चिमणाजी
दामोदर इनका
उपनाम मोघे था।
इनके पूर्वज खानदेश
के रिंगण गाँव
के जागीरदार
थे। सन् १७०८ के लगभग
चिमणाजी वहीं
रहते थ। प्रथम पेशवा,
श्री मोरोपंत
पिंगले के नीचे
वे काम करते
थे। बाद में, ताराबाई
के समय इन्होंने
काफी उन्नति की।
शाहू राजा जब
औरंगजेब के
कारावास से
मुक्त हुए तो उन्होंने
चिमणाजी को
अपने यहाँ आने
का बुलावा भेजा।
उन्होंने आना स्वीकार
किया। इसके बाद
चिमणाजी का
कुल महाराष्ट्र
में प्रसिद्ध हो गया।
पेशवा और दामोदर
के कुटुंब में
इतनी घनिष्ठता
बढ़ी कि पेशवा
चिमणाजी को
'चिरंजीव' लिखते
थे। चिमणाजी शाहू
से जाकर मिले
लेकिन शाहू से
इनकी अनबन हो
गई। फलस्वरूप चिमणाजी
संभाजी के पास
केल्हापुर चले
गए। वहाँ कुछ दिनों
तक प्रधान मंत्री
के पद पर रहे।
इसके अनंतर वे
बड़े बाजीराव
के पिक्ष में जा मिले।
जिबकेराव दाभाडे
की ओर से डभोई
की लड़ाई में वे
स्वयं लड़े थे किंतु
इस लड़ाई में वे
हार गए अत: इनके
लिये केवल तीन
गाँवों की जागीर
रखकर सब जागीरें
पेशवाओं ने छी
लीं। चिमणाजी
के पास बहुत सी
जागींरें थीं। उनको
कोल्हापुर तथा
निजाम की ओर
से इनाम भी मिला
था किंतु पेशवा
के विपक्ष में लड़ने
से सब नष्ट हो
गया। सन् १७३१ के आसपास
उनकी मृत्यु हुई। (भीमराव
गोपाल देशपांडे.)