चुंबकत्व का विकास चुंबक पत्थर, या मैग्नेटाइट नामक खनिज के प्रति लोले के आकर्षण के अध्ययन के फलस्वरूप हुआ है। कुछ शतक पूर्व जानकारी हुई कि चुंबक पत्थर निर्बाध घूर्णन की सुविधा प्राप्त होने पर एक निश्चित दिशा में स्थिर होता है। १२वीं शती में ही इस जानकारी से समुद्र में दिशा का पता लगाया जाने लगा था। १२६९ ई. में पीट्रस पेरेग्राइनस द मारिकोर्ट (Petrus Peregrinus de Maricourt) ने एक गोलाकार चुंबक पत्थर की बलरेखाएँ ज्ञात की और सिद्ध किया कि प्रत्येक प्रत्येक चुंबक के दो ध्रुव होते हैं। विलियम गिलबर्ट (William Gilbert) ने पृथ्वी को उत्तरोन्मुख और दक्षिणोन्मुख ध्रुवोंवाला विशाल चुंबक बताया। उसने यह भी सिद्ध किया कि सजातीय ध्रुवों में प्रतिकर्षण होता है और विजातीय ध्रुवों में आकर्षण। १७८५ ई. में कूलंब ने प्रतिलोमवर्ग नियम प्रतिपादित किया। १८५१ ई. में हैन्स क्रिश्चियन ओस्टेंड (Hans Christian Oersted) ने अविष्कार किया कि किसी तार में विद्युत् प्रवाहित करने पर तार कीलित् कुतुबनुमा की सुई को विचलित करता है, बशर्ते तार सुई की मूल स्थिति के समांतर हो। इस खोज से विद्युद्धारा और चुंबकीय क्षेत्र में संबंध के अस्तित्व की पुष्टि और विद्युच्चुंबकत्व (Electromagnetism) नामक विज्ञान की नई शाखा का जन्म हुआ। ऐंपेयर (Andre Marie Ampe're) ने सिद्धांतत: और प्रयोगत: विद्युद्वाराओं के सहवर्ती चुंबकीय क्षेत्रों के संबंध में नियम प्रतिपादित किया। इसके अनुसार तार-कुंडलि और चुंबकीय क्षेत्र में सापेक्ष गति से विद्युद्वाहक बल (Electromotive force) उत्पन्न होता है। यह आविष्कार विद्युच्छक्ति उत्पादन और वितरण का आधार बना।
१७७८ ई. में ब्रगमान्स (S.J. Brugmans) ने देखा कि बिस्मथ और ऐंटिमनी चुंबक के ध्रुवों से प्रतिकर्षित होते हैं। इस आविष्कार पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। १८४५ ई. में फैरेडे ने इसे महत्वपूर्ण समझा और सिद्ध किया कि चुंबकत्व सर्वव्यापी घटना है। उसने विषम चुंबकत्व, समचुंबकत्व ओर लोह चुंबकत्व का अंतर स्पष्ट किया। क्यूरी (Pierre Curie) ने सिद्ध किया कि विषमचुंबकत्व ताप से नहीं प्रभावित होता औ समचुंबकीय चुंबकप्रवृत्ति (susceptibility) ताप की प्रतिलोमानुपाती होती है। घूर्ण चुंबकीय (gyro-magnetic) प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि लोह चुंबकत्व का कारण इलेक्ट्रॉन भ्रमि है। हाइसनबर्ग (W. Heisenberg) ने तरंग-यांत्रिक के आधार पर लोह चुंबकत्व की व्याख्या की है। फेराइट के अध्ययन से एक नए चुंबकीय गुण फेरिचुंबकत्व (Ferrimagnestism) की जानकारी हुई है। नेईल (Neel) ने प्रतिलोहचुंबकत्व (Antiferromagnetism) का आविष्यकार किया है, जो अबतक केवल सैद्धांतिक महत्व का ही है।
आधारभूत संकल्पनाएँ - चुंबकिय पदार्थ के चतुर्दिक् वह स्थान, जिसमें चुंबक का प्रभाव पाया जाय, चुंबकीय क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में आकर अचुंबकित लोहा प्रेरित चुंबकत्व (induced magnetism) प्राप्त कर लेता है। यह क्षेत्र एक समान भी हो सकता है और नहीं भी। पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी व्यापक स्थान तक एक समान माना जा सकता है। यदि कोई छड़-चुंबक क्षैतिज समतल में निर्बाध घूर्णन के लिये लटकाया जाय, तो वह मोटे तौर पर उत्तर दक्षिण दिशा में स्थिर हो जाता है। छड़ पर समांतर बलों के दो तंत्र काम करते हैं, जिनका परिणामी उसके प्रत्येक सिरे के एक बिंदु या छोटे से क्षेत्र से गुजरता प्रतीत होता है। ये बिंदुध्रुव हैं। गणना के लिय चुंबकत्व इन्हीं ध्रुवों पर स्थित माना जाता है। ध्रुवों को मिलानेवालो रेखा चुंबकीय अक्ष कहलाती है।
इकाई ध्रुव एक सेंटीमीटर दूर स्थित समान और सजातीय ध्रुव को एक डाइन बल से प्रतिकर्षित करता है। चुंबक का ध्रुव सामर्थ्य (pole strength) इकाई ध्रुवों की वह संख्या है जिसके बराबर चुंबक का प्रत्येक ध्रुव है। शून्यक में किसी चुंबकीय क्षेत्र में, निश्चित बिंदु पर इकाई ध्रुव पर जो बल कार्यरत होगा वह उस क्षेत्र की शक्ति या चुंबकीय तीव्रता की माप होगी और उसकी चुंबकीय तीव्रता इकाई होगी, यदि इकाई ध्रुव पर १ डाइन बल कार्यशील है।
इकाई उत्तरोन्मुख ध्रुव को एक निश्चित बिंदु ख से दूसरे निश्चित बिंदु क तक ले जाने में जो कार्य करना पड़ेगा उसे क और ख के बीच का विभवांतर कहते हैं। यदि ख अनंत दूरी पर स्थित हो, तो यह कार्य क का विभव कहलाता है। म सामर्थ्य के किसी वियुक्त ध्रुव (isolated pole) से र दूरी पर तीव्रता म/र२ होगी और विभव म/र ।
चुंबकीय क्षेत्र के किसी बिंदु पर रखा हुआ कोई एकाकी उत्तरोन्मुख ध्रुव जिस दिशा में चलने के लिय प्रेरित होगा उसे उस बिंदु पर बल रेखा की दिशा कहते हैं। एक समान क्षेत्र की सभी बल रेखाएँ समांतर होती हैं। किसी बिंदु पर बलरेखाओं के लंबवत् स्थित इकाई क्षेत्र से यदि एक ही बलरेखा गुजरती हो, तो उस बिंदु पर इकाई तीव्रता होती है। चूँकि इकाई ध्रुव से १ सेंटीमीटर दूर ४p वर्ग सेंटीमीटर सतह क्षेत्र की तीव्रता १ ओस्टेंड होती है, अत: इकाई उत्तरोन्मुख ध्रुव से ४p रेखाओं का निकलना आवश्यक है। इकाई उत्तरोन्मुख ध्रुव से निकलकर इकाई दक्षिणोन्मुख ध्रुव में समाप्त होनेवाली बलरेखाओं का एक पुंज इकाई बलनलिका कहलाती है और इसमें ४p रेखाएँ होती हैं।
ध्रुव सामर्थ्य और ध्रुवों के बीच की दूरी का गुणनफल चुंबक का चुंबकीय घूर्ण कहलाता है। प्रति इकाई अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल में चुंबकीय ध्रुव सामर्थ्य की मात्रा चुंबकन की तीव्रता कहलाती है।
सतह की अभिलंब (normal) दिशा में एक समान चुंबकित पदार्थ की पतली चद्दर को, जिसके एक ओर उत्तरोन्मुख और दूसरी ओर दक्षिणोन्मुख ध्रुव है, चुंबक पट्टिका (magnetic shell) कहते हैं। इसके किसी भी बिंदु पर पट्टिका का सामर्थ्य उस बिंदु पर पट्टिका की मोटाई और चुंबकन की तीव्रता (intensity of magnetisation) का गुणनफल है।
द दूरी पर स्थित म१ और म२ सामर्थ्यवाले दो ध्रुवों के बीच म१´ म२/द डाइन बल होता है। यदि ध्रुव किसी माध्यम में स्थित हों, तो यह बल म१´ म२/m द हो जाता है। m एक अचल है, जिसे माध्यम की पारगम्यता कहते हैं। m पारगम्यता के माध्यम में १ ओस्टेंड चुंबकीयक्षेत्र की तीव्रता m रेखा प्रति सेंटीमीटर२ से प्रदर्शित की जाती है। m पारगम्यता के माध्यम की रेखाओं की कुल संख्या को चुंबकीय फ्लक्स कहते हैं। किसी इकाई क्षेत्र के लंबवत् गुजरनेवाली रेखाओं की संख्य चुंबकीय प्रेरणा या फ्लक्स घनत्व कहलाती है। चुंबकीय प्रेरण की इकाई गौस है। m पारगम्यता के माध्यम में यदि क्षेत्रीय तीव्रता है ओस्टेंड है, तो चुंबकीय प्रेंरणा ब= m ह गौस होगा। चुंबकन की तीव्रता और चुंबकीय क्षेत्र का अनुपात चुंबकीय प्रवृत्ति कहलाती है। पदार्थो को प्रवृत्ति के आधार पर तीन वर्गो में बाँट सकते हैं : विषमचुंबकीय, समचुंबकीय और लोहचुंबकीय। पहले दो वर्गीय पदार्थो की सुग्राहिता साधारणतया कम होती है। विषमचुंबकीय पदार्थ की सुग्राहिता ऋणात्मक और धनात्मक समचुंबकीय पदार्थो की तुलना में बहुत ही कम होती है। लोहचुंबकीय पदार्थो की सुग्राहिता घनात्मक होती है। यदि पदार्थ संतृप्त न हो, तो यह प्राय: बहुत अधिक होती है। यह प्रयुक्त क्षेत्र ओर पदार्थ के चुंबकीय इतिहास (magnetic history) पर निर्भर है। यदि उत्तेजक क्षेत्र हटा लिया जाय, तो विषम चुंबकीय और समचुंबकीय पदार्थो का चुंबकन लुप्त हो जाता है, किंतु लोहचुंबकीय पदार्थ अवशिष्ट या स्थायी चुंबकन प्रदर्शित करते हैं।
चुंबकीय क्षेत्र उत्पादन, चुंबकीय क्षेत्र ओर सुग्राहिता की माप - चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिय स्थायी चुंबक या विद्युच्चुंबक का प्रयोग किया जाता है। आजकल स्थायी चुंबकका प्रयोग करना ही अधिक अच्छा समझा जा रहा है। पहले पहल कृत्रिम चुंबक तैयार करने के दो ही तरीके थे : इस्पात को चुंबक से रगड़ना, या उसे पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में रख छोड़ना। अब विद्युद्धारा के चुंबकीय क्षेत्र से लाभ उठाया जाता है। पदार्थ और चुंबक की आकृति का चुनाव आवश्यकताओं के अनुसार होता है। स्थायी चुंबकों की दो प्रधान त्रुटियाँ हैं। पहली यह कि हम चुंबकीय क्षेत्र में निरंतर हेरफेर नहीं कर सकते और दूसरी यह कि इनसे १०,००० ओर्स्टेड से अधिक क्षेत्र पाना संभव नहीं है।
विद्युच्चुंबकों में यह लाभ है कि उनका चुंबकत्व घटाया बढ़ाया जा सकता है। सरलतम विद्युच्चुंबक वह परिनालिका (solenoid) है जिसमें क्षेत्र विद्युद्वारा तथा प्रति इकाई लंबाई में लपेटों की संख्या के गुणनफल का समानुपाती होता है। यदि धारा की वृद्धि की जाय तो तार गरम हो जाता है, जिससे प्रतिरोध बढ़ता है और दूसरे विसंवाहन (insulation) नष्ट हो जाता है। इस प्रकार परिनालिका १,००० ओस्टैंड तक सीमित है। इस कठिनाई को हल करने के दो उपाय हैं। एक तो उत्पन्न ऊष्मा को हटाना और दूसरा लोहक्रोड (iron core) के प्रयोग से चुंबकीय क्षेत्र को संकेंद्रित करना। लोहक्रोड परिनालिका ५०,००० ओस्टेंड से कम चुंबकीय क्षेत्र उत्पादन के लिये सीमित है। इससे अधिक क्षेत्र के लिये लोहक्रोड की उपस्थिति लाभप्रद नहीं होती। उच्चतर क्षेत्र उत्पादन के लिये लपेटों का शीतलन (cooling) किया जाता है। परिनालिका या लोहक्रोड चुंबक द्वारा अधिक से अधिक १,००,००० ओस्टेंड सतत क्षेत्र (continuous field) प्राप्त हो सकता है। इससे बहुत ही थोड़े समय के लिय अत्यधिक क्षेत्र प्राप्त हो सकता है, क्योंकि अत्यधिक धारा का प्रयोग बहुत ही कम समय तक बिना अधिक ऊष्मा उत्पन्न किए हो सकता है। कपित्सा (Kapitza) ने लगभग, ४,००,००० ओस्टेंड क्षेत्र सेकंड के कई हजारवें अंशों के लिये, सीसा संचायक (lead accumulator) की बड़ी बैटरी को निम्न प्रतिरोध कुंडली (low resistance coil) से जोड़कर, प्राप्त किया। आजकल थोड़े समय के लिये बड़े क्षेत्र उत्पादन के लिए, उच्च विभव पर आविष्ट (charged) धारित्र (condenser) को निराविष्ट (discharge) करने के आधार पर नई विधि बनी है। कई इंजीनियरी समस्याओं की विजय के बाद अब ७,००,००० ओस्टेंड क्षेत्र उत्पादन संभव हो गया है।
चुंबकीय क्षेत्र की माप - चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता के मापन की साधारण विधि प्रक्षेपक धारामापी (ballistic galvanometer) या फ्लक्समापी (fluxmeter) के प्रयोग की है। इनमें फ्लक्समापी अधिक संतोषप्रद है। फ्लक्समापी असल में चलकुंडल धारामापी (moving coil galvanometer) है, जिसके कुंडल की मांउटिंग ऐसी होती है कि निलंबन उपेक्षणीय प्रत्यानयन बलघूर्ण (restoring torque) का प्रयोग करता है। साथ ही विद्युचुंबकीय के अतिरिक्त अन्य उद्गमों का अवमंदन बहुत कम होता है, आदर्शत: शून्य। एक शोधकुंडली (search coil) और एक छोटी समतल कुंडली फ्लक्समापी से जोड़कर इस प्रकार रखी जाती है कि उसका समतल मापनीय क्षेत्र के लंबवत् रहे। कुंडली को क्षेत्र से शीघ्रतापूर्वक हटाया जाता है।
इससे सूत्र एन.ए.एच.= के. q (NAH= K q ) प्राप्त होता है।
यहाँ ए (A)= शोधकुंडली का प्रभावी क्षेत्रफल, एच (H)= चुंबकीय क्षेत्र, एन (N)= लपेटसंख्या तथा के (K)= उपकरण का नियतांक है, जिसका मान ज्ञात करने के लिये ज्ञात क्षेत्र में शोधकुंडली का प्रयोग करना चाहिए।
उपर्युक्त सूत्र के अनुसार फ्लक्समापी में q विक्षेप होता है। एन.ए.एच. फ्लक्स का कुल परिवर्तन है। प्रक्षेपक धारामापी में प्रवाहित आवेश (charge) इसका अनुपाती है। इस विधि से शोधकुंडली की अनुप्रस्थ काट में औसत क्षेत्र ज्ञात होता है।
यदि किसी धातुपट्टी को, जिसमें धारा प्रवाहित हो रही हो, चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाय, तो पट्टी के आरपार लंबवत् चुंबकीय क्षेत्र में विद्युद्धाराओं के घूर्णन के फलस्वरूप विभवांतर उत्पन्न हो जाता है। किसी निश्चिम प्रतिदर्श (sample) और निश्चित धारा के लिये यह वोल्टता, जिसका नाम हाल (Hall) वोल्टता है, चुंबकीय क्षेत्र के परिमाण की प्रथम संनिकटन (first approximation) तक अनुपाती है। १०० ओस्टेंड से अधिक क्षेत्र में और अल्प चालन धारा (driving current) द्वारा जमेंनियम धातु में सरलतया मापनीय वोल्टता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रभाव का प्रयोग गौसमापी में किया गया है।
चुंबकीय क्षेत्र में यदि किसी कुंडली को उसके समतल में स्थित अक्ष के चतुर्दिक् घूर्णित किया जाय, तो उसे काटनेवाली बलरेखाएँ परिवर्तित होती हैं, जिससे कुंडली में प्रत्यावर्ती विद्युद्वाहक बल (alternating electromotive force) उत्पन्न होता है। प्रत्यावर्ती वोल्टता क्षेत्र का परिमाण मापने के काम आती है। मापनसूत्र है :
बी= एन.ए.एच. डब्ल्यू´ १०- ८ (V= NAHW´ 10- 8) यहाँ वी (V)= उत्पादित शिखर वोल्टता (peak voltage), एन (N)= लपेटसंख्या, ए (A)= कुंडली का प्रभावी क्षेत्रफल, डब्ल्यू (W)= कोणीय वेग तथा एच (H)= घूर्णन अक्ष के लंबवत् चुंबकीय क्षेत्र का अधिकतम संघटक (mximum component) है। प्रतिबंध यह है कि डब्ल्यू स्थिर रहे।
सुग्राहिता की माप - दो विधियाँ प्रमुख हैं : (१) गूई (Gouy) की विधि, (२) क्यूरी की विधि। क्यूरी की विधि से अल्प परिमाण में प्राप्त पदार्थ की सुग्राहिता ज्ञात की जा सकती है। गूई की विधि में प्रतिदर्श (specimen) लंबा तथा एकसमान अनुप्रस्थ काट ऐल्फा (a ) का होता है, जिसका एक सिरा प्रबल क्षेत्र एच (H) और दूसरा दुर्बल क्षेत्र एच० (H0) में होता है। गणना द्वारा प्रतिदर्श पर बल ज्ञात किया जाता है, जो-
होता है। यहाँ k2, k1 समाकलन अचर हैं।
द्रव की सुग्राहिता क्विंके (Quincke) की विधि से ज्ञात की जाती है। एक यू (U) नली में, जिसका एक अंग सँकरा और दूसरा चौड़ा होता है, द्रव को भर लेते हैं। सँकरे अंग को विद्युच्चुंबक के ध्रुवों के बीच रख देते हैं, ताकि क्षेत्र को काट देने पर द्रव सतह ध्रुव खंडों के केंद्र के पास रहे। क्षेत्र के उत्पन्न होने पर द्रव चढ़ेगा या उतरेगा, जिससे यू नली के दोनों अंगों में दाबांतर उत्पन्न हो जायगा। यदि एक अंग दूसरे की अपेक्षा बहुत बड़ा और द्रव के घनत्व r की तुलना में उसके ऊपर स्थित हवा का घनत्व उपेक्षणीय माना जाय, तो सँकरी नली में चढ़ाव d अग्रलिखित सूत्र के अनुसार होगा : पी= डेल्टा.रो.जो. (P= d r g)
(P= दाबांतर तथा g= गुरुवननित वेगवृद्धि)
लोहचुंबकीय पदार्थ की सुग्राहिता प्रयुक्त चुंबकीय क्षेत्र और पदार्थ के चुंबकीय इतिहास पर निर्भर है। अत: लोहचुंबकीय पदार्थ की सुग्राहिता जानने के लिये साम्यमंदन वक्र (Hysteresis curve) की जानकारी होनी चाहिए। साम्यमंदन वक्र द्वारा सभी प्रतिबंधों में निश्चित सुग्राहिता मालूम हो जाती है। यह वक्र द्वारा सभी प्रतिबंधों में निश्चित सुग्राहिता मालूम हो जाती है। यह वक्र चुंबकीय प्रेरणा बी (B) को चुंबकीय क्षेत्र एच (H) से संबंधित करता है। बी-एच (B-H) वक्र प्राप्त करने के लिये पदार्थ का वृत्ताकार अनुप्रस्थ काट का ऐसा छल्ला लेना चाहिए जिसपर निरंत परिनालिका लपेटी गई हो। यदि प्रति सेंटीमीटर लपेटों की संख्या n1 है तथा परिनालिका में आई (i) विद्युचुंबकीय इकाई धारा प्रवाहित हो रही है, तो एच= ४p एन१.आई. (H= 4p n1 i) होगा। एन.२ (n2) लपेटवाली सहायक कुंडली, (secondary coil) छल्ले पर लिपटी होती है और चुंबकीय क्षेत्र स्थापित होने पर फ्लक्स बी ऐल्फा (B a ) उसे काटता है। यहाँ बी (B) चुंबकीय प्रेरणा और ऐल्फा (a ) छल्ले की अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल है। सहायक कुंडली के साथ एक प्राक्षेपक धारामापी श्रेणी में जुड़ा होता है, जिसकी फेंक उत्पन्न एच (H) पर बी (B) निर्धारित करती है। छल्ले को एच (H) के प्रत्येक मान पर चक्रीय अवस्था में लाने के लिये उसे कई बार चुंबकित ओर विचुंबकित करना पड़ता है।
चुंबकत्व के सिद्धांत - संसार के सभी पदार्थ विद्युदुदासीन परमाणुओं से निर्मित होने के कारण चुंबकत्व को जन्म नहीं दे सकते। परमाणु का केंद्रक धनाविष्ट क्रोड है, जिसमें उसकी लगभग सारी मत्रा संकेंद्रित होती है। क्रोड परमाणु का लाखवाँ स्थान घेरता है। केंद्रक के चतुर्दिक् ऋणाविष्ट उसी प्रकार चक्कर लगाते हैं जैसे सूर्य के ग्रहगण। इलेक्ट्रान की कक्षागति (orbital motion) चुंबकीय घूर्ण से संबधित है। इलेक्ट्रॉन में निजी भ्रमिकोणीय संवेग (intrinsic spin angular momentum) भी होता है, जो उसके अपने चुंबकीय घूर्ण से संबधित है। क्वांटम यांत्रिकी के सिद्धातों के अनुसार इलेक्ट्रान छदों (shells) में विन्यस्त रहते हैं। प्रत्येक छद की निश्चित इलेक्ट्रॉनधारिता होती है। किसी छद के पूर्ण होते ही कक्षीय और भ्रमिकोणीय संवेग से संबद्ध घूर्ण एक दूसरे को निरस्त कर देते हैं। छद के न पूर्ण होने पर परिणामी चुंबकीय घूर्ण रह जाता है। बाह्य चुंबकीय क्षेत्र प्रयुक्त करने पर परिणामी चुंबकीय घूर्ण प्राय: बाह्य क्षेत्र के साथ एकरेखण की प्रवृत्ति रखता है।
विषमचुंबकत्व - केंद्रक के चारों ओर r अर्धव्यास की गोलाकार कक्षा में = २p r/v समय में भ्रमण करनेवाले, विद्युच्चुंबकीय इकाई के - e आवेशवाले इलेक्ट्रॉन पर विमर्श करें। कक्षा में उसका वेग v है। एंपीयर के नियमानुसार यह उस चुंबकीय पट्टिका के तुल्य है जिसका घूर्ण= धारा´ कक्षा का क्षेत्रफल= - erv/2 होता है। यदि सामर्थ्य का चुंबकीय क्षेत्र कक्षा के लंबवत् प्रयुक्त किया जाय, तो कक्षा के साथ साथ विद्युद्वाहक बल प्रेरित हो जाता है, जो फैराडे के नियमानुसार चुंबकीय क्षेत्र के परिवर्तित होने की दर और कक्षा के क्षेत्रफल के गुणनफल के बराबर होता है। यदि इस प्रेरित विद्युद्वाहक बल के कारण किसी बिंदु पर विद्युत्तीव्रता E हो, तो परिभाषा के अनुसार प्रेरित विद्युद्वाहक बल= कक्षा की लंबाई´ E= 2p rE। अत:
इलेक्ट्रॉन
पर बल - eE
है और इसके
कारण त्वरण -
eE/m,
जहाँ n
इलेक्ट्रान की मात्रा
है। अत: क्षेत्र की स्थापना
के समय वेग में
परिवर्तन ।
कक्षागति समाकलन
द्वारा er/2m*H
निकल आती है।
इलेक्ट्रॉन से
सहचरित चुंबकीय
घूर्ण - erv/2
है। अत: क्षेत्र H
स्थापित होने
पर कुल चुंबकीय
घूर्ण= -
e2r2h/4m
होगा।
यदि परमाणु में अनेक इलेक्ट्रॉन हैं, तो प्रेरित चुंबकीय घूर्ण प्रत्येक कक्षा में घूर्णपरिवर्तनों का योग होगा। यदि प्रत्येक कक्षा क्षेत्र के लंबवत् हो, तो कुल प्रेरित चुंबकीय घूर्ण
M= e2H/4m (प्रत्येक कक्षा के r2 का योग) होगा।
प्रत्येक परमाणु
के लिये प्रेरित
घूर्ण= -
जिसमें
ri
इलेक्ट्रॉन संख्या i का माध्य अर्धव्यास है। यदि ग्राम- परमाणुक- भार में परमाणुओं की संख्या L रहे, तो पारमाण्विक सुग्राहिता,
होगी।
चूँकि e,
m और r
ताप निरपेक्ष
हैं, अत: विषमचुंबकत्व
भी तापनिरपेक्ष
है। चूँकि
हमेशा धनात्मक
होना चाहिए, अत:
सभी पदार्थ विषमचुंबकीय
होने चाहिए। परमाणु
के परिणामी
चुंबकीय घूर्ण
से उत्पन्न समचुंबकत्व
के कारण कभी
कभी यह प्रकट नहीं
होता। निष्क्रिय
गैसों के समान
इलेक्ट्रॉन विन्यासवाले
सभी अयन और
परमाणु विषमचुंबकीय
हैं और प्राय:
सभी कार्बनिक
यौगिक विषमचुंबकीय
हैं।
समचुंबकत्व - संपूर्ण परमाणु में चुंबकीय घूर्ण होने पर परिस्थिति कुछ और हो जाती है। उष्मागति के कारण प्रत्येक चुंबकीय घूर्ण अनियमित रूप से अवस्थापित है और इसलिये गैस की किसी भी मात्रा में कोई चंबकीय घूर्ण नहीं पाया जाता। अब यदि इस गैस पर कोई क्षेत्र प्रयुक्त किया जाय, तो व्यक्तिगत चुंबकीय घूर्ण की बाह्यचुंबकीय क्षेत्र की दिशा में अनुरेखण की प्रवृत्ति अनियमित गैस परमाणुओं की गति पर हावी हो जाती है। संतुलन स्थापित हो जाता है और गैस चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में चुंबकीय घूर्ण प्रदर्शित करता है। जितना ही ताप अधिक होगा अनियमित गति का महत्व भी उतना ही अधिक होगा और प्रेरित चुंबकत्व उतना ही कम। चुंबकीय सुग्राहिता तापवृद्धि के साथ घटती है।
फेरिचुंबकत्व - लोहचुंबकीय धातुओं और उनकी मिश्रधातुओं के अतिरिक्त एक और वर्ग के पदार्थ प्रबल लोहचुंबकत्व प्रदर्शित करते हैं, किंतु इन्हें उस वर्ग में रखना संभव नहीं। ये धातु नहीं वरन् लोहे के आक्साइड हैं, जिनमें अन्य धातुओं के आक्साइड मिश्रित रहते हैं। इनका संतृप्ति चुंबकन सभी प्राथमिक चुंबकों (elementary magnets) की पूर्णत: अनुरेखित अवस्था में प्रत्याशित संतृप्ति चुंबकन से बहुत कम होता है। ऐसे पदार्थ फेरिचुंबकीय पदार्थ कहलाते हैं। फेराइटों का व्यापक रासायनिक सूत्र Fe2 O3 MO हैं, जिसमें M ताँबा, चांदी, मैग्निशियम, सीसा, निकल या लोहा जैसा कोई द्विसंयोजक धातु है। जिंक फेराइट समचुंबकीय है और कैडमियम फेराइट कभी समचुंबकीय और कभी लोहचुंबकीय है। इन्हें छोड़कर सभी फेराइट कमरे के ताप पर लोहचुंबकीय हैं।
इनके गुणों की व्याख्या इनकी मणिभ संरचना के आधार पर की गई है। एक्सरे के प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि इनके मणिभों की संरचना स्पिनेल की संरचना जैसी है। धातु अयनों की दो स्थितियाँ (sites) होती हैं। जब धातु अयन चार आक्सीजन अयनों से घिरा होता है तब उसे क स्थिति कहते हैं, तथा जब धातु अयन छ: आक्सीजन अयनों से घिरा होता है तब उसे ख स्थिति कहते हैं। नेइल (Ne'el) की परिकल्पना के अनुसार क स्थिति पर अयनों का चुंबकीय घूर्ण समांतर अनुरेखित है और ख स्थिति पर इसी प्रकार, किंतु विपरीत दिशा में अनुरेखित है। हाइसेनबर्ग (Heisenburg) के सिद्धांत के अनुसार क और ख स्थितियों पर अयनों के बीच की दूरी इतनी है कि उनके मध्य विनिमय अंतर्क्रिया (exchange interaction) धनात्मक है और भ्रमि के समांतर अनुरेखण के अनुकूल है। क स्थिति और ख स्थिति के अयनों के बीच इतनी दूरी है कि इनके मध्य विनिमय अंतर्क्रिया रचनात्मक है और ऐसी परिस्थिति के निर्माण के अनुकूल है कि क स्थिति के सभी अयनों की भ्रमि ख स्थिति के अयनों की भ्रमि की दिशा के विपरीत निर्देश करे। अयनों के प्रत्येक कुलक का एक लाक्षणिक क्यूरी (Curie) ताप होता है। इससे अधिक ताप होने पर समांतर अनुरेखण नष्ट हो जाता है। क और ख स्थितियों के अयनों के क्यूरी ताप एक से हों, यह आवश्यक नहीं है। अत: लोहचुंबकीयों के समान यद्यपि फेराइटों का स्वजात चुंबकन किसी निश्चित ताप पर एकाएक लुप्त हो जाता है, तथापि ताप के साथ इसके चुंबकन में परिवर्तन लोहचुंबकीयों से भिन्न होता है। फेराइटों का स्वजात चुंबकन लोहे के बराबर कभी नहीं होता, यद्यपि व्यक्तिगत अयनों का चुंबकीय घूर्ण उतना ही बड़ा हो सकता है। फेराइट उच्च आवृत्ति परिचालन में बहुत काम आते हैं।
प्रतिलोह चुंबकत्व - यदि क स्थिति के अयनों का चुंबकीय घूर्ण ख स्थिति के अयनों के चुंबकीय घूर्ण के बराबर हो तो तंत्र का परिणामी चुंबकीय घूर्ण शून्य होगा ओर आंतर अनुरेखण के रहते भी ऐसे पदार्थ में कोई लोहचुंबकीय गुण नहीं पाया जायगा। ऐसे पदार्थों को प्रतिलोहचुंबकीय कहते हैं। इनकी सुग्राहिता अल्प, धनात्मक और घटते हुए ताप के साथ बढ़ती है तथा क्रांतिक ताप के नीचे पुन: घटती है। जिस ताप पर सुग्राहिता अधिकतम हाती है, उसे नेइल का ताप कहते हैं। इस ताप पर चुंबकीय घूर्णो का स्वत: प्रतिसमांतर अनुरेखण होता है। अभी तक प्रतिलोहचुंबकीय पदार्थों से कोई लाभ नहीं उठाया जा सका है।
पृथ्वी और तारों के चुंबकीय क्षेत्र - पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के विवेचन के लिये पृथ्वी के क्षेत्र का अनुप्रस्थ संघटक H, दिक्पात, अर्थात् अनुप्रस्थ संघटक और भौगोलिक उत्तर दक्षिण दिशा के बीच का कोण, और नमन, अर्थात् अनुप्रस्थ संघटक और समस्त क्षेत्र के बीच के कोण, की जानकारी चाहिए। दिक्पात का मापन सिद्धांतत: क्षैतिज समतल में निर्बाध गतिवाली चुंबकीय सुई के अक्ष की विश्रामदिशा और भौगोलिक उत्तर दक्षिणदिशा के बीच का कोण मापना है। नमन को ऊर्ध्वाधर समतल में, जिसमें H है, निर्बाध गतिवाले चुंबक के अक्ष की दिशा ओर क्षैतिज दिशा के बीच के कोण के रूप में मापते हैं। दिक्पात का मान स्थान स्थान पर बदलता रहता है और इसे ठीक ठीक जानने पर ही कुतुबनुमे द्वारा सही दिशा का ज्ञान हो सकता है। अत:, कई स्थानों पर दिक्पात का निर्धारण करके चार्ट तैयार करते हैं और समदिक्पात के स्थानों को मिलते हैं। समदिक्पात के स्थानों को मिलानेवाली रेखा को तुल्यकोणिक रेखा (Isogonic line) कहते हैं।
पार्थिव चुबंकीय क्षेत्र के साधारण लक्षण और स्थान के साथ इसके मान में परिवर्तन की व्याख्या, इस परिकल्पना के आधार पर की जा सकती है कि पृथ्वी एकसमान चुंबकित गोला है, या उसके केंद्र में उपयुक्त परिमाण और दिशा का चुंबकीय द्वध्रुिव (परिमित घूर्ण और उपेक्षणीय लंबाई का चुंबक) स्थित है। पृथ्वी का चुंबकत्व समय के साथ परिवर्तनशील है। दिक्पात, अवनमन और H का परिवर्तन चिरकालीन है और समष्टिरूप में ये आवर्ती परिवर्तन नहीं हैं। चिरकालीन परिवर्तनों के अतिरिक्त दैनिक और मौसमी परिवर्तन भी होते रहते हैं। कुछ छोटे परिवर्तन २८ दिनों पर होते हैं। जब ये परिवर्तन सामान्य से अधिक होते हैं, तो चुंबकीय तूफान आते हैं। यह लगभग निश्चित है कि आवर्ती परिवर्तनों का कारण सौर विकिरण तीव्रता का परिवर्तन है। इससे आयनमंडल के कण विभिन्न सीमा तक आयनीकृत होते हैं। इसके तथा सौर या चांद्र ज्वारप्रभाव, या अन्य कारणों, से आयनित परतों की गति परिमाण और अयनों की संख्या के अनुपात में पृथ्वी पर चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। इसकी पुष्टि इसी से हो जाती है कि लघुतरग रेडियो पारेषण में पृथ्वी के चुंबकत्व जैसा ही परिवर्तन पाया जाता है। चुंबकीय तूफानों के उठने में एक से लेकर चार दिनों तक की समयपश्चता (time lag) होती है, इसलिये यह निष्कर्ष निकलता है कि सूर्यकलंक, या उससे संबधित किसी चीज से, कणों का उत्सर्जन होता है; संभवत: प्रोटोन का, जो २७० और १,१०० मील प्रति सेकेंड के मध्य की गति से आयनमंडल में पहुँचकर आयनीकरण अंश की वृद्धि करते हैं।
चिरकालिक परिवर्तन दुरूह है, जिसकी समुचित व्याख्या अब तक नहीं हो पाई है। एकसमान चुंबकन का सिद्धांत इसलिये लागू नहीं होता कि प्रेक्षित क्षेत्र की व्याख्य के लिये ०.७५ गौस (gauss) चुंबकन आवश्यक है। जब भूपृष्ठ पर भी इतना क्षेत्र नहीं होता तो ऊँचे ताप के कारण पृथ्वी के भीतरी प्रदेश में तो और भी कम होना चाहिए। चुंबकीय द्वध्रुिव की मान्यता में भी समस्याएँ हैं। यदि चुंबकन की तीव्रता २,००० गौस भी मानें, तब भी द्वध्रुिव पृथ्वी के केंद्र के चतुर्दिक् स्थित गोला होगा ओर उसका अर्धव्यास पृथ्वी के गोले के अर्धव्यास का ३०वाँ भाग होगा। उस प्रदेश में इतनी चुंबकन की तीव्रता हो नहीं सकती, क्योंकि एक तो वहाँ का ताप क्यूरी ताप से अधिक हे, दूसरे उच्च दाब के कारण क्यूरी ताप घट भी जाता है। ब्लैकेट का यह सिद्धांत कि प्रत्येक परिक्रामी पिंड में किसी अज्ञात कारण से चुंबकत्व होता है, रूसी राकेट, ल्यूनिक द्वितीय ने, चंद्रमा पर चुंबकत्व का सर्वथा अभाव दर्शाकर असिद्ध कर दिया है। एलसासर (W.M. Elsasser) और बुलार्ड (Edward Bullard) के अनुसार पृथ्वी स्वत: उत्तेजक डाइनेमो के समान कार्य करती है, जिसके लिये आवश्यक ऊर्जा क्रोडस्थ ऊष्मीय संनयन (thermal convection) से प्राप्त होती है। क्रोड में विद्युद्धाराओं का क्षेत्र चुंबकीय क्षेत्र प्रेरित कर देता है। पार्थिव चुंबकत्व के अस्तित्व से आकाशीय पिंडों में चुंबकीय क्षेत्र के अध्ययन की चेष्टा हुई। आकाशीय पिंड धरती से इतने दूर हैं कि उनक सीधा प्रभाव पृथ्वी पर नहीं लक्षित हो सकता। ज़ेमान विकिरण (Zeeman's radiation) के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सूर्यकलंकों के पास ८,००० ओस्टेंड तक के क्षेत्र हैं। कुछ तारों में परिवर्ती तीव्रता के चुंबकीय क्षेत्र तथा एक में क्षेत्र का उत्क्रमण (reversal) पाया गया है।
चुंबकीय पदार्थ और उनकी प्रयुक्तियाँ - आधुनि उद्योग के बहुत से साधन और मशीनों के परिचालन के लिये चुंबकीय पदार्थ अनिवार्य हैं। आसानी से चुंबकित और विचुंबकित होनेवाले तथा उच्च परिगम्यतावाले चुंबकीय पदार्थ अत्यंत उपयोगी हैं। ऐसे पदार्थ भी बहुत उपयोगी हैं जो स्थायी चुंबकित होते हैं, अर्थात् जिनका चुंबकन कठिनाई से होता है, किंतु वे चुंबकन को दृढ़ता से बनाए रखते हैं। इन दो भेदों को साधारणतया मृदु और कठोर चुंबकीय पदार्थ कहते हैं। विशद अध्ययन के फलस्वरूप, लोहचुंबकीयों की सीमाओं और मौलिक गुणों के संबंध में, किसी भी ज्ञात संघटन की मिश्रधातु के, यदि उसके यांत्रिक और ऊष्मा उपचार ज्ञात हों, चुंबकीय गुणों का पूर्व कथन पर्याप्त परिशुद्धता के साथ संभव है। वांछित चुंबकीय लक्षणों की मिश्रधातु भी बिना भूल किए सरलता से तैयार की जा सकती है।
मृदु पदार्थों का उपयोग डाइनेमा, ट्रैंसफॉर्मर और विद्युन्मोटर निर्माण में अत्यधिक होता है। ऐसे पदार्थों में उच्च पारगम्यता, साम्यमंदन (चुंबकन और विचुंबकन प्रक्रिया में नष्ट ऊर्जा, जो साम्यमंदन पाश (hysteresis loop) के क्षेत्रफल की अनुपाती होती है) की निम्न हानि और उच्च प्रतिरोध आवश्यक हैं। उच्च प्रतिरोध से ठोस संवाहकों में परिवर्ती चुंबकीय क्षेत्रों के कारण उत्पन्न भँवर-धारा-हानियाँ कम हो जाती हैं। थोड़ी मात्रा में सिलिकन मिलाने से अशुद्धियों और आंतर विकृतियों (strain) का निरास होकर काफी अच्छा काम होता है। रेडियो और टेलिविज़न आदाता (receiver) में प्रयुक्त ट्रैंसफॉर्मर के लिये उच्च पारगम्यता का चुंबकीय क्रोड आवश्यक है।
उच्च पारगम्यता के चुंबकीय पदार्थो की दूसरी महत्वपूर्ण प्रयुक्ति चुंबकीय आवरण (mangetic screening) में होती है। चुंबकीय आवरण के प्रभाव से चुंबकीय बलरेखाएँ आवरणीय लक्ष्य से दूर निर्देशित होती हैं। टेलिविज़न आदाताओं में कैथोड-किरण-नलियों के आवरण के लिये पार-मिश्र-धातुएँ (permalloys) बहुत काम आ रही हैं। मृदुचुंबकीय पदार्थ विद्युच्चुबकीय पारेषण (relay) का आवश्यक संघटक है, जो प्राय: स्वत: चालित और दूर-नियंत्रण-तंत्र का आवश्यक अवयव है।
चुंबकित करने पर जिन पदार्थो के आकार में परिवर्तन होता है, वे विद्युद्दोलनों को यंत्रिक दोलनों में और यांत्रिक को विद्युद्दोलनों में परिवर्तित करने के काम आते हैं। पराश्रव्यध्वनि उत्पादन इसी सिद्धांत पर होता है। चुंबकीय आकारांतर क्रिया का लाभ उठाकर, विद्युत्स्मरण सधन की रचना संभव है।
ऐसे चुंबकीय पदार्थ, जिनका साम्यमंदन पाश (hysteresis loop) आयताकार है, स्मरण इकाईयों में बहुत काम आ रहे हैं। इन इकाइयों में इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर के परिचालन के निश्चित अनुक्रम (sequence) में उपलब्ध सूचनाओं को तब तक एकत्रित रखा जाता है जब तक इन सूचनाओं का दूसरे परिचालन में उपयोग करने के लिये मशीन तैयार नहीं हो जाती। कुछ मिश्रधातुओं को गरम करने के बाद चुंबकीय क्षेत्र में रख देने पर अभीष्ट आकार का पाश मिल जाता है।
स्थायी चुंबक की प्रयुक्तियाँ भी अनेक हैं। स्थायी चुंबकीय पदार्थ की विशेषताएँ हैं, विचुंबकन बल और अवशिष्ट चुंबकत्व की अधिकता। चुंबकन क्षेत्र को हटा लेने पर प्रतिधारित चुंबकत्व की मात्रा को अवशिष्ट चुबंकत्व और इस चुंबकत्व को शून्य में परिवर्तित करने के लिये आवश्यक बल को विचुंबकन बल (coercive force) या क्षेत्र कहते हैं। टंग्स्टन इस्पात, जिसमें कोबाल्ट का अंश भी हाता हे, उत्तम चुंबकीय पदार्थ है। इसका विचुंबकीय बल २४० ओस्टेंड तक हो सकता है। एलनिको नामक मिश्रधातुओं की श्रेणी में चुंबकीय गुणों के अतिरिक्त कई अन्य गुण होते हैं। इनमें जंग नहीं लगता, इनपर ताप और कंपन का प्रभाव नहीं पड़ता और ये उत्तम कोबाल्ट इस्पात के आधे मूल्य पर सुलभ होती हैं। चुंबकीय क्षेत्र की उपस्थिति में इनका शीतलन करने और थोड़ी मात्रा में हाइटेनियम और नियोवियम मिलाने पर अवशिष्ट चुंबकत्व १,००० और १,२०० गौस तथा विचुंबकन बल ६०० और ७०० ओस्टेंड तक हो सकता है। १९५६ ई. में अमरीका के जेनरल इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन में लोहे और कोबाल्ट की सूक्ष्मकणिक मिश्रधातु से चुंबक बनाए गए, जिनका विचुंबकन बल १,००० ओस्टेंड था। बेरियम फेराइट, कोबाल्ट-आयरन फेराइट और मैंगनीज़ विसमथाइड के स्थायी चुंबकों का विचुंबकन बल अत्यधिक होता है और ये काफी हलके भी होते हैं।
स्थायी चुंबकों का उपयोग विद्युन्मापी उपकरणों, जैसे धारामापी, ऐंपियरमापी और वोल्टमापी में होता है। उपकरण की सूक्ष्मग्राहिता चुंबकीय क्षेत्र के सामर्थ्य पर और परिशुद्धता क्षेत्र की स्थिरता परनिर्भर करती है। चुंबकीय फीता रिकार्डिग में चुंबक का प्रयोग अत्याधुनिक है। फीता पदार्थ ऐसा होना चाहिए कि एक तो यदि उसका कोई भाग चुंबकित किया जाय तो उसके चारों और का क्षेत्र अप्रभावित रहे और दूसरे, पदार्थ भंगुर नहीं होना चाहिए। सेल्युलाइड के फीते पर लोहे के आक्साइड (7-Fe2O3) के अति सूक्ष्म चूर्ण की पतली परत देखकर फीता तैयार करते हैं।
वैज्ञानिक अनुसंधान में चुंबकत्व - इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है कि विगत ६० वर्षों में भौतिकी के क्षेत्र में जिन अनुसंधानों से विशेष प्रगति हुई है उनमें से पचास प्रतिशत प्रयोग चुंबकत्व पर आधारित रहे हैं। चुंबकीय क्षेत्र से पहला लाभ निम्न ताप का उत्पादन था। द्रव हीलियम के वाष्पीकरण से प्राप्य निम्नतम ताप १° K है। निम्नताप की सीमा हीलियम गैस को पंप करके निकालने के वेग पर निर्भर करती है। इस ताप पर समचुंबकीय पदार्थ को चुंबकित करने पर उसमें ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस ऊष्मा को हीलियम गैस हटा देती है। हीलियम गैस को पंप द्वारा निकालकर लवण को तापत: वियुक्त (thermally isolated) करते हैं। और चुंबकीय क्षेत्र हटा लेते हैं। ताप विसंवाहन के कारण, यह निम्नताप बराबर बना रहता है। इस विधि से १०/१०K से भी कम ताप प्राप्त किया जा चुका है। पहले इलेक्ट्रॉनिक समचुंबकत्व और बाद में न्यूक्लीय समचुंबकत्व को विचुंबकित करके १५´ १०° - ६K ताप ऑक्सफोर्ड में १९५५ ई. प्राप्त किया जा चुका है।
चुंबकीय क्षेत्र में गतिमान् आविष्ट कणों के विस्थापन से कणों के आवेश मात्रा का अनुपात ज्ञात किया जा सकता है। यदि किसी कण आवेश e तथा विद्यच्चुबकीय इकाई वेग v है और वह H सामर्थ्य के चुंबकीय क्षेत्र में चल रहा है, तो उसपर क्षेत्र के लंबवत्, वेग की दिशा में Hev बल कार्य करता है। इसका प्रभाव R अर्धव्यास के वृत्ताकार पर्रिमापथ में कण को इस प्रकार चलाना है कि
R को माप कर mv/e की गणना की जा सकती है। v को मापने के लिये चुंबकीय क्षेत्र से उत्पन्न विस्थापन को विद्युच्चुंबकीय इकाई में मापित समुचित विद्युत क्षेत्र E द्वारा निराकृत करना पड़ता है, जिससे
Ee= Hev, अत: v=E/H
इस विधि से e/m ज्ञात किया जा सकता है। e/m को माप कर इलेक्ट्रॉन का अभिनिर्धारण किया जाता है। इसी रीति से टामसन ने आइसोटोप का अस्तित्व सिद्ध किया। न्यूक्लीय मात्रा का मापने का उपकरण पारमाण्विक-द्रव्यमान-वर्णक्रमलेखी (Atomic mass spectrograph) इसी सिद्धांत पर निर्मित है। आविष्ट धनात्मक कणों को कई लाख इलेक्ट्रॉन वोल्ट तक की वेगवृद्धि प्रदान करने के लिये साइक्लोट्रॉन नामक उपकरण का सिद्धांत यही है कि आविष्ट करण चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव में वृत्ताकार परिक्रमापथ पर चलते हैं। कणों को एक विभक्त धातुधानी (split metal box) में चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव में लाते हैं। हर बार जब कण खाली जगह पार करते हैं, तो एक विद्युतक्षेत्र उनकी वेगवृद्धि करता है। इन अत्यंत वेगवृद्ध कणों द्वारा न्यूक्लियस का विशद अध्ययन हुआ है और कई नए मौलिक कण और नए तत्वों की प्राप्ति हुई है। चुंबकीय क्षेत्र में इलेक्ट्रॉन की वृत्ताकार गति का लाभ उठानेवाला दूसरा साधन मैग्नेट्रॉन है, जो बहुत लघु तरंग-दैर्ध्य के विद्युच्चुंबकीय तरंगों का उत्पादन करता है।
यदि किसी धातु पर प्रत्यावर्ती चुंबकीय क्षेत्र प्रयुक्त किया जाय, तो उसमें परिवर्तनशील चुंबकीय फ्लक्स (flux) के कारण भँवर धारा उत्पन्न होती है और यदि क्षेत्र पर्याप्त आवृत्ति और सामर्थ्य का हो तो धातु पिघल जाती है। इस विधि से शोधकार्य के लिये प्रयोगशाला में अल्प परिमाण में मिश्रधातु तैयार की जाती है।
अनुमानत: सौर ऊष्मा सायुज्यन क्रिया (fusion) से उत्पन्न होती है। हाइड्रोजन के न्यूक्लियसों का हीलियम के न्यूक्लियसों में सायुज्यन से उत्पन्न ताप हाइड्रोजन न्यूक्लियसों को इतना वेग प्रदान करता है कि वे सायुज्य हो जाते हैं। इस क्रिया में लगभग १ करोड़ अंश ताप उत्पन्न होता है। इस ताप पर कोई भी पदार्थ ठोस अवस्था में नहीं रह सकता और आधान पात्र का उपयोग नहीं हो सकता, किंतु गैसों को चुंबकीय क्षेत्र में रखा जा सकता है। उच्च ताप पर सभी गैसें आयनित हो जाती हैं, अर्थात् इलेक्ट्रॉन और न्यूक्लियस अलग अलग हो जाते हैं और आविष्ट होने के कारण चुंबकीय क्षेत्रों से विस्थापित हो जाते हैं। अत: उष्ण गैसों का समुचित आकार के चुंबकीय क्षेत्र में रखा जा सकता है।
चुंबकत्व एक ऐसा आकर्षक विषय है जिसने हमें मूलभूत ज्ञान दिया है। इससे उद्योग और घर में उठाए जानेवाले लाभ अनगिनत हैं। सारे विश्व में चुंबकत्व पर शोधकार्य जारी है, क्योंकि अभी बहुत कुछ जानना बाकी है।
सं.ग्रं. - थ्यूलिस, जे. : इनसाइक्लापीडिक डिक्शनरी ऑब् फिज़िक्स, परगामन प्रेस (१९६२); वेट्स, एल.एफ. : मॉडर्न मैग्नेटिज़्म, केंब्रिज (१९६१); ली, ई.डब्ल्यू. मैग्नेटिज़्म, पेंग्विन (१९६३) तथा हैडफील्ड, डी. : परमानेंट मैग्नेट्स ऐंड मैग्नेटिज़्म, इलिफ बुक्स लिमिटेड, लंदन (१९६२)। (शिवयोगी तिवारी)