चींटी फाइलम आर्थोपोडा (Filum Orth opoda) के हाइमेनॉप्टेरा (Hymenoptera) वर्ग के अंतर्गत आती है। यह कीट पृथ्वी के ठंढे ध्रुव प्रदेशीय भागों से लेकर उष्ण अयनवृत्तीय भागों तक में पाया जाता है। कीटों में इसकी संख्या सबसे अधिक है। चींटी छोटे जानवरों में है। प्रौढ़ चींटी की लंबाई ०.५ से २५.० मिलीमीटर तक हो सती है। यह सामाजिक जानवर है। सामाजिक परिस्थितियों के कारण चीटियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं। कुछ चींटियों के जननांग पूर्णतया विकसित होते हैं और कुछ बंध्या मादा श्रमिक होती हैं और कुछ बंध्या मादा श्रमिक होती हैं। इनमें कुछ सिपाही भी पाए जाते हैं, जिनके जबड़े बड़े होते हैं ताकि शत्रुओं को डरा सकें और आवश्यक होने पर काट भी सकें।
चित्र. चींटियों का जीवन
१. नर चींटी, २. पंखविहीन मादा, ३. पंखदार मादा, ४. श्रमिक, ५. अंडे, ६. डिंभ (लार्वा), ७. प्यूपा, तथा ८. श्रमिक अपने कार्य में व्यस्त।
इनका शरीर चिकना अथवा रोएँदार होता है। किसी किसी में रोओं के स्थान पर काँटे होते हैं। इनका रंग काला, भूरा या पीला हो सकता है या भूरे और लाल रंगों की मिलावट भी हो सकती है। इनके शरीर का खंडीकरण पूरी तरह विकसित होता है। शरीर के तीन खंड, सिर, धड़, तथा उदर, होते हैं। सिर बड़ा तथा चौड़ा होता है और पूर्णतया स्वतंत्र, जिससे यह आसानी से चारों ओर घूमता है। सिर पर चार से लेकर १३ खंडों तक के पतले स्पर्शांग होते हैं, जिन्हें स्पर्शक कहते हैं। इनका आकार भिन्न भिन्न होता है। संयुक्त आँखें छोटी होती हैं और किसी किसी में नहीं भी होतीं। मुखांग कुतरनेवाले होते हैं और भली भाँति विकसित रहते हैं। धड़ स्पष्ट रूप से बना रहता है।
चींटियों के अंडे सफेद या पीले रंग के ०.०५ मिली मीटर लंबे, बेलनाकार, या किसी में अंडाकार, होते हें। डिंभ (लार्वा) अंधे एवं बिना पैर के हाते हैं। इनका सिर पूर्ण, छोटा तथा मुलायम होता है। इनका पूरा शरीर खंडयुक्त होता है। अंडे से बाहर आने के बाद इनकी देखभाल रमिक करते हैं। इनको उपयुक्त ताप एवं नमी में रखने के लिये श्रमिक एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। इनको श्रमिक अपने मुँह से निकालकर तैयार द्रव भोजन कराते हैं। कुछ जाति की चींटियों के बच्चों को फफूँदी के टुकड़े खिलाए जाते हैं। कुछ दिनों बाद डिंभ प्यूपा (pupa) में परिवर्तित हो जाता है। कुछ प्यूपा कोकून से ढके रहते हैं तथा अन्य स्वतंत्र और नग्न होते हैं।
परदार लैंगिक चींटियाँ एकत्र होकर एक साथ उड़ती हैं और उड़ान के अंत में नर और मादा समागम करते हैं। समागम के बाद मर जाते हैं और मादा रगड़कर अथवा खींचकर अपने पंख नष्ट कर देती है। इसके बाद वह मिट्टी या अन्य उपयुक्त स्थान में एक छोटा बिल बनाकर उसमें घुस जाती है। बिल का मुख बंद करके उसमें वह उस समय तक अकेली रहती है जब तक उसके अंडे परिपक्व नहीं हो जाते। मादा केवल अंड देने का कार्य करती है और श्रमिक चींटियाँ बच्चों की एवं घर की देखभाल करती हैं। ज्यों ज्यों बस्ती के सदस्यों की संख्या बढ़ती है, घर भी बढ़ता जाता है।
कुछ संसेचित रानियाँ बिना श्रमिकों की सहायता के नई बस्तियाँ नहीं बना सकतीं, इसलिये यह समागम उड़ान के बाद फिर पुराने बिलों में लौट आती हैं। ऐसे बिलों में एक से अधिक रानियाँ हो जाती हैं। फॉर्मिका एक्ज़ैक्टा नामक चींटी की मादाएं भी समागम उड़ान के बाद अपने पुराने बिलां से श्रमिकों को लेकर नए स्थान में नई बस्तियाँ बनाती हैं।
बिल के निर्माण के विषय में कुछ विशेष जानने योग्य बातें निम्नलिखित हैं :
भोजन - चींटियाँ जीवजंतुओं एवं वनस्पतियों दोनों का आहार ठोस या द्रव रूप में करती हैं। कुछ चींटियाँ प्रधानतया शाकाहारी होती हैं।
चीटियाँ अथक परिश्रम के लिये प्रसिद्ध हैं। प्राचीन महापुरुष भी जानते थे कि इनका परिश्रम उद्देश्यपूर्ण है, व्यर्थ नहीं। ये सदा फुर्ती के साथ यहाँ वहाँ दौड़ती, अनाज या भोजन बिलों में ले जाकर विशेष कमरों में एकत्र करती हैं, जहाँ नमी रहती है। नमी से अनाज में अंकुर आ जाते हैं। इन्हें चींटियाँ काटकर, सुखाकर तथा इसके स्टार्च को चीनी में परिवर्तित कर इकट्ठा करती हैं।
कुछ चींटियाँ बहुत अधिक अनाज एकत्र करके रखती हैं। चींटियों के परिश्रम तथा उनके मानवीय ढंगों ने महान् लेखकों और दार्शनिकों को बहुत प्रभावित किया था। प्लिनी (Pliny) और एलीन जैसे विद्वानों ने इनकी मुक्तकंठ से केवल प्रशंसा ही नहीं की वरन् इनके बनाए बिल के बरामदों की तुलना क्रीट की भूलभुलैया से की है। (सत्यानारायण प्रसाद)