चाणक्य प्रचीन भारतीय राजनीति के अन्यतम आचार्य। प्राचीन वाङ्मय में इनके अनेक नाम पाए जाते हैं। संभवत: इनका पारिवारिक नाम विष्णुगुप्त था। चणक नामक स्थान के निवासी होने से चाणक्य कहलाए। एक परंपरा के अनुसार इनके पिता का नाम चणक था जिससे, चणकात्मज होने के कारण, इनको चाणक्य कहा गया। इनका गोत्र अथवा प्रवर कुटिल था, इसलिये ये कौटिल्य कहलाए। कूट अथवा कुटिल नीति का प्रवर्तक होने के कारण कौटिल्य कहलाने की मान्यता भ्रांत है, यद्यपि यह भ्रांति प्रभूत लोकप्रिय है। कुछ विद्वान् कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन से इनको अभिन्न मानते हैं। परंतु यह मत अभी संदिग्ध है। कामंदक ने अपने नीतिसार में विष्णुगुप्त (चाणक्य) का उल्लेख किया है। चाणक्य के नामों के पर्याय 'हेमचंद्र', 'यादवप्रकाश', 'वेजयंती', 'भोजराजनाममालिका' आदि कोशग्रंथों में पाए जाते हैं।

इन नामों में चाणक्य और कौटिल्य नाम ही अधिक प्रचलित है। कौटिल्य के अन्य रूप भी मिलते हैं, यथा, कौटल्य (कौटलि से व्युत्पन्न)। किंतु कौटिल्य नाम ही अधिक समीचीन जान पड़ता है। इन अनेक नामों के कारण चाणक्यसंबंधी कथाओं और परंपराओं में बहुत असमंजस उत्पन्न हो जाता है। परंतु चंद्रगुप्त मौर्य का आचार्य और प्रधान मंत्री चाणक्य लोकविश्रुत है।

चाणक्य के जीवनवृत्त पर कई स्त्रोतों से प्रकाश पड़ता है। विष्णुपुराण में कौटिल्य द्वारा नंदवंश के विनाश और मौर्यवंश की स्थापना का वर्णन है। पालि और प्राचीन जैन साहित्य में चाणक्यसंबंधी कथाएँ हैं। कामंदक ने अपने नीतिसार में विष्णुगुप्त चाणक्य के प्रति अपना आभार प्रकट किया है। विशाखदत्तरचित संस्कृत नाटक मुद्राराक्षस में चाणक्य के राजनीतिक चरित्र का वर्णन मिलता है। मुद्राराक्षस की भूमिका में दुंढिराज ने भी चाणक्य के जीवन पर प्रकाश डाला है। पंचतंत्र और पंचाख्यायिका के रचयिताओं, बाण और दंडी ने भी चाणक्य के बारे में लिखा है। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने बौद्ध साहित्य के आधार पर चाणक्य का उल्लेख किया है। परंतु इन सबको मिलाने से भी चाणक्य के जीवन पर यथेष्ट प्रकाश नहीं पड़ता। उसकी धूमिल रेखाएँ ही खींची जा सकती है।

आचार्य चाणक्य का जन्म तक्षशिला के आस पास गांधार प्रदेश में हुआ था। अष्टाध्यायी व्यकरण के प्रणेता भी उस दिशा के यूसुफजई प्रदेश के शालातुर स्थान में उत्पन्न हुए थे। चाणक्य की शिक्षा दीक्षा प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई थी। यहीं पर अपने पूर्वाचार्यों के चरणों में इन्होंने राजनीति का गहन अध्ययन किया था और स्वत: आचार्य पद सुशोभित किया था। आर्थिक शोषण और सैनिक शक्ति पर आधारित नंद साम्राज्य की स्थापना और पश्चिमोत्तर भारत पर यवन आक्रमण से जो परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी उससे ये भली भाँति परिचित और खिन्न थे। विशेषकर पश्चिमोत्तर भारत में छोटे छोटे गणतंत्रों और राजतंत्रों के कारण जो विशृंखलता और दुर्बलता आ गई थी उसको ये अच्छी तरह समझते थे। इनके सामने तीन प्रश्न थे - (१) यवनों को देश से बाहर निकालना, (२) छोटे छोटे गणों और राज्यों का अंत करना तथा (३) पशुबल और शोषण पर आधारित साम्राज्य का अंत कर भारतीय लोकाराधन की परंपरा पर आधारित एक सशक्त साम्राज्य स्थापित करना। इसके लिये सुयोग्य माध्यम की आवश्यकता थी। जब ये मध्यप्रदेश में नंदसाम्राज्य के विध्वंस की चिंता में भ्रमण कर रहे थे, पिप्पलीवन के मौर्य गणतंत्र के मनस्वी नवयुवक चंद्रगुप्त से इनकी भेंट हुई। पहले इन्होंने विंध्याटवी के आसपास बहुत बड़ी सेना तैयार की और चंद्रगुप्त की सहायता से नंदों के मगध साम्राज्य पर आक्रमण किया। परंतु इनको सफलता नहीं मिली। निराश होकर चंद्रगुप्त के साथ ये पश्चिमोत्तर भारत लौट गए। वहाँ पर सिकंदर के भारत से प्रस्थान के पश्चात् यवन सत्ता का विनाश किया और पंचनद प्रदेश में चंद्रगुप्त के नायकत्व में एक सशक्त राजनीतिक संघटन तैयार किया। इसके बाद एक विशाल सैनिक संघ का निर्माण कर नंदसाम्राज्य पर आक्रमण किया। नंदवंश का विनाश कर पाटलिपुत्र को अपने अधिकार में कर लिया और चंद्रगुप्त को सिंहासन पर बैठाया। इसी घटना का उल्लेख विष्णुपुराण में हुआ है :

'महापद्मनंद: तत्पुत्राश्चैकं वर्ष शतमवनीपतयो भविष्यंति। नवैव तान्नंदाने कौटिल्ये ब्राह्मण: समुद्धरिष्यति। तेषामभावे मौर्याश्च पृथ्वी मोक्ष्यंति। कौटिल्य एवं चंद्रगुप्तं राज्येऽभिषेक्ष्यति..........।'

यह घटना लगभग ३२१ ई.पू. में घटित हुई। इसका उल्लेख अर्थशास्त्र में भी हुआ है:

'येन शास्त्रं च शस्त्रं च नंदराजगता च भू:।

अमर्षेणोद्घृतान्याशु तेन शास्त्रमिदंकृतम्।।' (अर्थशास्त्र, १५.१.८०)

(जिसके द्वारा शास्त्र, शस्त्र और नंदराज के हाथ में गई भूमि का शीघ्र उद्धार हुआ, उसी के द्वारा उस शास्त्र (अर्थशास्त्र) रचा गया।)

मौर्य साम्राज्य की स्थापना के बाद आचार्य चाणक्य के जीवन की घटनाओं के बारे में दो पंरपराएँ हैं। एक के अनुसार इन्होंने चंद्रगुप्त का सिंहासन पर बैठाकर स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया। दूसरी के अनुसार इन्होंने प्रधान मंत्रित्व स्वीकार किया और मौर्य साम्राज्य का संचालन करते रहे। तारानाथ के अनुसार चंद्रगुप्त के पत्र बिंदुसार के समय तक आचार्य चाणक्य राज्य के प्रधान मंत्री बने रहे, जिनके निदेशन में उसने भारत के उन भागों का भी मौर्य साम्राज्य में मिलाया, जिन्हें चंद्रगुप्त नहीं जीत सका था। पौराणिक गाथाओं में भी चंद्रगुप्त के मंत्रिपद से चाणक्य के कार्य करने का उल्लेख मिलता है। बिंदुसार के नामकरण की व्याख्या करनेवाली कथा में यह कहा गया है कि चाणक्य ने विष के प्रयोग द्वारा चंद्रगुप्त के शरीर को विष के प्रभाव से मुक्त कर दिया था। परंतु उसकी रानी का शरीर विष के प्रभाव से मुक्त नहीं था। एक दिन जब दोनों साथ भोजन कर रहे थे, किसी ने भोजन में विष मिला दिया था, जिससे रानी की मृत्यु हो गई। वह उस समय गर्भवती थी। गर्भ से मरा हुआ बच्च निकला। किंतु चाणक्य ने जो उपचार कराया उसमें एक विंदु औषध से बच्चा जी उठा। इस कहानी से यह प्रतीत होता है कि चाणक्य मंत्रिपद पर बहुत दिनों तक बने रहे। अर्थशास्त्र में इस बात का भी उल्लेख है कि इन्होंने चंद्रगुप्त के शासनप्रबंध के लिये अर्थशास्त्र नामक राजनीति ग्रंथ का प्रणयन किया। मुद्राराक्षस से आचार्य चाणक्य के अतुल राजनीतिक व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। संपूर्ण राजनीति के ऊपर चाणक्य का प्रभुत्व था। राजा के अधिकार बिल्कुल नियंत्रित थे। एक बार चंद्रगुप्त ने चाणक्य की किसी कूटनीति का रहस्य पूछा। चाणक्य ने उत्तर देते हुए कहा, 'राजा तीन प्रकार के होते हैं : स्वायत्त, सचिवायत्त और उभयायत्त। तुम सचिवायत्त हो, अत: मेरी नीति का रहस्य पूछने के अधिकारी नहीं हो।'

जैसा ऊपर कहा गया है, आचार्य चाणक्य राजनीतिशास्त्र के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने प्रसिद्ध 'अर्थशास्त्र' की रचना की जो प्राचीन भारतीय राजनीति का अनुपम ग्रंथ है। (इसके विशेष विवरण के लिये देखिए 'अर्थशास्त्र, कौटिलीय')। आचार्य चाणक्य का एक दूसरा ग्रंथ चाणक्यसूत्र था जो अर्थशास्त्र के ही साथ प्रकाशित हो चुका है। एक तीसरा ग्रंथ है जो चाणक्यनीति के नाम से प्रचलित है। पर स्पष्ट ही यह परवर्ती काल की रचना है, जो इस नाम से प्रचलित हो गई। लेखनशैली और कुछ समान पक्तियों और वक्यांशों का देखकर कुछ विद्वानों का यह मत है कि कामसूत्र भी आचार्य चाणक्य की ही रचना है। परंतु यह मत संदिग्ध है।

आचार्य चाणक्य ने अपने बाद की राजनीतिशास्त्र की परंपरा को प्रेरणा देकर प्रभावित किया है। नीतिसार के रचयिता कामंदक ने चाणक्य के प्रति अपना आभार निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त किया है :

यस्याभिचारवज्रेण वज्रज्वलनतेजस:।

पपात मूलन 68;मान् सुपर्वा नंद पर्वत:।

एकाकी मंत्रशक्त्य यश्शक्त्य शक्तिधरोयम:।

आजहार नृचंद्राय चंद्रगुप्ताय मेदिनीम्।।

नीतिशास्त्रामृतं धीमान् अर्थशास्त्र महोदधे।

समुद्द्घ्रो नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे।।

दर्शनात् तस्य सुदृशो विद्यानां पारदृश्वन:।

यत्किंचिदुपदेक्ष्याम: राजविद्याविदां मतम्।। (१.४-७)

अर्थात्- वज्र के समान तेजस्वी जिसके मंत्ररूपी वज्र के प्रहार से समृद्ध और दृढ़ नंदवंशरूपी पर्वत मूल से ध्वस्त हो गया, जिन्होंने एकाकी, केवल मंत्रशक्ति से, इंद्र के समान राजाओं में चंद्रमा के तुल्य चंद्रगुप्त के लिये पृथ्वी का आहरण किया, जिस मेधावी ने अर्थशास्त्ररूपी महासगर से नीतिशास्त्ररूपी अमृत का मंथन किया, उस शस्त्रकर्ता विष्णुगुप्त को नमस्कार। ज्ञान की सीमा को पार करनेवाले विद्वान् के दर्शन से राजनीतिशास्त्र के विद्वानों से अनुमत कुछ उपदेश करने जा रहा हूँ।

मनु और याज्ञवल्क्य स्मृतियों पर अर्थशास्त्र का पर्याप्त प्रभाव है। पंचतंत्र तो स्पष्ट रूप से अर्थशास्त्र पर आधारित है। उसकी भूमिका में यह वक्तव्य मिलता है : ततो धर्मशास्त्राणि मन्वादीनि, अर्थशास्त्राणि चाणक्यादीनि, कामशास्त्राणि वात्स्यायनादीनि (मनु आदि धर्मशास्त्र, चाणक्य आदि अर्थशास्त्र और वात्स्यायन आदि कामशास्त्र पंचतंत्र के आधार हैं)। वात्स्यायन-कामसूत्र, कालिदास, विशाखदत्त आदि तो चाणक्य से बहुत ही प्रभावित हैं। बाण ने कांदबरी में अवश्य ही कौटिल्यशास्त्र पर व्यंग्य किया है :

किंवा तेषां सांप्रतं येषामतिनृशंसपायोपदेश निर्घूणं कौटिल्य शास्त्रं प्रमाणं.......।

(उनके बारे में इस समय क्या कहा जाय जिनके लिये अति निर्दय उपदेश से भरा हुआ और क्रूरतायुक्त कौटिल्यशास्त्र प्रमाण है) परंतु इसमें संदेह नहीं कि आचार्य चाणक्य अभी तक भारत में राजनीतिक पटुता और सफलता के प्रतीक माने जाते हैं।

सं.ग्रं.- विष्णुपुराण, बंबई, १८८९ ई.; शामशास्त्री : कौटिल्य अर्थशास्त्र, मैसूर, १९१९; जे. जॉली : कौटिल्य अर्थशास्त्र, लाहौर १९२३-२४; मुद्राराक्षस; महावंश; जाकोबी : पिशिष्टपर्वन्, कलकत्ता, द्वि.सं. १९३२; एफ.ए.वान शेफनर : तारानाथ, सेंटपीटर्सवर्ग, १८६९; जायसवाल : हिंदू राजतंत्र, ना.प्र.स., वाराणसी; काणे : हिस्ट्री ऑव धर्मशास्त्र, भाग १; कीथ : हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर, आक्फोर्ड, १९२४; सत्यकेतु विद्यालंकार : मौर्य साम्राज्य का इतिहास। (राजबली पांडेय.)