चर्च
यह शब्द यूनानी
विशेषण का अपभ्रंश
है जिसका शाब्दिक
अर्थ है 'प्रभु का'।
वास्तव में चर्च
(और गिरजा
भी) दो अर्थों में
प्रयुक्त है; एक तो
प्रभु का भवन अर्थात्
गिरजाघर तथा
दूसरा, ईसाइयों
का संगठन। चर्च
के अतिरिक्त कलीसिया
शब्द भी चलता है।
यह यूनानी बाइबिल
के एक्लेसिया शब्द
काविकृत रूप
है; बाइबिल में
इसका अर्थ है किसी
स्थानविशेष अथवा
विश्व भर के ईसाइयों
का समुदाय। बाद
में यह शब्द गिरजाघर
के लिये भी प्रयुक्त
होने लगा। यहाँ
पर संस्था के अर्थ
में चर्च पर विचार
किया जायगा।
दूसरे अर्थ के
लिये दे. ''गिरजाघर।''
सभी ईसाई प्राय: इस बात से सहमत हैं कि ईसा ने केवल एक ही चर्च की स्थापना की थी, किंतु अनेक कारणों से ईसाइयों की एकता अक्षुण्ण नहीं रह सकी। फलस्वरूप आजकल उनके बहुत से चर्च अथवा संगठन वर्तमान हैं जो एक दूसरे से पूर्णतया स्वतंत्र हैं। उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है :
ईसाई धर्म की प्रारंभिक शताब्दियों में चर्च की परिभाषा तथा उसके स्वरूप के विषय में अपेक्षाकृत कम चिंतन किया गया है। बाइबिल में ईसा की जीवनी तथा शिक्षा का जो वर्णन है उससे स्पष्ट है कि प्रारंभ ही से ईसाइयों का विश्वास था कि ईस ने समस्त मानव जाति के लिये मुक्ति के साधनों को सुलभ कर दिया और इस उद्देश्य से पृथ्वी पर 'ईश्वर का राज्य' स्थापित किया। 'ईश्वर का राज्य' उन लोगों का समुदाय है जो ईसा के ईश्वरत्व पर विश्वास कर उनकी शिक्षा ग्रहण करते हैं। बाइबिल में उस समुदाय को 'ईश्वर को प्रजा' कहा गया है। उसके संगठन तथा शासन के लिये ईसा ने १२ शिष्यों को चुनकर उन्हें विशेष शिक्षण तथा अधिकार दिए और आदेश दिया कि वे दुनिया भर में जाकर उनकी शिक्षा का प्रचार करें तथा विश्वास करनेवालों को बपतिस्मा संस्कार (दीक्षा स्नान) करके चर्च में सम्मिलित कर लें। इस प्रकार बाइबिल में ईसा के अनुयायियों के समुदाय को चर्च (कलीसिया), 'ईश्वर का राज्य' तथा 'ईश्वर की प्रजा' कहा गया है। इन पदों से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि प्रारंभ में चर्च के वास्तविक रूप को बाहरी संगठन तक सीमित माना गया है, किंतु ऐसी बात नहीं है। ईसा ने अपनी शिक्षा में इसपर बल दिया है कि उनमें तथा उनके सच्चे अनुयायियों में अदृश्य एवं रहस्यात्मक एकता है। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- 'मैं द्राक्षा लता हूँ और तुम डालियाँ हो।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि चर्च का सबसे महत्वपूर्ण तत्व आध्यात्मिक ही है। संत पौलुस ने चर्च के इस आध्यात्मिक तथा रहस्यात्मक पक्ष पर बहुत बल दिया है। ईसा तथा उनके सच्चे अनुयायियों का आध्यात्मिक संबंध और ईसा के सभी अनुयायियों की रहस्यमय एकता को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने अपने पत्रों में बारंबार चर्च को 'ईसा का आध्यात्मिक शरीर' कहा है (दे. बाइबिल का उत्तरार्ध)। अत: प्रारंभ ही से चर्च के बाहरी संगठन तथा उसके आध्यात्मिक स्वरूप, दोनां का ध्यान रखा गया है।
प्रोटेस्टैंट धर्म के कारण चर्च में फूट पड़ी तो धर्माचार्य चर्च के स्वरूप पर अधिक चिंतन करने लगे। प्रोटेस्टैंट विद्वान् चर्च के अदृश्य स्वरूप पर और प्रतिक्रियास्वरूप काथलिक धर्मपंडित चर्च के बाहरी संगठन, उसकी दृश्य सदस्यता आदि पर अधिक बल देने लगे। इस विवाद में उन्होंने चर्च के चार बाहरी लक्षणों का अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया है। ईसा का सच्चा चर्च (१) काथलिक है (अर्थात् विश्वजनीन, यह युगयुगांतर तक सब मनुष्यों के लिये खुला रहता है); (२) एक है, प्रेम के बंधन में एक होकर उसके सभी सदस्य एक से धर्मसिद्धांतों पर विश्वास करते हैं। एक संस्कार, एक सी पूजनपद्धति और एक ही परमाधिकारी का शासन स्वीकार करते हैं; (३) पवित्र है (वह सबों के लिये मुक्ति के साधन सुलभ कर देता है और उसके बहुत से सदस्य पवित्र जीवन बिताते हैं); (४) एपोज़ेल्स है (वह ईसा के मुख्य शिष्य एपोज़ल्स के समय से चला आ रहा है, उस प्रारंभिक चर्च से उसका अटूट संबंध है और उस संबंध पर उसका अधिकार आधारित है।)
चर्च के दृश्य संगठन में कुछ ऐसे लोग भी सम्मिलित हो सकते हैं जो पाखंडी हैं, जिनका ईसा के साथ कोई आध्यात्मिक संबंध नहीं है, जो ईसा के आध्यात्मिक शरीर के अंग नहीं हैं। ईश्वर ही जानता है कि कौन चर्च का सच्चा सदस्य है और इस कारण यह माना जा सकता है कि वास्तविक चर्च अदृश्य ही है। फिर भी उस अदृश्य वास्तविक चर्च की पूर्ण सदस्यता की अनिवार्य शर्त बाहरी संस्कार ही हैं, अत: अदृश्य चर्च से अलग नहीं किया जा सकता है। आजकल प्राय: सभी प्रोटेटैंस्ट भी इस बात को मानते हैं। मुक्ति के लिये चर्च की पूर्ण सदस्यता अपेक्षित होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। ईश्वर सभी लोगों की मुक्ति चाहता है और सब मनुष्यों के अंत:करण में सत्प्रेरणा उत्पन्न करता है। जो ईश्वर की प्रेरणा पर चलते हैं वे अनजाने ही अदृश्य रूप से चर्च के अपूर्ण सदस्य बन जाते हैं और ईसा द्वारा प्रदत्त मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् ईसाई संसार में चर्च की एकता के आंदोलन को अधिक महत्व दिया जाने लगा। फलस्वरूप खंडन मंडन को छोड़कर बाइबिल में विद्यमान तत्वों के आधार पर चर्च के वास्तविक रूप को निर्धारित करने के प्रयास में इसपर अपेक्षाकृत अधिक बल दिया जाने लगा कि चर्च ईसा का आध्यात्मिक शरीर है। ईसा उसका शीर्ष है और सच्चे ईसाई उस शरीर के अंग हैं। (का.बु.)
चर्च का इतिहास- (अ) रोमन साम्राज्य में प्रसार (३०- ३१३ ई.)
सन् १०० ई. तक भूमध्यसागर के सभी निकटवर्ती देशों और नगरों में, विशेषकर एश्यि माइनर तथा उत्तर अफ्रीका में ईसाई समुदाय विद्यमान थे। तीसरी शताब्दी के अंत तक ईसाई धर्म विशाल रोमन साम्राज्य के सभी नगरों में फैल गया था; इसी समय फारस तथा दक्षिण रूस में भी बहुत से लोग ईसाई बन गए। इस सफलता के कई कारण हैं। एक तो उस समय लोगों में प्रबल धर्मजिज्ञासा थी, दूसरे ईसाई धर्म प्रत्येक मानव का महत्व सिखलाता था, चाहे वह दास अथवा स्त्री ही क्यों न हो। इसके अतिरिक्त ईसाइयों में जो भातृभाव था उससे लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
उत्तरी अफ्रीका के निवासी तेरतुलियन (Tertullian १६०-२२० ई.) लैटिन भाषा के प्रथम विख्यात ईसाई लेखक हैं। दूसरी शताब्दी के अंत तक एदेस्सा के आसपास सिरियक भाषा में ईसाई साहित्य की रचना प्रारंभ हो गई थी।
(आ) रोमन साम्राज्य के संरक्षण में (३१३-७५० ई.)
पाँचवीं शताब्दी में और दो बार विश्वसभा बुलाई गई। कुंस्तुंतुनिआ का बिशप नेस्तोरियस एक नए सिद्धांत का प्रचार करने लगा जिसके अनुसार ईसा में ईश्वरीय और मानवीय दो व्यक्ति विद्यमान थे। एफेसस (४३१ ई.) की विश्वसभा ने नेस्तोरियस को पदच्युत किया और उसके अनुयायियों को चर्च से बहिष्कृत घोषित किया, इसके फलस्वरूप फारस का चर्च अलग हो गया। बाद में युतिकेस ने मोनोफिजितिज्म (एकस्वभाववाद) का प्रवर्तन किया जिसके अनुसार ईसा में एक ही व्यक्ति और एक ही स्वभाव है। इस मत के विरोध में कालसेदोन (४५१ ई.) की विश्वसभा ने ईसा में ईश्वरत्व तथा मनुष्यत्व दोनों को वास्तविक माना है। सीरिया, आरमीनिया और मिस्त्र के बिशपों ने कालसेदोन के निर्णय को अस्वीकार किया और उन देशों के ईसाई समुदाय भी काथलिक चर्च से अलग हो गए (आजकल भी एथियोपिया के ईसाई और दक्षिण भारत के जैकोबाइट मोनोफीसाइट हैं)। बाद में इस्लाम ने सीरिया और मिस्त्र को साम्राज्य से छीन लिया और वहाँ के अधिकांश लोग उस नए धर्म से सम्मिलित हुए।
पश्चिम में लैटिन भाषा के मुख्य ईसाई लेखक इस प्रकार हैं : मिलान के बिशप संत अंब्रोसियस (३४०-३९९ ई.), संत अगस्तिन (३५४-४३० ई.) और सत जेरोम (३४७-४२०)। संत जेरोम ने समस्त बाइबिल का लैटिन भाषा में अनुवाद किया और उनका अनुवाद आज तक रोमन चर्च की पूजापद्धति में प्रयुक्त है।
पश्चिम में संत मारतिन ने पहले पहल ३६० ई. में फ्रांस के दक्षिण में एक मठ स्थापित किया गया और उसी केंद्र से फ्रांस के सभी देहातों में ईसाई धर्म का प्रचार हुआ क्योंकि उस समय तक केवल इटली तथा उत्तर अफ्रीका का देहात ईसाई बन गया था। संत पैत्रिक (३९२-४६१ ई.) पहले फ्रांस में मठवासी थे, उन्होंने अपने शिष्यों के साथ आयरलैंड को ईसाई धर्म में मिला लिया और बाद में वहाँ के संन्यासियों ने बड़ी संख्या में पश्चिम यूरोप के देशों (विशेषकर दक्षिण जर्मनी, स्विट्जरलैंड, दक्षिण बेलजियम) में ईसाई धर्म का प्रचार किया। संत बेनेदिक्त (४८०-५४७) ने भी एक धर्मसंघ की स्थापना की और मठवासी जीवन के लिये एक नियमावली लिखी जिसे यूरोप के प्राय: सभी मठों ने स्वीकार कर लिया। बेनेदिक्ताइन संघ के संन्यासी ईसा की छठी शताब्दी में इंग्लैंड भेजे गए (जहाँ बर्बर जातियों के आगमन से कम ईसाई रह गए थे)। उन्होंने वहाँ की जातियों को ईसाई धर्म में मिला लिया और अपने संघ के मठ भी स्थापित किए। संत बीड (६७२-७३५ ई.) एक अंग्रेज बेनेदिक्ताइन थे जिन्होंने इंग्लैंड का सर्वप्रथम इतिहास लिखा। एक समकालीन अंग्रेज बेनेदिक्ताइन संत बोनिफास (६७५-७५५) ने पहले हालैंड में धर्मप्रचार किया और बाद में जर्मनी के अधिकांश भाग को ईसाई धर्म में मिलाया। पश्चिम में ईसाई धर्म के इस प्रचार का श्रेय मुख्य रूप से मठवासियों को ही है।
चार्ल्स मारतेल का पुत्र पेपीन फ्रैंक जाति का राजा बन गया। कुछ समय बाद इटली पर लोंबार्द जाति का नया आक्रमण हुआ। सम्राट् को असमर्थ देखकर पोप ने पेपीन की सहायता माँगी और उसने अपनी फ्रैंक सेना से लोंबार्द जाति को हराकर इटली का मध्य भाग पोप के अधिकार में दे दिया। उस दिन से काथोलिक चर्च का राज्य विधिवत् प्रारंभ हुआ और १८७० ई. तक बना रहा।
(इ) पूर्व मध्यकाल (७५०-१०५०)-
उस पतन के प्रतिक्रियास्वरूप १०वीं शताब्दी में फ्रांस के क्लुनी (Cluny) मठ नेतृत्व में पश्चिम यूरोप में मठवासी जीवन का अपूर्व पुनर्विकास हुआ। सैकड़ों दूसरे उपमठ क्लुनी के मठाध्यक्ष का अनुशासन स्वीकार करते थे जिससे पोप के बाद क्लुनी का मठाध्यक्ष उस समय ईसाई संसार का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था।
(ई) उत्तर मध्यकाल (१०५०-१५००)-
११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध् में उत्तर स्पेन के इस्लाम विरोधी अभियान को पर्याप्त सफलता मिली और ईसाई सेनाओं ने १०८५ ई. में तोलेदो (Toledo) को मुक्त किया। पूर्व में १०७१ ई. में बीजैंटाइन सम्राट् की हार हुई। इससे चिंतित हाकर पोप ने ईसाई राजाओं से निवेदन किया कि वे एशिया माइनर तथा फिलिस्तीन को इस्लाम से मुक्त कर दें। फलस्वरूप प्रथम क्रूसयुद्ध (क्रूसेड) का आयोजन किया गया (दे. क्रूस युद्ध)। १०९९ ई. में येरूसलेम पर ईसाई सेनाओं का अधिकार हुआ, जो अधिक समय तक नहीं रह सका।
उस शताब्दी में अनेक नए धर्मसंघों की उत्पत्ति हुई जिनमें से दो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सीतौ (Citeaux) के धर्मसंघ की स्थापना १०९८ ई. में हुई थी। उस सिस्तर्सियन (Cistercian) संघ के मठ पश्चिम यूरोप के जंगलों में सर्वंत्र कृषि का प्रचार करने लगे। १२वीं शताब्दी के अंत तक इस प्रकार के ५३० मठों की स्थापना हो चुकी थ। संत बर्नाडं उस संघ के सदस्य थे, उनकी रचनाओं के द्वारा ईसा और उनकी माता मरिया के प्रति कोमल भक्ति का सर्वत्र प्रचार हुआ।
संत नोर्बर्ट (Norbert) ने ११२० ई. में प्रेमोंस्त्राटेंशन (Premonstratensian) धर्मसंघ का प्रवर्तन किया। उसके सदस्य उपदेश दिया करते थे तथा ईसाई जनसाधारण के लिय पुरोहितों का कार्य भी करते थे। वह संघ भी शीघ्र ही फैल गया।
उस शताब्दी में स्कैंडिनेविया, मध्य जर्मनी, बोहेमिया, प्रशा और पोलैंड में जो धर्मप्रचार का कार्य संपन्न हुआ वह मुख्य रूप से इन दो धर्मसंघों के माध्यम से ही संभव हो सका।
१२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सम्राट् फ्रेड्रिक बरबारोस्सा (११५२-११९०) ने फिर चर्च पर अधिकार जताने का प्रयास किया किंतु पोप अलैक्जेंडर तृतीय (११५९-११९१) ने उनका सफलतापूर्वक विरोध किया। इसके अतिरिक्त पोप अलेक्जैंडर तृतीय ने चर्च का संगठन भी सुदृढ़ बनाया जिससे वह दस सर्वोत्तम पोपों में गिने जाते हैं।
उस शताब्दी में दो अत्यंत महत्वपूर्ण धर्मसंघों की स्थापना हुई थी, फ्रांसिस्की संघ तथा दोमिनिकी संघ। इटली निवासी संत फ्रांसिस द्वारा स्थापित धर्मसंघ में निर्धनता पर विशेष बल दिया जाता था। प्रारंभ में उस संघ के सदस्यों में एक भी पुरोहित नहीं था; फ्रांसिस्की सन्यासी उपदेश द्वारा जनता में भक्ति तथा अन्य धार्मिक भाव उत्पन्न करते थे। इस संघ को अपूर्व सफलता मिली। १० वर्ष के अंदर सदस्यों की संख्या ५००० हो गई थी और १२२१ ई. में उनकी प्रथम सामान्य सभा के अवसर पर ५०० नए उम्मेदवार भरती होने के लिये आए। संत दोमिनिक स्पेनिश थे। उन्होंने समझ लिया कि एलबीजेंसस का विरोध करने के लिये ऐसे पुरोहितों की आवश्यकता है जो तपस्वी हैं और विद्वान् भी। अत: उन्होंने अपने दोमिनिकी संघ में तप तथा विद्वत्ता पर विशेष ध्यान दिया। यह संघ फ्रांसिस्कों संघ से कम लोकप्रिय रहा, फिर भी वह शीघ्र ही समस्त यूरोप में फैल गया।
यद्यपि पोप इन्नासेंट तृतीय (११६८-१२१५) के समय में ईसाई संसार में पोप का प्रभाव अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था, फिर भी १३वीं शताब्दी में पोप और जर्मन सम्राट का संघर्ष होता रहा। उदाहरणार्थ १२४१ ई. में पोप के मरते समय ११ कार्डिनल जीवित थे; सम्राट् ने दो को कैद में डाल दिया, दूसरे भाग गए और दो वर्ष तक चर्च का केई परमाधिकारी नहीं रहा। अंत में फ्रांस के राजा के अनुरोध से सम्राट् ने चुनाव होने दिया।
१३वीं शताब्दी में यूरोप के विश्वविद्ययालयों में कुछ समय तक अरस्तू के अरबी व्याख्याता अवेरोएस (११२६-११९८ ई.) के मत तथा स्कोलैस्टिक फिलोसोफी का द्वद्वंयुद्ध हुआ, जिसमें अंततोगत्वा संत एलबेर्ट (११९३-१२८०), संत बाना वेंच्यर (१२२१-१२७४ ई.) तथा संत थोमस अक्वाइनस (१२२५-१२७४ ई.) के नेतृत्व में स्कालैस्टिक फिलोसोफी की विजय हुई और अरस्तू की ईसाई व्याख्या द्वारा ईसाई धर्मसिद्धांतों का युक्तिसंगत प्रतिपादन हुआ। उस समय समस्त यूरोप में कला और विशेषकर वास्तुकला का विकास हुआ और विशाल भव्य गौदिक गिरजाघरों का निर्माण प्रारंभ हुआ।
इतने में अंग्रेज वोक्लिफ (Wycliffe) सिखलाने लगा कि चर्च का संगठन (पोप, पुरोहित), उसके संस्कार आदि यह सब मनुष्य का आविष्कार है, ईसाइयों के लिय बाइबिल ही पर्याप्त है। यह मत बोहेमिया तक फैल गया जहाँ जॉन हुस (Hus) उसका प्रचारक और शहीद भी बन गया (१४१५ ई.)। लूथर पर उन सिद्धांतों का प्रभाव स्पष्ट है।
चर्च के अपकर्ष का मुख्य कारण १५वीं शताब्दी उत्तरार्ध के नितांत अयोग्य पोप ही हैं। यूरोप में उस समय सर्वत्र प्राचीन यूनानी तथा लैटिन साहित्य की अपूर्व लोकप्रियता के साथ साथ एक नवीन सांस्कृतिक आंदोलन प्रांरभ हुआ जिसे रिनेसाँ अथवा नवजागरण कहा गया है। बीजैंटाइन साम्राज्य का अंत निकट देखकर बहुत से यूनानी विद्वान् पश्चिम में आकर बसने लगे। उनकी संख्या और बढ़ गई जब १४५३ ई. में कुस्तुंतुनिया इस्लाम के अधिकार में आया। उन यूनानी विद्वानों से नवजागरण आंदोलन को और प्रोत्साहन मिला। रोम के पोप उस आंदोलन के संरक्षक बन गए और उन्होंने रोम को नवजागरण का एक मुख्य केंद्र बना लिया। नैतिकता और धर्म की उपेक्षा होने लगी और १५वीं शताब्दी के अंत तक रोम का दरबार व्यभिचारव्याप्त रहा। इसके अतिरिक्त पोपों के चुनाव में राजनीति के हस्तक्षेप तथा इटली के अभिजात वर्ग की प्रतियोगिता ने भी रोम के प्रति ईसाई संसार की श्रद्धा को बहुत ही घटा दिया। असंतोष का एक और कारण यह था कि समस्त चर्च की संस्थाओं पर उनकी संपत्ति के अनुसार कर लगाया जाता था और रोम के प्रतिनिधि सर्वत्र घूमकर यह रुपया वसूल करते थे।
(उ) आधुनिक काल (१५०० ई. से)-
परवर्ती शताब्दियों में समस्त पश्चिम यूरोप में नास्तिकता तथा अविश्वास व्यापक रूप से फैल गया। फ्रेंच क्रांति के फलस्वरूप चर्च की अधिकांश जायदाद जब्त हुई और चर्च तथा सरकार का गहरा संबंध सर्वदा के लिये टूट गया। १८७० ई. में इटालियन क्रांति ने पेपल स्टेट्स पर भी अधिकार कर लिया, इस कारण जो समस्या उत्पनन हुई वह १९२९ ई. में हल हो गई (दे. वैटिकन)।
सं.ग्रं.- फिलिप यूगस : ए हिस्ट्री ऑव दी चर्च लंदन, १९३९ ई. (तीन भाग)। (फादर कामिल बुल्के)