चावल
और धान
चावल, जो धान
पर से भूसी निकालकर
साफ करने से
प्राप्त होता है,
संसार की लगभग
आधी जनसंख्या
का मुख्य भोजन
है। खाद्य एवं कृषिसंगठन
की सूचना के
अनुसार सन् १९५४
में समस्त संसार
में २३ करोड़ एकड़ में
धान की खेती
होती थी, जिससे
१६.२ करोड़ मीट्रिक
टन साफ चावल
का कुल उत्पादन
हुआ। यह फसल अधिकांश
रूप से एशिया की
फसल कही जा सकती
है, क्योंकि ९५ प्रति
शत चावल दक्षिण
पूर्वी एशिया के
देशों में, अर्थात्
पाकिस्तान से
लेकर जापान
तक, होता है।
धान गरम और
आर्द्र जलवायु
की फसल है। ४५°
उत्तर अक्षांश से लेकर
४०° दक्षिण अक्षांश
तक, जहाँ कहीं
भी वर्षा अथवा
सिंचाई द्वारा
पानी का प्रबंध
हो सकता है,
धान की खेती
होती है। धान
के लिये २०°
से लेकर ३८°
तक का ताप तथा
३० इंच से लेकर
२०० इंच तक की वर्षा
उपयुक्त जलवायु
है।
भारत में सन् १९५७-५८ में धान की खेती ७ करोड़ ९० लाख एकड़ में हुई, जिसमें २ करोड़ ४८ लाख टन शुद्ध चावल प्राप्त हुआ। संसार के अन्य किसी देश में इतने अधिक क्षेत्रफल में धान की खेती नहीं होती। भारत के सभी राज्यों में, मद्रास से लेकर कश्मीर तक, धान की खेती होती है।
यों तो धान की किस्मों के लिये यह कहावत प्रसिद्ध है कि यदि धान की प्रत्येक किस्म का केवल एक एक दाना घड़े में रखा जाय, तो घड़ा भर सकता है, परंतु वानस्पतिक वर्गीकरण के अनुसार जंगली घानों के अतिरिक्त खेती किए जानेवाले धान दो प्रकार के होते हैं- ओराइजा ग्लैबरीना और दूसरा ओराइजा सटाइवा। ओराइजा ग्लैबरीना की खेती केवल पश्चिमी अफ्रीका में होती है। शेष संसार में ओराइजा सटाइवा की खेती होती है। ओराइजा सटाइवा की किस्में सबसे अधिक भारत में पाई जाती हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि संभवत: भारत ही इस जाति के धान की उत्पत्ति का देश है। ओराइजा सटाइवा को भी भौगोलिक दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है। : ओराइजा सटाइवा जेपैनिका और ओराइजा सटाइवा इंडिका। जेपैनिका किस्म के धान की खेती जापान, कोरिया तथा अन्य समशीतोष्ण देशों में होती है और इंडिका किस्म की खेती भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य देशों में।
जेपैनिका किस्त के धानों की विशेषता उसकी अधिक पैदावार, छोटा कद, अधिक खाद देने पर लंबा बढ़ने के बजाय अधिक कल्लों का निकलना, गोल मोटा दाना तथा धान में अधिक चावल का प्रतिशत है, जब कि इंडिका किस्म के धानों की विशेषता उनका लंबा दाना, औसतन कम पैदावार और अधिक खाद देने पर बढ़कर गिर जाने की प्रवृत्ति है। परंतु इंडिका किस्में बीमारियों तथा वातावरण का अधिक अच्छी तरह मुकाबला कर सकती हैं। जेपैनिका किस्म के धान उन क्षेत्रों के लिये उपयुक्त नहीं हैं, जिनमें इंडिका किस्म के धान की खेती होती है इसी प्रकार जिन देशों में जेपैनिका धान की खेती होती है, वहाँ इंडिका की नहीं हो सकती। परंतु यह संभव है कि जेपैनिक और इंडिका धान की किस्मों को मिलाकर एक संकर जाति उत्पन्न की जाए जिसमें भारतीय धानों के अच्छे गुणों के साथ साथ जेपैनिका धान की अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सके। इस प्रकार का संकरीकरण (hybridization) चावल-अनुसंधान-केंद्र, कटक में हो रहा है।
धान की खेती के मुख्य दो ढंग हैं : एक तो धान के बीज को सीधे खेत में बोकर और दूसरा धान को पहले बियाड़ में बोकर तथा जब पौधा कुछ बड़ा हो जाय तब उसे उखाड़कर खेतों में रोपाई करके। ऊँची जमीनों पर, जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं हैं वहाँ धान को सीधे खेत में बोने की प्रथा है, परंतु नीची जमीनों में, जहाँ पानी लगता है या जहाँ सिंचाई के साधन प्राप्त हैं, वहाँ रोपाई की प्रथा प्रचलित है। यद्यपि यह माना जाता है कि रोपाई के ढंग से धान की पैदावार अधिक होती है, तथापि यदि खेतों को घासों से मुक्त रखा जा से और खाद का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग किया जाय, तो सीधे बोवाई के ढंग से भी धान की अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। धान का छिटककर न बोकर, यदि लाइन से उसकी बोवाई और लाइन के बीच में गोड़ाई निकाई करके खेत साफ रखा जाय तथा खेत में खाद भी पर्याप्त मात्रा में डाली जाय, तो पैदावर लगभग उतनी ही प्राप्त की जा सकती है जितनी धान की रोपाई द्वारा। ऊँचे खेतों में बोई जानेवाली धान की किस्में ज्यादातर कम समय, अर्थात् ८० से लेकर १२० दिनों तक, में तैयार होती हैं। और नीचे खेतों में रोपाई की जानेवाली किस्में अधिक समय में, अर्थात् १४० से लेकर १७० दिनों तक में तैयार होती हैं। इन दो मुख्य किस्मों के अतिरिक्त बहुत सी अन्य किस्में हैं, जो फसल तैयार होने की अवधि तक पानी की आवश्यकता को दृष्टि से इन दो मुख्य किस्मों के बीच की हैं। इस प्रकार भारत में पैदा होनेवाले धानों को उनको पकने की अवधि के अनुसार लघ, मध्यम और दीर्घकालीन किस्मों में बांटा जा सकता है। इनके अतिरिक्त कुछ किस्में ऐसी हैं जो ५ से लेकर २५ फुट तक पानी में पैदा होती हैं। इन्हें गहरे पानी के धान की किस्में कहा जाता है। धान की अधिकांश फसलें वर्षा ऋतु में पैदा की जाती हैं, परंतु ताल, पोखरों और नदियों के किनारे तथा उन सभी स्थानों पर, जहां सिंचाई की सुविधा हो, गरमी के दिनों में एक जायद फसल, जिसे बोरो या डलुआ कहते हैं, पैदा की जा सकती है। यह अक्टूबर नवंबर में बोकर दिसंबर जनवरी में रोपी जाती है और मार्च अप्रैल तक तैयार हो जाती है।
धान की प्रति एकड़ सबसे अधिक उपज स्पेन, इटली ओर जापान में होती है, जो क्रमश: ५,०८५-४,५०० और ४,००० पौंड है। इन देशों की तुलना में भारत की प्रति एकड़ १,२०० पौंड पैदावार बहुत ही कम है। धान की उपज बढ़ाने के लिये निम्नलिखित बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए : १. सिंचाई के साधनों का प्रसार २. पर्याप्त मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग, ३. हरी खाद का प्रयोग, ४. खेती के ढंग में सुधार, ५. उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग, ६. कीड़े मकोड़ों, घास पात और बीमारियों की अच्छी रोक थाम, ७. गोबर, गोमूत्र और जानवरों एवं मनुष्यों के मल मूत्र आदि का अधिक प्रयोग तथा ८. हरी और सूखी खर पतवार का कंपोस्ट बनाकर धान के खेतों में प्रयोग।
धान का व्यवहार मुख्यत: उसको कूटकर चावल के रूप में होता है। धान की कुटाई दो प्रकार से होती है। एक तो गाँवों में ढेंकी द्वारा और दूसरी कारखानों में यंत्रों द्वारा। मिल में कूटे गए धान के चावल मे स्वच्छता अधिक होती है, किंतु इसमें विटामिन बी की कमी हो जाती है, जिसके कारण बेरीबेरी रोग होता है। चावल में स्टार्च पर्याप्त मात्रा में है और इसका पाचन सुगमता से होता है। पुआल का उपयोग, छप्पर बनाने, कागज उद्योग, चटाई बनाने तथा पैकिंग के कार्य में होता है। थोड़ी मात्रा में यह चिउड़ा, लाई इत्यादि बनाने के काम अता है। भोजन के अतिरक्त चावल का प्रयोग माड़ तथा शराब तैयार करने में भी होता है।
(भानु प्रताप सिंह.)