चाय चाय में कैफीन, टैनिन और गंधतैल (जिनसे चाय का स्वाद बनता है), रेशा, सेलूलोज़, क्लोरोफिल, गोंद, प्रोटीन, मोमी पदार्थ् और कुछ प्रकिण्व (जिनसे काली चाय के बनने में किण्वन होता है) रहते हैं। इन विभिन्न पदार्थों की आपेक्षिक मात्रा विभिन्न रहती है। मात्रा कई परिस्थितियों, जैसे उत्पत्ति स्थान, बढ़ने की स्थिति, पत्तियों के चुनाव, तैयार करने के ढंग, आदि पर निर्भर करती है। सामान्य चाय का औसत संघटन प्रतिशत इस प्रकार दिया जा सकता है :

 
भारतीय
चीनी
चीनी
ऊलोंग
 
काली चाय
काली चाय
हरी चाय
चाय
जल
५.८
८.४
६.४
५.९
समस्त निष्कर्ष
४.२
३.४
४.६
४.३
कैफीन
२.७
२.४
२.४
२.३
टैनिन
१४.९
११.५
१४.६
१६.४
समस्त राख
५.८
६.२
७.४
६.३
विलेय राख
३.५
३.०
३.३
३.२
अविलेय राख
०.२
०.५
०.५
०.५

श्

चाय का ईथर निष्कर्ष ३.३- १५.३, डेक्सट्रिन और गोंद ३.०- ७.०, प्रोटीन, २२.६- २७.५ तथा सेल्यूलोज़ ११.९- १४.९ प्रतिशत रहते हैं।

परिस्थितियों के हेर फेर का प्रभाव - ऐस कहा जाता है कि पुराने पेड़ की चाय उत्कृष्ट होती है, पर विश्लेषण से इसकी पुष्टि नहीं होती। चुनने के पहले पौधों को तीन सप्ताह तक छाया में रखने से कैफीन और समस्त नाइट्रोजन की मात्रा अधिक पाई गई है। पत्तियों की परिपक्वता का कोई विशेष प्रभाव नहीं देखा गया है। परिपक्व पत्तियों में केवल शर्करा कुछ अधिक पाई गई है। पत्तियाँ तोड़ने के संबंध में देखा गया है कि देर से तोड़ने पर पत्तियों में कैफीन और राख में पोटाश और फास्फरस की मात्रा कम होती है। तैयार करने के ढंग का चाय पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जैस ऊपर के अंकों से पता लगता है। सूखी पत्तियों के १०० भाग से ९८.६ भाग हरी चाय और ९५.५ भाग काली चाय प्राप्त होती है।

चाय की पत्तियाँ तैयार करने में परिवर्तन - चाय की पत्तियों के तैयार करने में क्या परिवर्तन होता है, इसका अध्ययन सूक्ष्मता से किया गया है। पत्तियों की सुखाई में प्रधानतया जल निकलता है, पत्तियों के लुढ़काने और उछालने में और जल निकलता है, कोशिकाएँ टूटती हैं और रस उन्मुक्त होता है। पत्तियों के अवयव कुछ अधिक विलेय हो जाते हैं और पत्तियों का किण्वन भी होता है। टैनिन का उपचयन होकर टैनिन प्रोटीन के साथ साथ संयुक्त होकर अविलेय यौगिक बनता है, जिससे टैनिन की विलेयता कम हो जाती है। टैनिन अंशत: क्विनोन में आक्सीकृत हो जाता है, जो पीछे संघनित होकर उच्च अणुभार का यौगिक बनता है। ऐसे यौगिक चाय में पाए गए हैं। इन यौगिकों का रंग रक्त भूरा होता है, जिससे चाय का रंग भी ऐसा ही हो जाता है। इन्हीं यौगिकों से चाय में स्वाद भी आता है। किण्वन के समय गंधतैल बनते हैं। यदि किण्वन अधिक समय तक होता रहे, तो टैनिन की मात्रा कम हो जाती है। यही कारण है कि चीन की काली चाय में टैनिन कम रहता है।

अंतिम अवस्था में पत्तियाँ एक बार फिर गरम की जाती हैं, जिससे प्रकिण्व नष्ट होकर किण्वन रुक जाता है तथा पानी का कुछ और अंश निकल जाता है। हरी चाय में किण्वन न होने से गंधतैल नहीं बनता। इसमें टैनिन की मात्रा अधिक रहती है।

चाय का विश्लेषण - चाय के विश्लेषण के अंक किसी महत्व के नहीं है, क्योंकि चाय की उत्कृष्टता उसे स्वाद और गंध से जानी जाती है। पर चाय की मिलावट के जानने में विश्लेषण के अंकों से सहायता मिलती है।

कैफीन - चाय का सबसे अधिक महत्व का अवयव कैफीन है। चाय की सूखी पत्तियों में कैफीन इस प्रकार पाया गया है :

चाय का देश

प्रतिशत

भारत
३.९- ४.९
लंका
२.६- ४.९
जावा
३.४- ४.१
जापान
३.६- ३.९

चाय की पहली दो पत्तियों में कैफीन ३.४ प्रतिशत, पाँचवीं और छठी पत्तियों में १.५ प्रतिशत और तने तथा अन्य भागों में और भी कम पाया गया है। कैफीन के निर्धारण की सरल रीति : चाय का ऐलकोहल द्वारा निष्कर्ष निकालकर, मैग्नीशिया के साथ उद्वाष्पित कर सुखाने से अवशेष प्राप्त होता है। अवशेष का जल से निष्कर्ष निकालते हैं। निष्कर्ष को अम्लीय बनाते और क्लोरोफार्म से उसका निष्कर्ष निकालते हैं। इस निष्कर्ष के सुखाने से जो अवशेष बच जाता है वही कैफीन है।

टैनिन - टैनिन कोई शुद्ध कार्बनिक यैगिक नहीं है। अनेक संबंधित यौगिकों का मिश्रण है। टैनिन का निष्कर्ष उष्ण ऐलकोहल से निकाला जाता है। पत्तियों में टैनिन की मात्रा एक सी नहीं रहती। असम की चाय के प्ररोह में मई में ११.६ प्रतिशत, जून में २०.२ प्रतिशत और सिंतबर में २१.७ प्रतिशत टैनिन पाया गया है। विभिन्न स्थान की पत्तियें में भी टैनिन की मात्रा विभिन्न रहती है। टैनिन के निर्धारित करने की विधि पेचीदा है। इसके लिये विश्लेषण का कोई ग्रंथ देखना चाहिए।

गंधतैल - काली चाय की विशिष्ट गंध का करण यह गंधतैल है, जो बड़ी अल्प मात्रा में चाय में रहता है। इसकी मात्रा ०.००६ प्रतिशत रहती है। इस तेल का विशिष्ट घनत्व २६ सें. पर ०.८६ होता है। असंतृप्त ऐलकोहल के कारण यह गंध है। पत्तियों के किण्वन से यह बनता है। वाष्प आसवन से यह पृथक् किया जा सकता है।

जल - बाजार की चाय में जल की मात्रा प्राय: ८ प्रतिशत रहती है। ताजी तैयार पत्तियों में जल प्राय: ४ ही प्रतिशत रहता है। १००° सें. पर स्थायी भार तक गरम करने से जल की मात्रा निर्धारित होती है।

राख - चाय में राख की मात्रा ५.५ से ७.५ प्रतिशत रहती है। राख में सबसे अधिक, ३५-४० प्रतिशत, पोटाश, पो और (K2O), और १५ प्रतिशत तक फास्फरस, फा (P2O5), रहता है। सदा ही अल्प मात्रा में मैंगनीज़ रहता है। राख की मात्रा से मिलावट का बहुत कुछ पता लगता है। अधिक राख का होना मिलावट का सूचक है। राख की आधी मात्रा जल में घुल जाती है। क्वाथ निकाल लेने पर पत्तियों में राख की मात्रा ४ प्रतिशत के लगभग रह जाती है, जो अधिकांश जल में अविलेय होती है।

नाइट्रोजन - चाय में ५-६ प्रतिशत नाइट्रोजन रहता है। इसका पाँचवां भाग कैफीन के कारण है, शेष भाग प्रोटीन के कारण है। सामान्य केल्डाल विधि से नाइट्रोजन का निर्धारण होता है।

विटामिन - चाय की ताजी पत्तियों में विटामिन सी प्रति ग्राम ०.१४ से ०.४५ मिलीग्राम तक रहता है। पत्तियाँ तैयार करने पर मात्रा कम हो जाती है। बड़ी अल्प मात्रा में निकोटिनिक अम्ल पाया जाता है। चाय के क्वाथ में बड़ा अल्प रिबोफ्लैविन और पैंटोथीनिक अम्ल पाए गए हैं।

अन्य अवयव - चाय में कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में रहता है। इसमें अधिकांश सेलूलोज़ और शेष गोंद, डेक्सट्रिन, पेक्टिन और बड़ा अल्प स्टार्च और शर्कराएँ रहती हैं। चाय में रंगीन पदार्थों में क्लोरोफिल, कैरोटीन और ज़ैंथोफिल पाए गए हैं। चाय में बहुत थोड़ा असंयुक्त आक्ज़ैलिक अम्ल और कैलसियम आक्ज़ैलेट के मणिभ देखे गए हैं।

चाय का क्वाथ - पीने के लिये चाय का क्वाथ तैयार करने में पाँच मिनट से अधिक पत्तियों को उबलते जल में नहीं रखना चाहिए। इतने समय में कैफीन की अधिकतम मात्रा, स्वादवाले पदार्थ और टैनिन की न्यूनतम (समस्त की प्राय: आधी) मात्रा निकल आती है। चाय बनाने में कठोर या मृदु जल के उपयोग से क्वाथ में भिन्नता आ जाती है।

कैफीन के कारण चाय का प्रभाव उत्तेजक होता है। इसमें विशिष्ट स्वद और सुवास होता है। टैनिन के उपचयित उत्पाद, गंधतैल के कारण स्वाद और सुवास हाते हैं। चाय का आहारमूल्य कुछ नहीं है, सिवाय उस चीनी और दूध के कारण जो चाय में डाला जाता है। इसमें अल्प विटामिन सी रहता है। शरीर पर चाय का प्रभाव प्राय: वही होता है जो कैफीन का होता है, पर अल्पतर मात्रा में। चाय जागरण में सहायता करती, मानसीक सक्रियता बढ़ाती, शारीरिक कार्य करने में पेशियों को उत्तेजित करती और मूत्र को बढ़ाती है। एक प्याली चाय में ओसत एक ग्रेन कैफ़ीन रहता है। अंशत: कैफ़ीन के कारण, पर प्रधानतया टैनिन के कारण, कुछ लोग चाय का पीना पंसद नहीं करते। कैफीन और टैनिन को निकाल देने की भी चेष्टाएँ हुई हैं, पर इनके निकाल देने से चाय फिर चाय नहीं रह जाती।

चाय की मिलावट - चाय अपेक्षया महँगी बिकती है। इससे कभी कभी इसमें मिलावट की जाती है। मिलावट को रोकने के लिये कुछ देशों में कानून बने हैं और मिलावटवाली चाय को नष्ट कर देने का निर्देश हैं। साधारणतय जो चीजें मिलाई जाती हैं, वे हैं - (१) अन्य पौधों की पत्तियाँ, (२) एक बार इस्तेमाल की हुई चाय की पत्तियाँ, (३) बालू के कण, (४) लोहे की रेतन, (५) कुछ वानस्पतिक रंग, (६) कत्था, (७) चाय के डंठल आदि। (फू.स.व.)

आज की सभ्यता में पेय पदार्थो का विशेष महत्व है, जिनमें चाय के उच्चतम स्थान प्राप्त किया है। यदि जल का दूसरा नाम जीवन है तो चाय का दूसरा नाम स्फूर्तिदायिनी, या अवसादहारिणी, है।

चाय की इस दिव्य शक्ति का अनुसंधान सर्वप्रथम किसने किया, यह विवादग्रस्त विषय है। चीनी अनुश्रुति के अनुसार वहाँ के राजा शेननुंग ने चाय का अनुसंधान किया। भारतीय किंवदंती है कि 'धर्म' नामक एक बौद्ध भिक्षु ने सर्वप्रथम चाय की पत्तियों का उपयोग किया। धर्म ने प्रतिज्ञा की कि वे सात वर्ष तक अनवरत तपस्या करेंगे, परंतु पाँच वर्ष व्यतीत हाने पर जब उन्हें नींद आने लगी तब उन्होंने समीपस्थ झाड़ी की पत्तियाँ तोड़ कर खाईं, जिसके फलस्वरूप वे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने में समर्थ हुए। यह झाड़ी चाय की थी। प्रमाणत: यह अनुश्रुति भी चीनी परंपरा की ही है। जापानियों के अनुसार भी धर्म द्वारा ही चाय का आविष्कार हुआ, परंतु उसकी उत्पत्ति की कथा भिन्न है। तपस्या के चमत्कार के फलस्वरूप उन्होंने अपनी दोनों आँखों की पुतलियों को निकालकर फेंक दिया, और उन्हीं से चाय की उत्पत्ति हुई। संभवत: इसी कारण जापान में चाय का इतना अधिक महत्व है। चाय की उत्पत्ति जहाँ भी हुई हो, इस पर सबसे पहला ग्रंथ लिखने का श्रेय चीन के कवि लू चू को है, जिन्होंने सन् ७८० ई. में 'चाचिंग' नाम की पुस्तक लिखी।

भारतीय चाय का इतिहास १९वीं सदी से प्रारंभ होता है। सन् १८२३ ई. में मेजर राबर्ट ब्रूस ने असम के वनों मे इसे पाया। इसके बाद चीनी बीजों से छोटे पैमाने पर चाय की खेती आरंभ हुई, किंतु क्रमश: आसामी चाय चीनी चाय से बेहतर सिद्ध हुई। आज भारत में इसी चाय की खेती अधिक होती है।

वनस्पति शास्त्र के अनुसार चाय कैमीलिया (Camellia) जाति का पौधा है, और कैमीलिया सिनेंसिस (Camellia Sinensis) के नाम से विख्यात है। मजबूत पौधा होने के बावजूद यह विशेष प्रकार के मौसम और मिट्टी में ही पनपता है। उष्ण और समशीतोष्ण कटिबंध के अधिक वर्षावाले प्रदेशों में इसकी खेती सर्वोत्तम होती है। ८०¢ ¢ से १५०¢ ¢ तक की वर्षा की आवश्यता होने पर भी यदि जड़ों में पानी एकत्रित हो जाय तो पौधों को नुकसान पहुँचता है। यही कारण है कि चाय की खेती पर्वतों की ढलान पर या तराई में अधिक की जाती है, ताकि वर्षा का पानी वह जाय और यदि वह खेती समतल भूमि पर की जाती है तो वहाँ नालियों का प्रबंध करना होता है। सर्वोत्तम श्रेणी की चाय १००० से लेकर २००० मीटर तक की ऊँचाई पर होती है।

अधिकांश पौधे के पत्ते कभी न कभी झरते ही हैं, परंतु चाय के पौधों में पतझर कभी नहीं आता। इसकी वृद्धि यदि निर्बाध रूप से होने दी जाय तो यह पौधा ३० फुट से भी अधिक ऊँचा हो सकता है। इसमें श्वेत सुगंधयुक्त पुष्प लगते हैं, जिनमें तीन या चार बीज रहते हैं। हरे आवरण को हटाने पर बीज भूरे रंग के दीखते हैं जो एक-दो इंच से लेकर तीन-चार इंच तक बड़े होते हैं।

चाय मुख्यत: दो प्रकार की होती है - चीनी और असमी। चीनी चाय की पत्तियाँ २¢ ¢ लंबी तथा गहरे रंग की होती हैं ; असमी चाय की ४¢ ¢ लंबी, कोमल तथा हल्की होती हैं। चीनी चाय की उत्पादन किसी भी स्थान में हो सकता है, परंतु असमी चाय को अधिक वर्षा, साधारण ठंढ़ तथा गर्म मौसम की आवश्यकता होती है। चाय की खेती की जमीन सतह से चार-पाँच फुट की गहराई तक हल्की होनी चाहिए। बालू मिश्रित काली मिट्टी अधिक हितकर होती है।

चाय की खेती के विधिक्रम में इसके बीजों की जाँच का विशेष महत्व होता है, साथ ही इसका ढंग भी निराला है। इनको पानी में डुबोने पर बीज ऊपर तैरने लगेते हैं, वे सूखे हुए तथा अनुपयुक्त समझकर फेंक दिए जाते हैं और जो बीज नीचे तल में बैठ जाते हैं उन्हें बोने के काम में लाते हैं। बीजों का नर्सरी में लगाते हैं, पर कई बार उन्हें सीधे क्यरी में भी लगा देते हैं। प्राय: अंकुर निकलने तक बीज को बालू या कोयले के चूरे में रखते हैं, तत्पश्चात् क्यारी में लगाते हैं। उनहें आधे इंच की गहराई में तथा सात या आठ इंच की दूरी पर घास या बाँस से की गई छाया में लगाते हैं। छह मास से लेकर तीन वर्ष तक के पौधों को नर्सरी से निकालकर बगीचे के निर्धारित स्थान पर स्थायी रूप से स्थापित कर देते हैं।

पौधों को तीन रूपों मे लगाया जाता है - चौकोर, त्रिकाण एवं पंक्तिबद्ध (Hedge)। पंक्तिबद्ध पद्धति ही आजकल अधिक प्रचलित है। इसमें पौधे एक पंक्ति में दो से ढाई फुट की दूरी पर लगाए जाते हैं तथा पहली पंक्ति दूसरी से चार से साढ़े पाँच फुट के फासले पर होती है। इस विधि से लगाने पर कम जमीन में अधिक पौधे लगाए जा सकते हैं।

पौधों को नर्सरी में लगाने के लिये एक नई विधि का आविष्कार हुआ है जिसे वर्धी प्रचारण (Vegetative propogation) कहते हैं। इसमें बीज के बदले पत्तियों को, जिन्हें क्लोन (clone) कहते हैं, निर्धारित क्यारी में निश्चित दूरी पर लगाया जाता है, जिसमें फलस्वरूप पूर्ण विकसित पौधे के सभी गुण इस छोटे से नए पौधे में आ जाते हैं। लगाई जानेवाली पत्तियों को चुननेवालों का अपने कार्य में दक्ष होना अति आवश्यक है। क्लोन पद्धति से पौधे लगाने पर चाय का उत्पादन अधिक होने के साथ साथ प्रकृति (क्वालिटी) भी अच्छी होती है।

चाय के पौधों को सूर्य की प्रखरता से बचाने तथा खाद के लिये नाइट्रोजन युक्त पंक्तियोंवाले विशेष प्रकार के वृक्ष लगाए जाते हैं। इन वृक्षों की किस्मों का चुनाव स्थान, विशेष प्रकार के मौसमी बातावरण, मिट्टी तथा अनुभव के अनुसार किया जाता है। इनमें मुख्य वृक्षों के नाम हैं- अलबीजियया चिनेंसिस (Albizzia chinensis), आदोरतिस्सिमा (A. odoratissima), कोरोई (A. procera), रिचार्डियाना (Richardiana), डलबर्जिया असामिका (Dalbergia Assamica) आदि। क्रोटलेरिया (Crotolaria) आदि का, हरी खाद तथा छाया के लिये अस्थायी रूप से प्रयोग किया जाता है।

पौधों की समुचित वृद्धि के लिये रासायनिक खाद सल्फेट एमानिया (Sulphate of Ammonia) का, जो गोबर, खली आदि से बेहतर साबित हुई है, प्रयोग किया जाता है।

चाय के पौधे की आयु १०० वर्षों से अधिक होती है, परंतु ५० या ६० वर्ष के बाद उसकी उत्पादन क्षमता कम हो जाने के कारण व्यावसायिक दृष्टि से वह अनुपयोगी माना जाता है। भारत में इन पौधों की नाना प्रकार की बीमारियों का चिकित्सा विषयक अन्वेषणकार्य, जोरहाट के पास टोकलाई में इंडियन टी ऐसोसिएशन के केंद्र में प्रगति कर रहा है।

पौधे की उम्र एवं ऊँचाई को ध्यान में रख्कर उनका ऊपरी सतह छांट दिया जाता है जिससे वे सीमित ऊँचाई के बाद और ऊंचे नहीं बढ़ पाते एवं उनक तना धीरे धीरे मोटा होता जाता है। उत्तर पूर्व भारत में छँटाई प्राय: नवंबर के अंत में फरवरी तक की जाती है, और दक्षिण भारत तथा विषुवत् रेखा के समीपस्थ अन्य देशों में सुविधानुसार ३-४ वर्षों में एक बार की जाती है।

छँटाई किए गए पौधे में दो या तीन महीनों में नई पत्तियाँ आनी शुरू हो जाती हैं। एक कोंपल और दो पत्ती की चाय अच्छी बनती है, परंतु एक कोंपल और तीन पत्ती का गुच्छा भी तोड़ा जाता है। उत्तर भारत में पत्तियाँ तोड़ने का काम मध्य मार्च से मध्य दिसंबर तक किया जाता है। उष्ण कटिबंध के प्रदेशों में संपूर्ण वर्ष पत्तियाँ तोड़ी जाती हैं, सभी देशों में यह कार्य पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक करती देखी जाती हैं। रूस ने इस कार्य के लिये एक यंत्र का आविष्कार किया है, पर अभी उसका प्रचलन नहीं हुआ है।

चाय के निर्माणकार्य के विधिक्रम को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - कृषिकर्म और निर्माणकर्म। पत्तियाँ तोड़ने के साथ कृषिकर्म समाप्त हो जाता है और निर्माणकर्म आरंभ होता है, जो पाँच स्थितियों में से होकर गुजरता है - १. मुरझाना (विदरिंग) २. मसलना (रोलिंग), ३. रंग परिवर्तन (फर्मेंटिग) ४. सुखाना (फायरिंग) और ५. छाँटना (सार्टिग)।

चाय की हरी पत्ती में ७५ प्रतिशत अंश जल का होता है। बिना टूटे, मसले जाने के लिये पत्तियों का अनावश्यक पानी सुखाना आवश्यक है। इसलिये तोड़ी हुई पत्तियाँ चारों ओर से खुले हुए एक विशेष प्रकार के घर (विदरिंग हाउस) में रख दी जाती हैं। उसमें तार या बाँस से बनी जाली की पट्टियाँ रहती हैं, जिनपर ये पत्तियाँ मौसम के अनुसार आठ से लेकर अठारह घंटे तक के लिये बिछा दी जाती हैं। हवा के संस्पर्श से ये अपने आप मुरझा जाती हैं। कहीं कहीं इस कार्य के लिये मशीनों का भी प्रयोग किया जाता है।

मुरझाई हुई पत्तियाँ घर्षण यंत्र (रोलिंग मशीन) में डाली जाती हैं। प्रत्येक मशीन में लगभग १४५ किलोग्राम पत्ती भरी जाती है। यह वृत्ताकार घूमती है जिससे उसमें भरी हुई चाय बिल्कुल कुचल जाती है और अपने रस में पूर्णतया सन जाती है।

इसके बाद ये गीली, कुचली हुई, एक दूसरे से लिपटी हुई पत्तियाँ छानने की मशीन (सिफ्टर) में डाली जाती हैं। इस मशीन में लिपटी हुई पत्तियाँ अलग अलग हो जाती हैं और कोमल छोटी कलियाँ छनकर बाहर गिर जाती हैं। मोटी पत्तियों को पुन: घर्षणयंत्र में मसलकर फिर छाना जाती है। यह क्रिया भिन्न भिन्न प्रदेशों में दो से लेकर चार बार तक की जाती हैं।

छानने के पश्चात् मोटी और महीन दोनों प्रकार की चाय बिना मिलाए एक ठंढे कमरे में ऐल्यूमीनियम की चादरों पर या सीमेंट के चिकने फर्श पर से १ इंच तक की मोटी तह करके बिछा दी जाती है। इस कमरे का ताप २७° सें. से ज्यादा नहीं होना चाहिए। यहाँ चाय एक घंटे से तीन घंटे तक रखी जाती है, जिसके फलस्वरूप वायु के संसर्ग से रंग परिवर्तन हो जाता है।

जब चाय की पत्तियाँ ताम्रवर्ण की हो जाती हैं तब उन्हें सुखाने के यंत्र (driers) में डाला जाता है। यंत्र के जिस भाग में चाय सुखाई जाती है वहाँ ताप लगभग ९०° से लेकर १००° डिग्री सें. तक रहता है और जिस ओर से चाय डाली जाती है वहाँ का ताप लगभग ४५° सें. रखा जाता है।

अब चाय को यांत्रिक चलनियों (सार्टर्स) में चालना पड़ता है, जिससे पूर्ण पत्ती, खंडित पत्ती और चूर्ण छँट जाते हैं। इसे बाद पंखे द्वारा लाल डंठल निकाल दिए जाते हैं।

चाय निर्माण का कार्य यहाँ पर समाप्त ही हो जाता है। अब इस चाय को ऐल्यूमीनियम की पत्ती लगी हुई काठ की पेटी में भरकर बंद कर दिया जाता है और पेटियों पर अलग अलग किस्म की चाय के नाम और नंबर की छाप लगा दी जाती है। अमरीका के बाजार में यही चाय पेटी में बंद करने के बदले एक विशेष प्रकार के बोरे में भर दी जाती है।

सी.टी.सी. नामक एक नए यंत्र का आविष्कार हुआ है जिसमें घर्षणयंत्र में मसली हुई पत्तियों को २-३ बार काटते हैं। इसमें बनी चाय का रंग कालापान लिए हुए भूरा सा होता है। अल्प मात्रा में अधिक पेय प्राप्त करना ही इसका विशेष गुण है। विलायत में यही चाय अधिक प्रसिद्ध है परंतु अन्य देशों में अधिकांशत: लोग आज भी पुरानी रीति से बनी चाय पसंद करते हैं।

उपर्युक्त दोनों प्रकार की चाय के अतिरिक्त, और भी तीन प्रकार की चाय होती है - १. हरी चाय (ग्रीन या अनफर्मेंटेड टी), २. ब्रिक चाय, और ३. ऊलांग चाय (या सेमीफर्मेंटेड)।

हरी चाय अफगानिस्तान, ईरान, कश्मीर, लद्दाख आदि इलाकों में और ब्रिक चाय तिब्बत एवं नेपाल में व्यवहृत होती है। ऊलांग चाय केवल फारमोसा में होती है।

तैयार चाय के गुणों की परख और उसके मूल्य के निर्धारण के लिये उसका स्वाद चखा जाता है। चलनेवाला बहुत ही अनुभवी तथा उसके गुणों से पूर्णतया परिचित होता है। शक्कर तथा दुग्धविहीन चाय को जीभ पर लेते ही उसकी कड़वाहट और सोडा की तरह के स्वाद से उसकी ताकत एवं गुण (ब्रिस्कनेस) का पता लगा लिया जाता है। चाय में कड़वाहट के साथ एक प्रकार की मिठास भी होती है।

भारत चाय के उत्पादन में परिमाण और जाति (क्वालिटी) दोनों दृष्टि से अग्रणी है। लंका एवं अफ्रीका इसकी स्पर्धा में प्रयत्नशील हैं, परंतु अभी तक भारत से होड़ करने के स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं१

भारत में चाय उत्तर में पंजाब के कांगड़ा इलाकों में, उत्तर प्रदेश के देहारादून जिले में, बिहार में, असम और पश्चिम बंगाल में तथा दक्षिण में अन्नमलै और नीलगिरि पहाड़ियों में होती है। परिमाण की दृष्टि से भारतीय चाय की ४७-४८ प्रतिशत चाय अकेले असम में होती है। यहाँ की चाय के रंग व ताकत (लिकर) का जोड़ तथा दार्जिलिंग की चाय के स्वाद (फ्लेवर) का जोड़ अन्य किसी भी देश की चाय में नहीं है। भारतीय चाय की प्रगति का सर्वाधिक श्रेय जोरहाट स्थित 'टोकलाई एक्सपेरिमेंटल स्टेशन' को है, जिसने अपने प्रयोगों द्वारा चाय के उत्पादकों को नए सुझाव दिए। क्लोन (clone) की उत्पत्ति इसी प्रयोगशाला की देन है।

भारत में चाय के उत्पादन की उन्नति का कुछ श्रेय यहाँ के श्रमिकों को भी है। ये श्रमिक उसी स्थान के बाशिंदे नहीं थे- अधिकांशत; ये छोटा नागपुर जिले तथा उड़ीसा के अधिवासी हैं। प्रारंभ में अंग्रेजों की हूकूमत के समय नाना प्रकार के प्रलोभनों द्वारा ये चाय बगीचों में लाए जाते थे। बलपूर्वक अथवा धोखे से लाए श्रमिकों से चाय बगानों को जानेवाली गाड़ियाँ भरी रहती थीं। उनपर जो जुल्म हुए उनकी कथा पढ़कर रोमांच हो आया करता है। अब इन श्रमिकों को अनेक सुविधाएँ प्रदान की गई हैं, जैसे, सस्ते मूल्य में अनाज, मुफ्त दवा, रहने के मकान, खेती के लिये जमीन, पाठशाला, क्लब आदि। अब श्रमिकों के बच्चे भी चाय बगीचों में ही काम करते हैं तथा उनके विवाह, रीति रिवाज सब इन्हीं पौधों के साथ पनपते हैं। आज के भारतीय श्रमिक यहाँ के चाय उद्योग की उन्नति के प्रतीक हैं।

१९५० में भारत का उत्पादान ६१.३३ करोड़ पाउंड का था और वही बढ़ते बढ़ते १९६१ में ७७.६४ करोड़ पाउंड तक पहुंच गया।

लंका भारत का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है। वहाँ उत्पादन की प्रगति भारत से अधिक तीव्र है- १९५० का ३१.६२ करोड़ पाउंड का अंक १९६१ में ४५- ५१ करोड़ तक पहुँच गया। १९५९ में चीन में ३१.२० करोड़ पाउंड तथा जापान में १६.४४ करोड़ पाउंड का उत्पादन था जबकि १९५० में क्रमश: १३.८० करोड़ एवं ८.३० करोड़ ही था। इनके अलावा हिंदेशिया, पाकिस्तान, दक्षिणी पूर्वी अफ्रीका, फारमोसा एवं आरजेंटिना में भी अच्छी मात्रा में चाय का उत्पादन होता है।

चाय के निर्यात में भी भारत का स्थान प्रथम है। १९५६ में निर्यात ५२.३५ करोड़ था, परंतु घटते हुए १९६१ में सिर्फ ४५.२३ करोड़ पाउंड तक पहुँच गया। संभवत: लंका भारत का प्रथम स्थान दो तीन वर्षों में ही ले लेगा। १९५० के २९.७० करोड़ पाउंड का अंक १९६१ में ४२.५६ करोड़ पाउंड तक पहुँच गया। चीन का अंक १९६० में १०.४९ करोड़ पाउंड पर पहुँचा जबकि १९५० में सिर्फ २.६ करोड़ पाउंड था। यों बेलजियन कांगों पर निर्यात काफी कम है, पर जब १९५० के १.०५ लाख पाउंड से १९६० में ७७.१४ लाख पाउंड तक पहुँच गया है तब उसका भविष्य भी बहुत ही उज्जवल प्रतीत होता है। हिंदेशिया, फारमोसा, केन्या, न्यासालैंड, मोजंबीक, जापान एवं पाकिस्तान भी कम अधिक मात्रा में चाय का निर्यात करते हैं। (संतोषकुमार कानोड़िया)