंबकीय उत्तरी ध्रुव की स्थिति

मापन वर्ष
उत्तरी अक्षांश
पश्चिमी देशांतर

पता लगानेवाले वैज्ञानिक

१८३१
७०° १५¢
९६° ४५¢
जे.सी.रॉस (J.C. Ross)
१९०४
७०° ३०¢
९५° ३०¢
आर.आमुंडसेन (R. Amundsen)
१९४८
७३° ००¢
१००° ००¢
पी.एच.सेरसन (P.H. Sersen)

सारणी १ (ख). चुंबकीय दक्षिणी ध्रुव की स्थिति

मापन वर्ष
दक्षिणी अक्षांश
पूर्वी देशांतर

पता लगानेवाले वैज्ञानिक

१८४१ ७५° ००¢ १५३° ४५¢ जे.सी.रॉस (J.C. Ross)
१९०९ ७२° २५¢ १५५° १६¢ डी.मॉसन (D. Mausan)
१९१२ ७१° १२¢ १५०° ४२¢ ई.एन.वेब (E.N. Webb)
१९५२ ६८° ४२¢ १४३° ००¢ पी.मायॉड (P. Mayaud)

श्

चित्र. ३. चुंबकीय क्षैतिज तीव्रता, क्ष (H), प्रदर्शक पृथ्वी का मानचित्र (काल सन् १९४५)

इन ध्रुवों को मिलानेवाली रेखा पृथ्वी के केंद्र से लगभग १,१४० किलामीटर की दूरी से होकर जाती है। इसके अतिरिक्त ऐसे स्थानों पर अवपात ध्रुव पाए गए हैं, जहाँ चुंबकीय खनिज के कारण चुंबकीय क्षेत्र विकृत हो जाता है। वह वक्र जिसपर अवपात कोण शून्य होता है, चुंबकीय निरक्ष कहलाता है। चित्र ३ और ४ में विश्व के मानचित्र हैं, जिनमें पृथ्वी पर क्ष (H) तथा अ (I) के मान (सन् १९४५) क्रमश: दिखाए गए हैं।

ऊर्ध्वबल ऊ(Z) का मूल्य चुंबकीय निरक्ष पर शून्य तथा अवपात ध्रुवों पर लगभग ०.६ गौस पाया गया है। इसके अतिरिक्त क्षैतिज तीव्रता का मान ध्रुवों पर शून्य एवं चुंबकीय निरक्ष पर लगभग ०.३ गौस पाया गया है। इस प्रकार संपूर्ण तीव्रता का मान चुंबकीय निरक्ष पर ०.३ गौस और चुंबकीय ध्रुवों पर लगभग ०६ गौस हुआ। किन्हीं विकृत स्थानों पर संपूर्ण तीव्रता ०३ गौस से कम या ०.६ गौस से अधिक भी पाई जाती है तथा कुछ स्थानों पर संपूर्ण तीव्रता ३ गौस तक पाई गई है।

पृथ्वी के स्थायी चुंबकीय क्षेत्र का गणितीय विश्लेषण - पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है : (१) प (F1), जिसकी उत्पत्ति पृथ्वी के अंतराल में होती है, एवं (२) प (F2), जिसकी उत्पत्ति पृथ्वी की सतह से ऊपर, संभवत: आयनमंडल में बहनेवाली विद्युद्धाराओं से होती है। यह विभाजन पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का गोलीय प्रसंवादी में श्रेणीबद्ध करके किया जाता है। पृथ्वी से क्षेत्रप को (F1) और प (F2) में खंडित करने के पश्चात् एक सूक्ष्म भाग, प (F3) अवशिष्ट रहता है। प (F3) विभव क्षेत्र द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। यदि पृथ्वी का संपूर्ण चुंबकीय क्षेत्र प (F0) है तो प= + + (F0=F1+F2+F3)

गौस ने सर्वप्रथम पृथ्वी के क्षेत्र का विश्लेषण किया ओर यह निष्कर्ष निकाला कि समस्त प्रेषित चुंबकीय बल का कारण पृथ्वी के अंदर ही है, परंतु बायर ने अधिक न्यास का विश्लेषण कर यह पता लगाया कि संपूर्ण क्षेत्र के ९४ प्रतिशत चुंबकीय बल का कारण पृथ्वी के अंदर है। प (F1) के गोलीय प्रसंवादी श्रेणी के प्रथम पद के आधार पर पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के अंदर स्थित कल्पित छड़ चुंबक के क्षेत्र द्वारा व्यक्त किया जा सकता हे, जिसके ध्रुवो को मिलाने वाली रेखा भौगोलिक अक्ष से १२° का कोण बनाती है और पृथ्वी के धरातल को निम्नांकित विंदुओं पर काटती है : (१) उत्तरी ध्रुव, ७८° उत्तर, ६९° पश्चिम तथा (२) दक्षिणी ध्रुव, ७८° दक्षिण, २४९° पश्चिम। इन विंदुओं को अक्षध्रुव कहते हैं। पृथ्वी का चुंबकन असमांग होने के कारण अक्षध्रुवों तथा अवपातध्रुवों की स्थितियाँ पृथक् पृथक् हैं। उत्तरी अक्षध्रुव तथा अवपातध्रुव की दूरी लगभग ६०० मील एवं दक्षिणी अक्ष तथा अवपातध्रुव की दूरी ९०० मील है। गणना द्वारा कल्पित छड़ चुंबक का चुंबकीय घूर्ण ८.२´ १०२५ स.ग्स् (C.G.S.) मात्रक प्राप्त किया गया है। इसके कारण पृथ्वी के चुंबकन की तीव्रता ०.०७५ स.ग.स. (C.G.S.) मात्रक होगी।

अविभव भाग प (F3) की उत्पत्ति परिकल्पित विद्युद्धारा द्वारा की जा सकती है, यदि इस धारा की दिशा निम्न अक्षांश में ऊपर से नीचे और उच्च अक्षांश में इसके विपरीत मानी जाय। इस धारा की अधिकतम मात्रा ०.२ ऐंपियर किलामीटर है। इस निष्कर्ष की सत्यता सत्यता निम्नलिखित रेखीय समाकल

की गणना करके भी प्रमाणित की गई है।

चित्र ४. चुंबकीय अवपात, अ (I), प्रदर्शक पृथ्वी का मानचित्र (काल सन् १९४५)

चुंबकीय तत्वों के मान में परिवर्तन

दीर्घकालीन परिवर्तन - यदि किसी स्थान में चुंबकीय तत्वों के वार्षिक मूल्यों का निरीक्षण किया जाय, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि चुंबकीय तीव्रता के परिमाण तथा दिशा में परिवर्तन होते रहते हैं। क्षैतिज तीव्रता के परिवर्तनों के निरीक्षण से पता चला है कि अधिकतर स्थानों पर तीव्रता घंट रही है। संपूर्ण पृथ्वी की क्षैतिज तीव्रता का समाकलन करने से मालूम हुआ है कि क्षैतिज तीव्रता का औसत मान घटता जा रहा है। क्षैतिज तीव्रता के अतिरिक्त दिक्पात, अवपात तथा चुंबकीय घूर्ण भी परिवर्तित होते रहते हैं। इस प्रकार बायर ने सन् १९२२ में गत अस्सी वर्षा के अभिलेखों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी का चुंबकीय घूर्ण लगभग १/१,५०० प्रति वर्ष की दर से घटता जा रहा है। बायर मत है कि यह परिवर्तन समय में स्थिर नहीं है, अपितु इससे पृथ्वी के चुंबकीय घूर्ण में दीर्घकालिक दोलन का आभास मिलता है। लॉर्ड केल्विन ने प्रतिपादित किया कि चुंबकीय ध्रुव पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर पृथ्वी के भौगोलिक अक्ष की परिक्रमा कर रहा है और इस परिक्रमा का आवर्तकाल लगभग ९६० वर्ष है। ध्रुवों के इस घूर्णन के कारण समस्त पृथ्वी पर दिक्पात तथा अवपात कोण परिवर्तित होते रहते हैं। इस प्रकार लंदन में चुंबकीय बल की दिशा में ४८० वर्ष की अवधि चक्रीय परिवर्तन पाया गया है। दीर्घ कालिक परिवर्तन का सूक्ष्म निरीक्षण करनेपर ऐसे स्थानों का पता चला है जहाँ चुंबकीय तत्वों में अति शीघ्र परिवर्तन हो रहे हैं। इन स्थानों पर क्षैतिज तीव्रता में १०- गौस से अधिक तथा दिक्पात और अवपात कोण में १४ कला प्रति वर्ष से अधिक परिवर्तन हो रहे हैं। अविराम अभिलेख करनेवाली वेधशालाओं के अभिलेख के परीक्षण द्वारा चुंबकीय तत्वों का रूपांतर होने में ११ वर्षीय चक्र का प्रमाण मिला है। जिस वर्ष सूर्य में धब्बों की संख्या अधिक होती है, क्षैतिज तीव्रता न्यूनतम तथा ऊर्ध्व तीव्रता अधिकतम पाई जाती है।

दैनिक परिवर्तन

सौर दैनिक परिवर्तन - किसी वेधशाला में मापे गए चुंबकीय तत्वों में चौबीस घंटों में विशेष परिवर्तन पाए जाते हैं। निम्न तथा मध्य अक्षांशों में दैनिक सौर रूपातंर स (S) उच्च अक्षांशों से भिन्न होता है। निम्न तथा मध्य अक्षांशों में स (S) केवल स्थानीय समय तथा अक्षांश पर निर्भर करता है। और दैनिक परिवर्तन को स (S1) तथा स (S2) में विभक्त किया जा सकता है। स (S1) उन परिवर्तनों का प्रतीक है जो चुंबकीय तत्वों में शनै: शनै: होते हैं। उद्वेलित परिवर्तन का प्रतीक स (S2) रखा गया है। स्थानीय उष्ण मौसम में चुंबकीय तत्वों के दैनिक परिवर्तन का परास अधिक होता है। स (S1) में भी ११ वर्षीय चक्रीय रूपांतर का आभास मिला है। सूर्य में धब्बे जब अकिधकतम होते हैं तब परिवर्तन का आयाम लगभग ५० प्रति शत उन वर्षों की अपेक्षा अधिक होता है जब सूर्य धब्बे न्यूनतम होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि उपर्युक्त परिवर्तन पृथ्वी के घूर्णन तथा सूर्य और पृथ्वी की आपेक्षिक स्थितियों पर निर्भर करता है। फलत: यह निष्कर्ष निकलता है कि सौर दैनिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण सूर्य है।

चित्र ५.

वैज्ञानिकों ने सौर दैनिक परिवर्तन को गोलीय प्रसंवादी में श्रेणीबद्ध किया है। इसी विधि से शुस्टर (Schuster) ने सौर दैनिक परिवर्तन की उत्पत्ति का प्राथमिक कारण पृथ्वी के बाहर बताया है।

चंद्रीय दैनिक परिवर्तन - सौर दैनिक परिवर्तन की भाँति ही चंद्रीय दैनिक परिवर्तन, चं (L) भी होता हे, परंतु चं (L) परिवर्तन स (s) परिवर्तन का लगभग १/१५ भाग है। चं (L) रूपांतरण मुख्यत: केवल स्थानीय चंद्रीय समय तथा चंद्रमा की कला पर निर्भर करता है। चंद्रीय दैनिक परिवर्तन के गोलीय प्रसंवादी विश्लेषण द्वारा ज्ञात किया गया है कि चं (L) क्षेत्र के अधिकांश भाग की उत्पत्ति पृथ्वी से बाहर होती है। जिस भाग का कारण पृथ्वी के अंदर है, वह भी बाह्य भाग द्वारा पृथ्वी में प्रेरित विद्युद्धाराओं से सफलतापूर्वक स्पष्ट किया जा सकता है।

बालफूर-स्टुअर्ट सिद्धांत में 'स' (s) परिवर्तन का कारण उच्च वायुमंडल में बहनेवाली विद्युद्धाराओं पर सूर्यजनित ज्वारभाटा का प्रभाव बताया गया है। इसी प्रकार स्टुअर्ट-शुस्टरवाद के अनुसार चं (L) परिवर्तन की उत्पत्ति चंद्रजनित ज्वारभाटा द्वारा होती है।

चुंबकीय तूफान - चुंबकीय तूफान आने पर चुंबकीय तत्वों में अचानक बड़े परिवर्तन हो जाते हैं। इन परिवर्तनों का परास वहुधा १०- गौस से अधिक होता है। चुंबकीय तूफान का प्रभाव संपूर्ण पृथ्वी पर समक्षणिक होता है। चुंबकीय तूफान बहुधा २७ दिनों के अंतर पर आते हैं तथा इनकी आवृत्ति सूर्यधब्बों पर निर्भर करती है। दैनिक परिवर्तन की भाँति चुंबकीय तूफान का मूल कारण भी पृथ्वी से बाहर है।

मध्य अक्षांश में चुंबकीय तत्वों का रूपांतरित होना केवल तूफान के समय पर निर्भर करता है। आरंभ में क्षैतिज तीव्रता में वृद्धि होती है, इसके पश्चात् कई घंटों तक क्षैतिज तीव्रता में स्थिरता रहती है। तूफान की इस कला को धन कला कहते हैं। कुछ घंटों के बाद क्षैतिज तीव्रता घटती है। इस कला को तूफान की ऋण कला कहते हैं। चुंबकीय निरक्ष पर क्षैतिज तीव्रता में अधिकतम परिवर्तन होते हैं। ऊपरी अक्षांशों में जाने पर रूपांतरण का आयाम घटता है, परंतु ध्रुवों के निकट परिवर्तन की मात्रा में पुन: वृद्धि हो जाती है तथा इनकी विशेषताएँ भी बदल जाती हैं। ऊर्ध्व तीव्रता के परिवर्तन क्षैतिज तीव्रता के विपरीत एवं कम रूपांतरण में होते हैं। चित्र ५ में एक चुंबकीय तूफान के समय कुछ चुंबकीय तत्वों का परिवर्तन दिखाया गया है। एक विशेष प्रकार का चुंबकीय तूफान आनेपर उच्च आवृत्ति के रेडियो तरंग का आयन मंडल से परावर्तन अवरुद्ध हो जाता है। इन तूफानों की अवधि ४५ मिनट या उससे कम होती है।

चुबंकीय तूफान द्वारा होनेवाले चुंबकीय तत्वों के रूपांतर की व्याख्या ऊर्ध्वाकाश में प्रवाहित तीन बृहत् विद्युद्धाराओं द्वारा संभव है। दो धाराएँ उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों के ऊपर प्रवाहित कल्पित की गई हैं। तृतीय धारा चुंबकीय निरक्ष के तल में स्थित लगभग २०० किलोमीटर चौड़े वृत्तज में प्रवाहित होती है।

पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की उत्पत्ति का कारण - यदि हम पृथ्वी के केंद्र से बाहर की ओर चलें तो १,२५० किलोमीटर तक ठोस पदार्थ मिलेगा। तत्पश्चात् ३,४०० किलोमीटर तक तरल पदार्थ तथा उसके बाद शेष ६,४०० किलोमीटर तक पुन: ठोस वस्तु मिलती है। पृथ्वी के आंतरिक भाग में लोहा तथा निकल यथेष्ट मात्रा में पाए जाते हैं। भूचुंबकत्व को पृथ्वी के आंतरिक भाग के स्थायी चुंबकत्व द्वारा स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है, परंतु धरातल से नीचे जाने पर तापमान बढ़ता है और शीघ्र ही कूरी ताप से अधिक हो जाता है। अत: पृथ्वी के आंतरिक भाग का चुंबक होना प्राय: असंभव है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त वाद द्वारा पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की उत्पत्ति का मूल कारण तथा दीर्घकालिक परिवर्तन का कारण स्पष्ट नहीं होता। लारमर (Larmor) ने सन् १९१९ विद्युच्चुंबकीय प्रेरणा द्वारा पृथ्वी के गतिशील, सुचालक तरल पदार्थ में प्रवाहित विद्युद्धाराओं के आधार पर भूचुंबकन को स्पष्ट करन का प्रयास किया है। इस विचार के आधार पर दो प्रेरणावाद निर्दिष्ट किए गए हैं : (१) एलशासर (Elsasser) तथा बुलर्ड (Bullard) का डाइनेमोवाद (Dynamo theory) एवं (२) आलवेनवाद। गुरुत्वाकर्षण, घर्षण, चुंबकीय क्षेत्र तथा विषमांग ऊष्मीय स्त्रोत के संमिलित प्रभाव द्वारा उत्पादित पृथ्वी के सुचालक तरल पदार्थ की गति की गणना प्राय: असंभव है; परंतु कुछ सरल प्रवाहनिकाय इस प्रकार के हैं जिनके द्वारा स्वजनित चुंबकीय क्षेत्र का विकास उस सीमा तक होता है जबकि संपूर्ण प्राप्त ऊर्जा को क्षेत्र स्वयं व्यय कर लेता है। इस विचार पर आधारित प्रेरणावाद द्वारा शून्य दिक्पात की रेखा का पश्चिम की ओर प्रेषित स्त्राव सरलतापूर्वक स्पष्ट किया जा सकता है। प्रेरणावाद के अतिरिक्त पृथ्वी के क्षेत्र की व्याख्या के लिये अन्य दो मुख्य वाद हैं - (१) एंलशासर (Elsasser) के अनुसार चुंबकन की उत्पत्ति पृथ्वी के अंतराल में प्रवाहित तापजनित विद्युद्धारा द्वारा होती है तथा (२) तातेल, तूव और वेस्तीन (Vestine) ने सन् १९५४ में एक सुगम तथा आकर्षक योजना द्वारा पृथ्वी के आंतरि चुंबकत्व का कारण तापविद्युत् तथा हाल प्रभाव बताया है।

अंतरराष्ट्रीय भूभौतिकीय वर्ष (International Geophysical Year) के अंतर्गत भू चुंबकत्व संबंधी प्रेक्षण - अंतर्राष्ट्रीय भूभौतिकीय वर्ष में कई वेधशालाओं में चुंबकीय तत्वों के निरपेक्ष मापन किए गए हैं। इस न्याय से दीर्घकालिक परिवर्तन के अध्ययन तथा यथार्थ चुंबकीय मानचित्रों के निर्माण में सहायता मिलेगी। पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के उप परिवर्तनों का विस्तारपूर्वक प्रेक्षण किया गया है, जिनके आवर्तकाल ५० चक्र प्रति सेकेंड से लेकर एक चक्र प्रति वर्ष तक हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रयोग किए गए हैं जिनसे चुंबकीय तूफान के संबध में अधिक ज्ञान प्राप्त हो सके। जैसा चुंबकीय 'तूफान' शीर्षक लेख के अंतर्गत पहले कहा जा चुका है, चुंबकीय तूफान की उत्पत्ति उच्चवायुमंडल में प्रवाहित तीन बृहत् विद्युद्धाराओं द्वारा संभव है। उपर्युंक्त विद्युद्धाराओं के अध्ययन के निमित्त ध्रुवों तथा चुंबकीय निरक्ष के निकट वेधशालाओं का जाल स्थापित किया गया है। भूमि पर प्रेक्षण के अतिरिक्त रॉकेट तथा कृत्रिम उपग्रहों द्वारा उच्च वातवरण में भी चुंबकत्वमापी भेजे गए हैं। इन प्रयोगों का पूर्ण फल अभी अप्रकाशित है। परंतु १६०° पश्चिम रेखांश पर चुंबकीय निरक्ष के निकट ऊर्ध्वाकाश् में १२१ किलोमीटर की ऊँचाई तक रॉकेट के द्वारा भेजे गए नाभिकीय चुंबकत्वमापी से प्राप्त किए गए फल इस प्रकार हैं : ९७ किलोमीटर की ऊँचाई तक चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता पृथ्वी के केंद्र से दूरी के तीसरे घात की प्रतिलोम अनुपाती है। ९७ किलोमीटर से ऊपर क्षेत्र की तीव्रता अधिक शीघ्रतार्पूक घटती है। इससे पता चलता है कि इस ऊँचाई पर एक विद्युद्धारा चुंबकीय निरक्ष के ऊपर पूर्व दिशा में प्रवाहित है। यह धारा ९७ किलोमीटर से ११० किलोमीटर की ऊँचाई तक पाई गई है।

मानव जीवन में भूचुंबकत्व के उपयोग - समुद्री जलयान तथा वायुयान में दिशा निर्धारित करने के लिये चुंबकीय सुई प्रयोग में लाई जाती है। चुंबकीय युक्तियों द्वारा (१) खनिज लोहा (मैगनेटाइट तथा हीमाटाइट), (२) बहुमूल्य अचुंबकीय खनिज, जिनमें चुंबकीय धातुओं का मिश्रण होता है तथा (३) तेलक्षेत्र की स्थितियाँ ज्ञात की जाती हैं। चुंबकीय सर्वेक्षण द्वारा पृथ्वी के धरातल के नीचे स्थित चट्टानों की बनावट की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। बहुधा अवपातसुई निर्माण कार्य में गड़ी हुई चुंबकीय वस्तुओं का पता लगाने के लिये प्रयोग में लाई जाती है।

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