चिकित्सा रोगों से आक्रांत होने पर रोगों से मुक्त होने के लिये जो उपचार किया जाता है, संकीर्ण अर्थ में, वह चिकित्सा कहलाता है पर व्यापक अर्थ में वे सभी उपचार चिकित्सा के अंतर्गत आ जाते हैं जिनसे स्वास्थ्य की रक्षा और रोगों का निवारण होता है। भारत में इस समय चिकित्सा की चार पद्धतियाँ प्रचलित हैं : १. ऐलोपैथिक, २. होमियोपैथिक ३. आयुर्वैदिक और ४. यूनानी।
अंग्रेजों के भारत में आगमन के साथ साथ ऐलोपैथिक पद्धति यहाँ आई और ब्रिटिश राज्यकाल में शासकों से प्रोत्साहन पाने के कारण इसकी जड़ इस देश में जमी और पनपी। आज स्वतंत्र भारत में भी इस पद्धति को मान्यता प्राप्त है और इसके अध्यापन और अन्वेषण के लिये अनेक महाविद्यालय तथा अन्वेण संस्थाएँ खुली हुई हैं। प्रति वर्ष हजारों डाक्टर इन संस्थाओं से निकलकर इस पद्धति द्वारा चिकित्साकार्य करते हैं। देश भर में इस पद्धति से चिकित्सा करने के लिये अस्पताल खुले हुए हैं और उच्च कोटि के चिकित्सक उनमें काम करते हैं।
अंग्रेजों के शासनकाल में ही होमियोपैथिक पद्धति इस देश में आई और शासकों से प्रोत्साहन न मिलने के बावजूद भी यह पनपी। इसके अध्यापन के लिये भी आज अनेक संस्थाएँ देश भर में खुल गई हैं और नियमित रूप से उनमें होमियोपैथी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अंग्रेजी शासनकाल में यह राजमान्य पद्धति नहीं थी, किंतु अब इसे भी शासकीय मान्यता मिल गई है। (देखें होमियोपैथी)।
आयुर्वैदिक पद्धति भारत की प्राचीन पद्धति है। एक समय यह बहुत उन्नत थी, पर अनेक शताब्दियों से मुसलमानों और ब्रिटिश राज्यकाल में शासकों की ओर से प्रोत्साहन के अभाव में इसकी प्रगति रुक गई और यह पिछड़ गई। पर इसकी जड़ इतनी गहरी है कि आज भी देश के अधिकांश व्यक्तियों की चिकित्सा इसी प्रणाली से होती है। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद आयुर्वेद के अध्ययन में शासन की ओर से कुछ प्रोत्साहन मिल रहा है और वैज्ञानिक आधार पर इसके अध्यापन ओर अन्वेषण के लिये प्रयत्न हो रहे हैं (देखें आयुर्वेद)।
यूनानी चिकित्सा पद्धति मुसलमानी शासनकाल में आई और कुछ समय तक मुसलमानी राज्यकाल में पनपी, पर ब्रिटिश शासनकाल में प्रोत्साहन के अभाव में यह शिथिल पड़ गई। फिर भी कुछ संस्थाएँ आज भी चल रही हैं, जिनमें यूनानी पद्धति के पठन पाठन का विशेष प्रबंध है (देखें यूनानी चिकित्सा)। (फू. स. व.)
चिकित्सा (Therapeutics)- रोगनिवारण और रोगहरण की एक विधि एवं कला तथा वैद्यक के महत्व की एक शाखा है। इसके उद्देश्य स्वास्थ्यरक्षण, रोगनिवारण, रोगउन्मूलन, रोगों के उपद्रवों और दुष्परिणामों के निराकरण और यदि निराकरण न हो तो यथाशक्ति शमन है।
प्राचीन ग्रीक चिकित्सकों का कथन है ''चिकित्सक चिकित्सा करता है और प्रकृति रोगहरण करती है''। रोगों से बचने की रोगियों में शक्ति होती है, जिससे दवा न करने पर भी असंख्य रोगी नीरोग हो जाते है। चिकित्सा ऐसी होनी चाहिए कि वह रोगहरण की शक्तियों में कोई बाधा न डाले, वरन् उसमें सहयोग दे। इसके लिये चिकित्साकर्म में अत्यंत व्यग्रता न दिखानी चाहिए और न रोगियों को नैसर्गिक शक्ति के भरोसे ही छोड़ना, या उत्साहहीन चिकित्सा करनी, चाहिए।
स्वास्थ्य को बनाए रखना और रोग तथा महामारियों को उत्पन्न न होने देना रोग निवारक (preventive) चिकित्सा के अंतर्गत आता है। रोग हो जाने पर उसके नाश के लिये की जानेवाली चिकित्सा को रोगहारक (curative) चिकित्सा कहते हैं। जब रोगविज्ञान विकृतिविज्ञान, द्रव्यगुण विज्ञान इत्यादि विषयों के सम्यक् ज्ञान पर चिकित्सा अधिष्ठित होती है तब उसे युक्तिमूलक (rational) चिकित्सा कहते हैं। परंपरागत अनुभव चिकित्सा का आनुभाविक (empirical) चिकित्सा कहते हैं। चिकित्सा रोगहारक (radical), लाक्षणिक (nonspecific) हो सकती है।
प्राचीन काल में मनुष्य सूर्यप्रकाश, शुद्ध हवा, जल, अग्नि, मिट्टी, खनिज, वनस्पतियों की जड़, छाल, पत्ती आदि द्रव्यों से अनुभव के आधार पर चिकित्सा करता था। इनके गुणधर्म उसे मालूम न थे। इसी प्रकार, रोगों का ज्ञान न होने से, वे रोगों के उत्पन्न होने का कारण देवताओं का कोप समझते थे और उन्हें प्रसन्न करने का मंत्र-तंत्रों से प्रयत्न करते थे। पीछे जैसे जैसे रोगों का ज्ञान बढ़ा, दैवी चिकित्सा का जोर घटता गया और आनुभविक चिकित्सा का विस्तार होता गया। पीछे मैर्केज़ी (Mackenzie), कोख (Koch), एरलिच (Ehrlich) इत्यादि के परिश्रम और सूक्ष्म अवलोकन से आनुभविक चिकित्साद्रव्यों की मूलकता सिद्ध हो गई और अनेक नए द्रव्य आविष्कृत हुए। २०वीं शताब्दी तक चिकित्सा बहुत अधिक विकसित हो गई। आज चिकित्सा की अनेक शाखाएँ बन गई हैं, जिनमें निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं :
चिकित्सा- शब्द के अर्थ तथा इतिहास के अनुसार यथेष्ट काल तक चिकित्सा (कित्+ सन+ आ) केवल रोगों को दूर करनेवाले उपचारों की संगृहीत विद्या थी। इसमें साधारण शल्यकर्म और प्रसवकर्म तक के लिये कोई स्थान नहीं था तथा लोकस्वास्थ्य की तो कल्पना भी असंभव थी।
अति प्राचीन काल में चिकित्सा की नींव ऐसे उपचारों पर पड़ी, जिनमें रोगहरण के लिये भूत प्रेतों की बाधा को दूर करना आवश्यक समझा जाता था। इन उपचारों से शरीर की अवस्था अथवा उसके घावों इत्यादि का कोई संबंध नहीं होता था। कभी कभी चिकित्सक अनुभवसिद्ध ओषधियों का प्रयोग भी करते थे। कालांतर में ज्ञात ओषधियों की संख्या बढ़ती गई और झाड़ फूँक के प्रयोग ढीले पड़ने लगे। ईसा से ५०० वर्ष पूर्व के, मिस्र देश स्थित पिरामिडों से प्राप्त 'ईबर्स पैपाइरस (Ebers Papyrus) नामक लेख ऐसे ही समय का प्रतीक है।
चिकित्सा में पहला व्यापक परिवर्तन बुद्धपूर्व भारत की दिवोदास सुश्रुत परंपरा द्वारा हुआ। इसमें ओषधियों के प्रयोग के साथ साथ शवों के व्यवच्छेदन से प्राप्त ज्ञान का उपयोग प्रारंभ हुआ और दोनों प्रकार की चिकित्साओं को एक ही पंक्ति में रखा गया। इस परंपरा के प्रख्यात चिकित्सकों में बुद्धकालीन जीवक का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने शल्यकर्म और वैद्यक को समान महत्व देकर उन्हे पूर्णत: समकक्ष बनाया। इसके पश्चात् अनेक भारतेतर देशों ने भी शल्यकर्म को चिकित्सा का अभिन्न अंग बनाना आरंभ किया तथा इसी प्रसंग में प्रसवकर्म भी चिकित्सा के भीतर आया।
ईसा पूर्व ४६० वर्ष के पश्चात् विख्यात चिकित्सक हिपाक्रेटिज हुए, जिन्होंने चिकित्सा को धर्मनिरपेक्ष तथा पर्यवेक्षणान्वेषणमुखी व्यापक व्यवसाय बनाया। मिस्र का सिकंदरिया नामक नगर उस समय इस विद्या का केंद्र था। यहाँ इस परंपरा को २०० वर्षों तक प्रश्रय मिला, किंतु इसके बाद यह लुप्त होने लगी। ईसा पश्चात् १४०० वर्ष तक धर्मांधता के प्राबल्य के कारण वैज्ञानिक चिकित्सा का विस्तार नगण्य रहा, किंतु यूरोप के पुनर्जागरण पर विज्ञान की चतुर्दिक् वृद्धि होने लगी, जिसने चिकित्सा को विशालता दी तथा विभिन्नताओं को हटाया।
चित्र १. रोगी को लिटाने की विशेष रीतियाँ
१. कृत्रिम पट - निलंबित जीर्वतता में कृत्रिम श्वाससंचालन के लिये; २. आक्षोभ स्थिति (Shock Ppsoition) - अत्यंत रक्तस्त्राव इत्यादि कारणों से पारिवहनिक वैफल्य में उपयोगी; ३. हृदय विश्रामण (Cardiaesest) - प्रगत हृदरोग तथा ऊर्ध्व श्वसन में लाभदायक; ४. फाउलर स्थिति (Fowler's position) - अति श्वसन में उपयोगी; ५. ऊँचा सिरहाना (Head elevated) - गर्दनतोड़ ज्वर या मेनिनजाइटिस प्रभृति में उपयुक्त; ६. जानुवक्ष (Genu pectoral) - स्त्रियों और बच्चों के अनेक रोगों के निदान तथा चिकित्सा में आवश्यक; ७. ट्रैडेलेनबर्ग (Trendelenburg) न्यास - श्रोणि प्रदेशीय शल्यचिकित्सा तथा रक्तचाप की हीनता में उपयोगी; ८. लिथॉटोमी (Lithotomy) स्थिति शल्य कर्म तथा प्रसूति में उपयोगी; ९. ऊर्ध्वपाद (Legs elavated) - अधस्थ अंगों के प्रदाह और सूजन आदि में उपयुक्त, तथा १०. बहुप्रयोजनीय स्थिति - नाना प्रकार की शल्य तथा अन्य चिकित्साओं में उपयोगी।
परिभाषा तथा परिसीमन- चिकित्सा विज्ञान फलसमन्वित ऐसा शास्त्र है, जिसमें ऐसे उपायों के उपयोगों का वर्णन है जो लोकस्वास्थ्य तथा वैयक्तिक स्वास्थ्य की दृष्टि से, शरीर संबंधी सभी अवस्थाओं में, आवश्यतानुसार (1) रोगोन्मूलक तथा निवारक, (2) घटना नियंत्रक तथा सुधारक, (3) अभावपूरक, (4) विकारक तथा विकृत अंगों के निष्कासक, (5) कुरूपता तथा असमर्थता के निवारक, (6) क्षतांगों के प्रतिस्थापक एवं विकलांगों के पुनर्वासक और
चित्र २. वातभरण यंत्र।
विभिन्न प्रकार की आंत्र तथा फुफ्फुस यक्ष्मा की चिकित्सा तथा अन्य नैदानिक कार्यों में उपयोगी।
(7) सुजनन, सुपोषण सुसंतान तथा परिवारनियोजन प्रभृति समस्याओं के पूरक होते हैं। चिकित्सा शिक्षण में भौतिकी, सांख्यिकी, रसायन, वनस्पति, प्राणि तथा सूक्ष्मजीव विज्ञान, मानवीय शरीररचना, कायिकी-विकृतिविज्ञान, प्रतिरक्षण विज्ञान, इत्यादि प्रत्यक्ष:, तथा अन्य सभी विज्ञान परोक्षत:, सहायक होते हैं।
चित्र ३. शिरामार्गी प्रतिपालन
आपत्स्थिति में रक्ताधान, खाद्य तथा लवणादिक निषेचनों को देने की रीति। क. औषधि या दातव्य रक्त; ख. तथा ग. स्टॉप कॉक और उसके भाग; ङ. छ और ज, बंधक स्ट्रैप (Strap); च सूई तथा स उपस्तंभ।
मूलत: सिद्धांत पर आधारित चिकित्सा के तीन प्रकार हैं : यौक्तिक, मनोदैहिक तथा आनुभविक। यौक्तिक चिकित्सा में रोग के कारणों एवं रोगी के कायिक तथा मानसिक परिवर्तनों को समझकर, ज्ञात प्रभाव की ओषधियों अथवा साधनों का उपयोग किया जाता है। मनोदैहिक चिकित्सा में विशिष्ट मन:चिकित्सा और विश्वासमूलक चिकित्सा दोनों संमिलित हैं। प्रथम के विस्तारों में नाना प्रकार के मनोविश्लेषण वैविध्य है तथा दूसरे में प्लैसेबो (Placebo) सदृश निष्प्रभाव ओषधियाँ और झाड़ फूँक प्रभृति प्रयोग आते हैं। आनुभविक चिकित्सा में ज्ञात लाक्षणिक प्रभावों के बल पर ओषधियों का प्रयोग करते हैं, किंतु शरीर में दवा किस प्रकार काम करती है, इसक पता नहीं होता। चिकित्सा शब्द के साथ विशेष साधनों के नाम लगाने से विशेष ओषधीय प्रयोगों का बोध होता है, जैसे जलचिकित्सा, विद्युच्चिकित्सा, डायथर्मी (Diathermy) चिकित्सा आदि।
चिकित्सा की रीतियाँ और प्राविधिकी- चिकित्सा की सभी क्रियाओं के आठ विभाग किए जा सकते हैं :
विशेषज्ञता और चिकित्सा परिचालन - पहले वैद्यक, शल्यकर्म, तथा प्रसूतिविद्या पृथक् पृथक् थीं। बाद में इन्हें एक साथ सूत्रबद्ध किया गया। किंतु ज्ञान का विस्तार और तकनीकी में आश्चर्यजनक वृद्धि होने के कारण, वर्तमान काल में विशिष्टकरण अनिवार्य हो गया। फिर भी संक्रमण तथा विंसक्रमण के विचार, अद्यतन ढंगों से ओषधियों के प्रयोग, विश्राम तथा व्यायाम के प्रयोग, विश्राम तथा व्यायाम के प्रयोग इत्यादि बातें सब रोगों या विकृतियों के उपचार में एक से ही सिद्धांतों पर आधारित हैं।
चिकित्सा और प्रकृति की शक्ति - रोग दूर करने में प्रकृति की शक्ति ही मुख्य है। हिपाक्रेटीज के काल से आज तक रोगनिवारण के लिये चिकित्सक इसी शक्ति का उपयोग करते आए हैं। वे आधुनिक साधनों का तभी प्रयोग करते हैं, जब वें देखते हैं कि प्रकृति को सहारे या सहायता की आवश्यकता है। (अदालत सिंह)