चांडाल एक निम्नस्तरीय अदिम जाति को भारतीय समाज में प्रविष्ट होने पर 'बाह्य' होने के कारण अंत्यज एवं अस्पृश्य मानी गई। मातंग, दिवाकीर्ति, प्लेव और जनंगम इसके पर्याय हैं। उत्तरवैदिक काल में (वाज.सं. ३०, २१; तै.ब्रा. ३, ४-१-१७) 'पुरुषमेध' के वर्णन में चांडालों का इतर वर्णों के साथ जो उल्लेख है उससे उनकी अस्पृश्यता द्योतित नहीं होती, यद्यपि वे शूकर के समान कुत्सितयोनि माने गए (छांदो. ५, १०, ७)। उनकी अपनी 'चांडाली' भाषा अथवा 'विभाषा' थी (चित्तसंभूत, जातक ४,३४१, नाट्यशास्त्र १६, ५४-५६)। लाल दुपट्टा, कायबंधन और मैले रंग का उत्तरीय (पांसुकुल संघाटी) उनका विशेष पहनावा (मातंग जातक) था जिसे वे मृतकों के कफन से बनाते थे (मनु., १०,५२)। वे लोहे के अलंकार पहनते और हाथ में मृण्पात्र (मनु., १०,५२) रखते थे। सद्य: मृत मनुष्यों की अस्थियों पर बने हुए मंदिरों में वे यक्षों की पूजा करते थे (आश्वयकचूर्णी २, पृ. २९४)। धूलिघूसरित, कुत्तों और गधों से घिरे (मनु, वही; अनुशासनपर्व १०, १, ३) हुए चांडालों का नगर-ग्राम से बाहर वास था। वे नगर में प्रवेश करने पर कुट्टिम पर बाँस पटककर अपन आने की सूचना देते थे। उनके मद्यपान तथा प्याज और लहसुन खाने की चर्चा फाहियन भी करता है। परंपरा है कि हर्ष के चांडालकुलोत्पन्न सभ्य मातंग दिवाकर ने अपने काव्यकौश्ल से बाणभट्ट और मयूर की समकक्षता प्राप्त की थी। (विश्वंभर ारण् पाठक)