चांग त्सो-लिन १९११ में चीन में प्रथम क्रांति हुई, इससे मंचू राजवंश का तो अंत हो गया, पर सामंतवादी तत्वों का अंत नहीं हुआ। शक्ति सुनयातसेन ऐसे क्रांतिकारी व्यक्ति के हाथ में न पड़कर कई कारणों से युवान शिहकाई जैसे लोगों के हाथ में पड़ी, जिसे आधुनिक समय का मात्र युद्धप्रिय व्यक्ति (वार लार्ड) कहा गया है।

नाममात्र के लिये प्रजातंत्र की स्थापना हुई। उत्तर चीन में तो केंद्र से स्वतंत्र और सिद्धांतहीन सेनापतियों का ही राज्य बना रहा। यों तो इस प्रकार के छोटे मोटे अनेक सेनापति थे, पर दो गुट जबरदस्त थे। एक फेंगती गुट और दूसरा चीहली गुट। चांग त्सो-लिन फेंगती गुट के थे।

जब १९२६ में केंद्रीय सरकार की ओर से उत्तर का अभियान किया गया, उस समय इन गुटों ने अधीनता स्वीकार नहीं की। परिणाम यह हुआ कि २५ फरवरी, १९२६ को राष्ट्रीय सरकर ने चांग त्सो-लिन और वी-पेई-फू को देश का शत्रु घोषित कर घोषणापत्र प्रकाशित किया। यह घोषाणापत्र एक प्रकार से इन सामंती सेनापतियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा थी।

चांग त्सो-लिन ईमानदार सेनापति थे। इस प्रकार के दूसरे सामंती सेनापतियों की तुलना में वे एक सीमा तक विवेकी थे। उनका कहना था कि हम दूसरे सामंती सेनापतियों के विरुद्ध भले ही षड़यंत्र करें और जापानियों से मदद लें, पर हम देश को बेच नहीं सकते। इसी कारण जापानी चांग त्सो-लिन की पसंद नहीं करते थे और अंत तक जापानी सरकार ने चाँग का पीछा किया। जब वे रेल से जा रहे थे तब उन्हें एक ऐसे भाग से गुजरना था, जहाँ जापानी संतरियों का पहरा था। वहाँ उनकी रेल उड़ा दी गई। (मन्मथ नाथ गुप्त)