चाहमान चहुआण, चौहान आदि नामों से प्रसिद्ध यह राजपूत जाति भारत में दूर दूर तक फैली हुई हैं। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात और सुदूर बिहार तक में इनके राज्य रहे हैं। महाराष्ट्र में भी चह्वाण विद्यमान हैं। आजकल चौहान अपने को अग्निवंशी मानते हैं। किंतु अपने प्राचीन काव्यों और प्रशस्तियों में ये सूर्यवंशी माने गए हैं। कुछ ऐतिहासिकों का विचार है कि गुहिलों की तरह चौहान किसी समय ब्राह्मणवंशी थे, किंतु सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों ने इन्हें क्षत्रियत्व धारण करने को विवश किया। पृथ्वीराजरासो ने आबू को और पृथ्वीराजविजय ने पुष्कर को प्रथम चाहमन का उत्पत्तिस्थान माना है।

चौहनों ने अनेक राज्यों की स्थापना की। संवत् ८१३ में भृगुकच्छ चाह्मान भर्तृवड्ढ द्वितीय द्वारा प्रशासित था। धौलापुर के क्षेत्र में संवत् ८९८ में चौहानों की एक और शाखा राज कर रही थी। प्रतापगढ़ के चौहानों का संवत् १००३ का एक लेख प्राप्त है, किंतु सबसे अधिक प्रसिद्धि इनकी साँभर की शाखा ने प्राप्त की। सम्राट् वत्सराज प्रतिहार के सेनापति के रूप में दुर्लभराज चाहमान गंगासागर तक पहुंचा। प्रतिहारों के अवनत होने पर विग्रहराज द्वितीय ने स्वतंत्र होकर इधर उधर के प्रदेश जीते और उसकी सेनाओं ने भृगुकच्छ तक धावा किया। उसी के वंशज अजयराज ने वि. सं. ११९० के लगभग, अपने नाम से अजयमेरु (अजमेर) दुर्ग बनवाया और वहीं अजमेर नगर बसाकर अपनी राजधानी बनाई। उसके पुत्र अणॉराज ने यहीं पास की तलहटी में मुसलमानों को बुरी तरह परास्त कर उसी रक्तरंजित भूमि की शुद्धि के लिये अनासागर झील बनवाई। अर्णोराज के समय अजमेर राज्य की पर्याप्त वृद्धि हुई किंतु संवत् १२०८ के लगभग वह गुजरात के राजा कुमारपाल से हारा। अर्णोराज के उत्तराधिकारी बीसलदेव ने इस पराजय का ही बदला न लिया, उसने चालुक्यों को परास्त कर चित्तौड़ और उसके निकटवर्ती प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया। दिल्ली संभवत: उसने तेवरों से ली। अशोकस्तंभ पर उत्कीर्ण बीसल का जेल उसके हाथों मुसलमानों की पराजय का अमर स्मारक बन चुका है। इसी का भतीजा सोमेश्वर का पुत्र पृथ्वीराज था। वह गद्दी पर बहुत छोटी अवस्था में बैठा। वयस्क होने पर उसने महोबे के चंदेलो को हराया। गुजरात के चालुक्यों के विरुद्ध भी उस कुछ सफलता मिली। हरियाने के समस्त भूभाग पर भी उसने अधिकार किया। कन्नौज के राजा जयचंद से भी उसकी खटपट चलती ही रहती थी। सन् ११९१ में उसने मुहम्मद गोरी को परास्त किया। किंतु ११९२ में यह स्वयं मुसलमानों से परास्त होकर मारा गया। इसी तिथि से मानो हिंदू स्वाधीनता की इतिश्री हो गई।

पृथ्वीराज के वंशजों में रणथभोर के राजा हठीले हम्मीर ने मुगल वीर मुहम्मदशाह को शरण दे और अलाउद्दीन खिलजी से युद्ध कर अमर कीर्ति प्राप्त की। नाडोल में बीसलदेव के एक भाई लक्ष्मण या लाखा ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। लक्ष्मण के वंशज कीर्तिपाल ने जालोर के राज्य की नींव डाली। जालोर के राजा कान्हडदेव ने भी अलाउद्दीन खिल्जी के विरुद्ध लड़कर वीरगति प्राप्त की। इस तरह १३१६ के लगभग राजस्थान के अनेक चौहान राज्यों की समाप्ति हो गई। किंतु चौहनों की गति यदि एक ओर अवरुद्ध हुई तो दूसरी ओर उन्होंने फैलना आरंभ कर दिया। परमारों से उन्होंने चंद्रावती और आबू छीने और कुछ समय के बाद सिरोही के राज्य की स्थापना की। बूँदी और कोटा के राज्य हाड़ा चौहानों के हैं। खीचियों ने अनेक छोटे मोटे राज्यों को जन्म दिया। चंदवाड़ में भी चौहानों का एक राज्य था जो सदियों तक रहा। उत्तर प्रदेश में मैनपुरी आदि स्थानों में उनकी अनेक शाखाएँ फैली और पूर्व में वे पटना राज्य के संस्थापक बने। राजपूतों में शौर्य और साहस के लिये चाहमान सदा अग्रणी रहते हैं। (दशरथ शर्मा)